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न्यूज क्लिपिंग्स् | आत्महत्या करनेवालों में किशोर और युवा सबसे आगे

आत्महत्या करनेवालों में किशोर और युवा सबसे आगे

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published Published on May 16, 2016   modified Modified on May 16, 2016

टूट रही नयी पीढ़ी को सहारा देनेवाली डोर


देश की नयी पीढ़ी में तनाव और अवसाद किस कदर बढ़ रहा है, इसका स्पष्ट संकेत लंदन की प्रतिष्ठित पत्रिका लांसेट में छपी ताजा रिपोर्ट से मिलता है. रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में किशोरों और युवाओं की मौत का अब सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है. हालांकि राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े पहले ही बता चुके हैं कि भारत में आत्महत्या करनेवालों में सबसे ज्यादा (40 फीसदी) किशोर और युवा शामिल हैं.

आत्महत्या व्यक्ति के जीवन में दर्द, तनाव और अवसाद के चरम पर पहुंचने का सूचक है. आत्महत्याओं के कारण और तरीके भले अलग-अलग हों, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि जब परिवार, समाज और देश की व्यवस्था से सहारे की हर उम्मीद खत्म हो जाती है, तभी कोई व्यक्ति इस आखिरी रास्ते को चुनता है.

ऐसे में किशोरों और युवाओं की लगातार बढ़ती आत्महत्याओं के बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या विकास की चकाचौंध और आगे बढ़ने की अंधी प्रतिस्पर्धा के बीच हमारे परिवार, समाज और शासन में नयी पीढ़ी को सहारा देने की शक्ति क्षीण हो रही है? नयी पीढ़ी की आत्महत्याओं से उपजी चिंता के कारण और समाधान पर एक नजर आज के इन दिनों में...

हमारी सामूहिक विफलता का परिणाम है नयी पीढ़ी की बढ़ती आत्महत्याएं

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने तब हम सबकी तरफ उंगली उठायी थी, जब राजधानी दिल्ली में अायोजित ‘प्रतिरोध 2' नाम की सभा में उन्होंने कहा था कि ‘अापने हमें विरासत में जो समाज दिया है, उसे इस कदर खंड-खंड कर दिया है कि हम उसे जोड़ें किधर से अौर कैसे, यही समझ में नहीं अा रहा है.'

हालांकि, अक्ल केवल कन्हैया कुमार की गुम नहीं है, हम सबकी भी है, जब हम नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो का अांकड़ा पढ़ते हैं कि साल 2014 में देश में कुल 1,31,666 लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें करीब 40 फीसदी 14 से 30 साल आयुवर्ग के थे. कितना करुण है यह कि जिनका जीवन अभी पूरा खुला-खिला भी नहीं, वे जीने से मुंह मोड़ रहे हैं! इससे तो यही लगता है कि हमारा खंड-खंड समाज किसी को साबुत नहीं रहने देगा.

अात्महत्या एकदम ही निजी फैसला भी है अौर एकदम निजी कर्म भी! लेकिन यह निजी कर्म जैसा सार्वजनिक बयान देता है, वैसा दूसरा कोई कृत्य नहीं देता. हर अात्महत्या यह बताती है कि यह रास्ता इसलिए चुना गया, क्योंकि दूसरे सारे रास्ते बंद हो चुके थे- जीने के रास्ते, जीने की किसी दूसरी संभावना के उगने के रास्ते!

कोई भी अादमी तब तक अात्महत्या नहीं करता है जब तक उसे कहीं से भी, कैसी भी, अाशा रहती है कि कोई खिड़की खुल सकती है जिससे उम्मीद की कोई किरण उतर सकती है.

दिल्ली के किशनगढ़ की अारती नाम की 19 साल की उस लड़की ने भी, जिसने सड़क पर अपनी लगातार की छेड़छाड़ से विचलित होकर (शायद खुद से घिन महसूस करके!) अात्महत्या कर ली, तब तक रुकी ही रही थी, जब तक उसे अाशा थी कि उसका परिवार या पड़ोस या समाज इस बेजा अपमान को रोकने का कोई रास्ता निकाल लेगा. लेकिन, उसकी वह अास सब तरफ से टूटती गयी अौर अंतत: एकदम बेअास होकर उसने वही किया, जो बाकी के हजारों युवाअों ने किया.

