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न्यूज क्लिपिंग्स् | आज भी मजबूर हैं बच्चे

आज भी मजबूर हैं बच्चे

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published Published on Oct 25, 2014   modified Modified on Oct 25, 2014
बाल श्रम के क्षेत्र में काम करने वाले कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलना देश के लिए गौरव की बात है। पर यह सवाल आज भी उतनी ही शिद्दत से हमारे सामने है कि कब हमारे देश से बाल श्रमिकों का उन्मूलन होगा। हाल ही में राजस्थान की राजधानी जयपुर के एक चूड़ी कारखाने से बिहार के 140 बाल मजदूरों को मुक्त कराया गया। यह बताता है कि बाल श्रम मुक्त भारत का सपना अभी दूर है। किन जटिल स्थितियों में काम करते हैं बाल मजदूर? सुनते हैं कुछ बाल श्रमिकों की दास्तान कि आखिर क्या वजह है कि जिस उम्र में उनकी पीठ पर स्कूल का बस्ता होना चाहिए, उस उम्र में वे अपने परिवार का पेट पालने को मजबूर हैं।

बुनाई के अलावा कुछ आता ही नहीं
महबूब,वाराणसी, उम्र 12 साल
बनारस के सिल्क उद्योग में बाल श्रम आम है। शहरों की संकरी गलियों में 100 से भी ज्यादा पॉवरलूम इकाइयां चल रही हैं, जिसमें 10-11 साल के बच्चे सुबह आठ बजे से शाम सात बजे तक बिना आराम किए लगातार काम करते हैं। बीच में बस एक घंटे का लंच ब्रेक मिलता है। इस कड़े परिश्रम के बदले उन्हें मासिक मेहनताना 2000 से 2500 रुपये मिलते हैं। कुछ उदार नियोक्ता खाने के लिए अलग से 100 रुपये दे देते हैं। उन्हें छुट्टी सिर्फ रविवार को मिलती है। लल्लापुरा का 12 वर्षीय महबूब पॉवरलूम में काम करता है। उसके पड़ोसी 12 वर्षीय अहमद व 11 साल का रिजवान भी उसके साथ काम पर जाते हैं। महबूब से जब उसके सपनों के बारे में पूछा तो वह कहता है कि बुनाई के अलावा उसे कुछ नहीं आता। वह कहता है, ‘मैं जिंदगी में कुछ नहीं सीख सका। लगभग एक-डेढ़ साल से यहां काम कर रहा हूं। मैं अच्छा बुनकर बनना चाहता हूं और बड़ा होकर अपना पॉवरलूम खोलना चाहता हूं।' पॉवरलूम के मालिक और यहां तक कि बच्चों के माता-पिता भी जोर देकर कहते हैं कि सिल्क इंडस्ट्री में काम करने वाले बच्चों की तुलना दूसरे बाल श्रमिकों से नहीं करनी चाहिए। बुनकरों के नेता अतीक अंसारी बताते हैं, ‘ये बच्चे एक दुर्लभ कौशल सीख रहे हैं। जब बड़े होकर वे आजीविका कमाने निकलेंगे तो यह उनके काम आएगी।' इसके अलावा, बुनकर परिवारों की हालत ऐसी नहीं है कि वे अपने बच्चों के लिए किताबें, स्कूल फीस व यूनिफॉर्म का इंतजाम कर सकें। अंसारी कहते हैं, ‘कोई माता-पिता अपने बच्चे को पॉवरलूम में काम के लिए भेजने में अच्छा महसूस नहीं करता। सभी बच्चे बेहद गरीब परिवार से आते हैं। यदि वे काम नहीं करेंगे तो उनका पालन-पोषण कौन करेगा?'
पवन दीक्षित

‘कोई भी अभिभावक अपने बच्चे को पॉवरलूम में काम के लिए भेजने में अच्छा महसूस नहीं करता। सभी बच्चे बेहद गरीब परिवार से आते हैं। यदि वे काम नहीं करेंगे तो उनका पालन-पोषण कौन करेगा?'
अतीक अंसारी, बुनकरों के नेता