यह उम्र सपनों के खाद-पानी पर पकती है अौर सपनों के महल बनाती है. अौर सपने भी सारे सोने के! वे सपने हर तरह के हैं- जीवन के, कैरियर के, परिवार से प्यार पाने के, मनुहार के, परीक्षा में हो कि प्यार में हो सफलता-विफलता के, लड़की अौर लड़के के अाकर्षण के, मान-अपमान के, तमाम एशो-अाराम के! अाप यह भी तो नहीं कह सकते न कि सपने नहीं देखने चाहिए; कि इतने भावुक क्यों होते हैं ये नयी पीढ़ी के बच्चे; कि इन्हें सब कुछ इनके अनुकूल ही मिले, यह कैसे मान लिया इन्होंने, अौर यह भी कि इतनी अंधी प्रतिस्पर्धा क्यों पालते हैं ये? क्योंकि, अाप जितने सवाल पूछेंगे, उतने ही निरुत्तर होते जाएंगे.

ये बच्चे व्यक्तिश: भी अौर सामाजिक-सामूहिक रूप से भी हमारे ही अाईने हैं. हमने ही इनके मनमें इस जीवन के बारे में अौर इस समाज के बारे में गलत अवधारणाएं भरी हैं. हम ही तो सबसे पहले उनसे कहते हैं कि सबसे अागे रहने में ही जीत है अौर जीतना ही जीवन की सफलता व सार्थकता है. यह भाव उसके बालमन से चिपक जाता है अौर फिर वह अपनी हर सफलता अौर विफलता का, उपलब्धि अौर खोने का मूल्यांकन करने लगता है.

उसे हर कदम पर वह मिलता है जो सच है, लेकिन उसके सपने से एकदम अलग है. वह खुद से लड़ता भी है अौर जीतता भी है, लेकिन दूसरों से हार जाता है. वह दूसरा भी तो हमारी ही प्रतिच्छाया है न! वह भी खुद से लड़ता है अौर तुमसे ज्यादा अच्छी तरह जीतता है, इसलिए तुमसे अागे निकल जाता है अौर अागे निकलना ही जीवन की सार्थकता है, यह भाव उसमें कूट-कूट कर भरा किसने है? हमने ही न, जो अपने बच्चे की अात्महत्या पर सिर कूट रहे हैं!

इस तरह से नयी पीढ़ी को हमने अापस में ही लड़ने अौर अापस में ही फैसला करने के लिए अभिशप्त बना दिया है. ऐसे में जब वह उलझता है, विमूढ़-सा रह जाता है, टूटता है अौर किसी कोने से खुली हवा के एक प्रवाह के लिए तरसता है, तब हम कहां होते हैं कि उसे संभाल सकें!

वह देखता है कि इनके ही बताये रास्ते पर चलते-चलते तो मैं इन अंधी गलियों में अाकर फंसा हूं, तो इससे निकलने का रास्ता इनके पास से कैसे मिलेगा? जो रास्ता कहीं पहुंचता नहीं है अौर कहीं पहुंचाता नहीं है, उस रास्ते से हट जाना ही समझदारी है, ऐसा अापने ही उसे समझाया होता है. इसलिए वह अामिर खान की फिल्म थ्री इडियट्स में ‘अाइ क्विट' का झंडा लहरा देता है.

हमारे बच्चे किनारा कर लेते हैं, क्योंकि हमने उन्हें सिखाया-बताया ही नहीं होता है कि तैरना बड़ी बात है, लेकिन इस मानव-सागर में कोई एक ही किनारा नहीं है कि जहां न पहुंचे तो कहीं नहीं पहुंचे! यहां तो हर तरफ किनारा ही किनारा है. जरा दिशा बदल लो, तो कहीं किसी दूसरे संसार में ठिकाना मिल जायेगा! अौर तैरने का भी अपना ही अानंद है. तैरनेवाला कोलंबस

हिंदुस्तान खोज लेता है! आज लड़कियों को यह बताना बहुत जरूरी है कि शरीर न तो प्रारंभ है अौर न अंत!