अपने लिए नये कपड़े खरीदने के लिए काम कर रही हूं

शीला कुमारी, झारखंड, उम्र11 साल
राज्य सचिवालय से बमुश्किल 10 किलोमीटर दूर, जहां नीति-निर्माता राज्य के भविष्य की योजना तैयार करते हैं, 11 साल की शीला कुमारी अपनी मां के साथ तुपुदना में स्टोन क्रशिंग प्लांट में काम करती है। गर्द-गुबार से बचने के लिए अपने चेहरे को एक पतले तौलिये से लपेट कर वह मशीन में से दूसरे लॉट के पत्थरों के आने के इंतजार में खड़ी रहती है। वह मशीन से निकले पत्थरों को तोड़-तोड़ कर तेजी से छोटे पत्थरों में तब्दील करती है। शीला ने दो हफ्ते पहले ही यहां काम करना शुरू किया है। उसके माता-पिता दोनों स्टोन क्रशिंग प्लांट में काम करते हैं। ऐसा लग रहा है कि वह अपनी मर्जी से यहां काम करने आई है। वह शर्माते हुए बताती है, ‘मैं यहां सिर्फ कुछ दिन और काम करूंगी और कुछ पैसे बचाऊंगी, ताकि अपने लिए नये कपड़े खरीद सकूं।' शीला अपने माता-पिता के साथ रहती है। वह पास के स्कूल में पढ़ने भी जाती है। वह पांचवीं कक्षा की छात्रा है। वह यहां संयत्र में काम करने के लिए स्कूल नहीं जाती है। काम करने के लिए संयंत्र में काफी वक्त बिताना पड़ता है। धूल से भरे पत्थर के टुकड़ों को टीन के एक बास्केट में डाल कर उसे सिर पर उठा कर दूसरी मशीन के पास ले जाती है, मशीन उन पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों को बारीक पाउडर में बदल देता है। शीला यहां प्रतिदिन नौ घंटे से भी ज्यादा समय तक काम करती है। इसके बदले उसे एक हफ्ते के 600 रुपये मिलते हैं। वह बताती है, ‘मैं संयंत्र में सुबह आठ बजे आ जाती हूं और शाम साढ़े पांच बजे मुझे छुट्टी मिलती है।' शाम को घर लौटने के बाद उसे जो थोड़ा-बहुत खाली वक्त मिलता है उसमें वह दोस्तों के साथ खेलती है। वह कहती है, ‘मैं एक हफ्ते बाद वापस स्कूल जाऊंगी।' वह अपने घर की आर्थिक स्थिति जानती है, इसलिए बड़ी ख्वाहिशें नहीं पालती, लेकिन वह बड़ी हो कर डॉक्टर बनना चाहती है।
सौम्या मिश्रा

शिक्षक बनना है सपना

बिपिन चेरो, बिहार, उम्र 8 साल
शरीर पूरी तरह धूल से अंटा पड़ा था, पैरों में चप्पल थे, लेकिन भैंसों के साथ ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर लगातार चलते रहने से पांवों में जख्मों के असंख्य निशान थे। यह आदिवासी लड़का बिपिन चेरो भारत में बाल मजदूर का वास्तविक चेहरा है। मुश्किल से आठ साल की दहलीज पर पहुंचा यह लड़का रोहतास जिले के कैमूर की पहाड़ी में स्थित बादलगढ़ गांव का रहने वाला है। पश्चिमी बिहार के इस गांव के प्रधान की भैंस चराने से इस परिवार का गुजर-बसर होता है। गांव के लोग इस कदर गरीब हैं कि यहां कुछ ही लोग भैंस खरीदने में सक्षम हैं। इसलिए बिपिन को गांव के सबसे अमीर स्थानीय आदिवासियों में से एक बासगीत चेरो की भैंस चरानी पड़ती है। बिपिन कहता है, ‘वह झाड़ियों को काटने के लिए मुझे एक टांगी पकड़ा देते हैं, ताकि भैंसें आराम से चल-फिर सकें।' वह अपने पिता महेंद्र चेरो की भी मदद करता है, जो लकड़हारा हैं। बिपिन का 13 वर्षीय बड़ा भाई अरविंद बतौर खेतिहर मजदूर पंजाब में काम कर घर का खर्च चलाने में मदद करता है। उसका पांच वर्षीय छोटा भाई और तीन साल की बहन तेतर घर पर मां के पास रहते हैं। मां की तबीयत ठीक नहीं रहती। इस वजह से घर को आर्थिक संकट से निकालने के लिए बिपिन इतना कठिन श्रम करता है। इतनी कड़ी मेहनत करने के बावजूद उसने अपने पिता को इस बात के लिए मजबूर किया कि वह उसका दाखिला गांव के स्कूल में करवा दें। बिपिन की अस्वस्थ मां उसके स्कूल में रहने के दौरान भैंसों को चराने के काम में उसकी मदद करती है। जैसे ही स्कूल की छुट्टी होती है बिपिन भाग कर चरागाह पहुंचता है, ताकि उसकी मां घर जाकर पूरे परिवार के लिए खाना बना सके। बिपिन अपने सपनों के बारे में बताता है, ‘मैं मास्टर बनना चाहता हूं।' बिपिन महीने में हजार रुपये कमा लेता है, जो वह पूरा का पूरा मां को दे देता है। वह कहता है, ‘काम के बाद खाली समय में शाम को मैं एक घंटे खेल कर बिताता हूं।' उसका वह खेलना सामान्यत: मां और छोटे-भाई बहनों के साथ गपशप करना होता है। उसके घर में बिजली, टीवी यहां तक कि रेडियो भी नहीं है, इसलिए वे जल्दी सोने चले जाते हैं।
प्रसून के. मिश्रा

कैसे रोका जा सकता है बाल श्रम को
(कार्यकर्ताओं के अनुसार- क्या करें और क्या न करें)
- कानून बच्चों और किशोरों को अलग नहीं मानता। 18 साल से कम उम्र के बच्चे से काम नहीं करवाया जा सकता। द राइट ऑफ चिल्डे्रन टू फ्री एंड कम्पल्सरी एजुकेशन एक्ट, 2009 के अनुसार 18 साल तक के उम्र के सभी बच्चों को पढ़ाया जाना व काम करने वाले सभी बच्चों का पुनर्वास कराना अनिवार्य है।
- चेन लिंकेज या कांट्रैक्ट की हालत में मुख्य नियोक्ता को बाल श्रम का जिम्मेदार माना जाए। कानून का उल्लंघन करने वालों को हतोत्साहित करने के लिए जुर्माने की न्यूनतम राशि 50 हजार रुपये होनी चाहिए।
- सुरक्षात्मक वातावरण को मजबूत करने, बाल श्रम रोकने और काम करने वाले बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए हर स्तर पर समग्र बाल संरक्षण योजना (आईसीपीएस) के कार्यान्वयन की आवश्यकता है।
- बाल श्रम पर उचित और सटीक डाटा संग्रह भी प्रभावी नीति बनाने और कार्यक्रम निर्माण के लिए आवश्यक है।

चायवाले साहिल की कोई छुट्टी नहीं

साहिल (बदला नाम), नई दिल्ली
साहिल को बिहार के उसके पैत्तृक गांव से उसके ‘चाचा' दिल्ली पढ़ाई के लिए लाए थे। साहिल बताता है कि यहां चाय की दुकान पर चाचा की मदद करने आने से पहले वह कुछ दिनों के लिए मदरसा गया था। वह अपनी उम्र 15 साल बताता है, लेकिन दिखने में इससे काफी छोटा लगता है। साहिल कहता है, ‘ चाचा परिवार के सदस्य नहीं हैं। हम लोग एक ही गांव के हैं। मैं यहां चाय की दुकान पर एक महीने से काम कर रहा हूं। चाचा ने कहा कि उनका सहायक काम छोड़ गया है, इसलिए तुम काम में हाथ बंटाने मेरे साथ चलो।' सामान्यत: वह चाय की दुकान सुबह नौ बजे से शाम सात बजे तक खुली रहती है। साहिल के जिम्मे मुख्य रूप से चाय की ग्लास साफ करना और ग्राहकों को चाय देना है। सप्ताह के किसी भी दिन उसे छुट्टी नहीं मिलती। साहिल ने इस बात की पुष्टि की, ‘मैं यहां रोज काम करता हूं।' वह अपनी जिंदगी के मकसद के बारे में नहीं बता पाया और न ही यह ठीक से बता पाया कि उसे यहां की जिंदगी पसंद है या गांव की, क्योंकि इन सवालों का जवाब देने के लिहाज से वह काफी छोटा था। उसने कहा, ‘गांव में मैं काम नहीं करता था, लेकिन स्कूल भी नहीं जाता था। दिन भर गांव के चक्कर लगाता था या घर बैठा रहता था। मेरे पिता काम नहीं करते। बड़ा भाई घर के खर्च चलाता है।' लेकिन मैं उससे यह नहीं पूछ सकी कि उसे यहां कितनी पगार मिलती है, क्योंकि तभी दुकानदार की नजर उस पर पड़ गई, जब उसने देखा कि वह एक पत्रकार से बात कर रहा है तो उसने उसे आवाज लगा कर बुला लिया। साहिल से दोबारा मिलने के प्रयास भी असफल रहे। चाइल्ड राइट एंड यू (क्राई) द्वारा इस साल कराये गए सर्वे से पता चलता है कि अधिकतर नियोक्ता यह जानते हैं कि बच्चों से काम करवाना गैरकानूनी है।
पॉलोमी


http://www.livehindustan.com/news/location/rajwarkhabre/article1-injection---0-457958&locatiopnvalue=1.html


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