उस पर जबर्दस्ती करनेवाले अपराधी हैं, जिसकी सजा उन्हें समाज अौर कानून को देना है. समाज मूढ़ भी है, असंगठित भी अौर अपराधियों की तरफ झुका हुअा भी. इसलिए अपराधी छूटते अौर जीतते नजर अाते हैं.

लेकिन, ऐसा सिर्फ लड़की के मामले में ही नहीं, हर मामले में है. तो इसके खिलाफ सामूहिक तौर पर लड़ाई लड़नी है, लेकिन वक्ती तौर पर बलात्कार की हर संभावना से सावधान रह कर अपना बचाव करना अौर विफल होने की स्थिति में उसे एक बुरा हादसा मान कर, पीड़ित की मदद अौर इलाज करवाना, यह परिवार अौर समाज का दायित्व है. नयी पीढ़ी, खास कर लड़की, को यह समझाना बहुत जरूरी है कि अगर तुम अपमान से अपमानित होती हो, तो अपमान करनेवाला जीत जाता है. उसे हराना हो तो खुद को अपमान से बड़ा बनाअो.

किसी ने एक बड़ी बात कही है कि मैं इतना छोटा अादमी नहीं हूं कि तुम्हें मौका दूंगा कि तुम मुझे अपमानित कर सको अौर तुम इतने बड़े अादमी नहीं हो कि मुझे अपमानित करने का अवसर पा सको. यह भाव अपने बच्चों में अौर अपने समाज में भरने की जरूरत है. हम यह खूब अच्छी तरह समझें कि अात्महत्या भी एक रास्ता है, ऐसा माननेवाला हर युवा हमारी सामूहिक विफलता का प्रतीक है. हम सब सामाजिकता की परीक्षा में सामूहिक तौर पर 40 फीसदी विफल हुए हैं.

कुमार प्रशांत

गांधीवादी विचारक
आकांक्षाओं के बोझ तले दम तोड़ रहा है बचपन
प्रो रविंदर कौर
विभागाध्यक्ष, ह्यूमनिटीज एंड सोशल साइंस, आइआइटी, दिल्ली

लेंसेट की हालिया रिपोर्ट में यह बताया गया है कि भारत में 15 से 24 साल की उम्र में मरनेवाले युवाओं में ज्यादातर खुदकुशी को चुन रहे हैं. दरअसल, भारत की युवा आबादी ज्यादा है, जिसे डेमाग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकीय विभाजन यानी जनसंख्या में बढ़ती युवा जनसंख्या) कहते हैं.

कुछ लोगों का मानना है कि यह डेमोग्राफिक डिविडेंड अब डेमोग्राफिक डिजास्टर (जनसांख्यिकीय आपदा) में बदलता जा रहा है. चूंकि इस उम्र के युवाओं में महत्वाकांक्षाएं कुछ ज्यादा होती हैं, जब उनकी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हो पातीं, तो वे टूट जाते हैं और अपनी जिंदगी ही खत्म करना बेहतर समझते हैं. हर एक चीज को लेकर युवाओं पर दबाव बढ़ रहा है- चाहे वह शिक्षा हो, नौकरी हो, प्रेम-संबंध हो, उपभोग की महंगी संस्कृति हो, या फिर सब कुछ पा लेनेकी प्रतिस्पर्धा हो. इन सबके मद्देनजर, भारतीय युवाओं में आत्महत्या करने की इस बढ़ती प्रवृत्ति के कई कारण हैं.

कोचिंग पर बढ़ती निर्भरता

हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो गयी है कि बिना कोचिंग के हमारे बच्चे बेहतर कर ही नहीं पायेंगे. एक तरह से यह भारतीय परिवारों की सोच भी बन गयी है. बच्चों को हर चीज के लिए आज कोचिंग करने की जरूरत पड़ रही है. बात सिर्फ सिविल सर्विस की तैयारी करने या आइआइटी-आइआइएम जैसे संस्थानों में दाखिला लेने की नहीं है, बल्कि हर छोटी-बड़ी शैक्षणिक तैयारियों के लिए आज बच्चों को कोचिंग पर ही निर्भर रहना पड़ता है. कोचिंग की यह व्यवस्था उच्च-स्तर की प्रतिस्पर्धा पैदा करती है. बढ़ती प्रतिस्पर्धा से उन पर दबाव बढ़ता है और इस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ना कभी-कभी बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो जाता है.

महत्वाकांक्षी मध्यवर्ग और मां-बाप

देश में मध्यवर्ग तेजी से बढ़ रहा है. यह वर्ग अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरत को पूरी करने की आकांक्षा पाले रहता है. इसके साथ ही बच्चों को लेकर मध्यवर्गीय मां-बाप की भी आकांक्षाएं बढ़ रही हैं. मध्यवर्गीय मां-बाप अपने बच्चों के जरिये ही अपनी आकांक्षाएं पूरी करना चाहते हैं, जो पहले वे कभी नहीं कर पाये थे. इसलिए वे अपने बच्चों पर अच्छी पढ़ाई के लिए दबाव बनाने लगते हैं.

कई मां-बाप तो ऐसे हैं, जो अपने बच्चों के लिए ऐसी नौकरी चाहते हैं, जिसमें खूब पैसे हों, यह देखे बिना कि उसकी पढ़ाई का दबाव बच्चा बर्दाश्त कर पायेगा या नहीं. इसके लिए वे बच्चों पर दबाव बनाते हैं, जिसका खामियाजा यह होता है कि कभी-कभी बच्चे अवसाद का शिकार हो जाते हैं और गलत कदम उठा लेते हैं.

एक उदाहरण देखिए- जब आइआइटी में काउंसेलिंग के लिए बच्चे अपने मां-बाप के साथ आते हैं, तो वे मां-बाप बच्चे के लिए विषय के बजाय यह पूछते हैं कि किस विभाग से बीटेक करने के बाद सबसे ज्यादा सैलरी पैकेज मिलेगा, यह नहीं पूछते कि बच्चे को उस विभाग में इंटरेस्ट है या नहीं. इस तरह मनोवैज्ञानिक दबाव बनता है बच्चों पर.

समाज का कमर्शियल और उपभोक्तावादी होना

एक ऑस्ट्रेलियाई लेखक हैं पीटर मायर, जिन्होंने इस विषय पर कुछ साल पहले ही एक किताब लिखी थी. उस किताब में मायर ने इस बात को रेखांकित किया था कि युवाओं में आत्महत्या बढ़ रही है और हम लोग इस आंकड़े पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं. भारत में किसानों की आत्महत्या पर खूब चर्चा होती है, होनी भी चाहिए, लेकिन युवाओं की आत्महत्या पर कुछ नहीं होता, जबकि युवाओं की बड़ी संख्या इसका शिकार हो रही है. हमारा समाज इतना कमर्शियल और उपभोक्तावादी हो चुका है कि हर चीज के लिए मारा-मारी मची हुई है.

हमने अपने विभाग में एक सर्वे किया, तो पाया कि जिन बच्चों के पास 18 से 25 हजार तक का मोबाइल फोन है, उन पर इस बात का दबाव है कि आगे वे इससे भी महंगे माेबाइल फोन रख सकें. जाहिर है, इसके लिए एक मोटी सैलरी पैकेज की जरूरत तो पड़ेगी ही. अब देश में जॉबलेस ग्रोथ है, तो अच्छी सैलरी वाली नौकरी कहां से मिले? दूसरी ओर उपभोग आधारित महंगी लाइफ स्टाइल का बढ़ना और इस लाइफ स्टाइल में जीने की आकांक्षा के दबाव का बढ़ना भी बच्चों पर असर डालता है.

मीडिया, सोशल मीडिया और प्रेम-संबंध

आज टीवी खोलिए तो एक से बढ़ कर एक महंगी चीजों का विज्ञापन आता दिखाई देता है और उन्हें पाने की ललक पैदा होती है. मीडिया कम उम्र के युवाओं में आकांक्षाएं पैदा करता है. फिल्मों में और टीवी पर प्रेम करने के नये-नये ऐसे तरीके नजर आते हैं, जिन्हें यथार्थ जीवन में उतारना बड़ा मुश्किल होता है. लेकिन आज के बच्चे प्रयोग करने में जरा भी नहीं हिचकते.

पहले का दौर नहीं रहा कि पहले शादी के बाद ही यौन-संबंध बनेंगे. अब तो शादी से पहले ही आज के युवा एक्सपेरिमेंट करने लगे हैं. ऐसे में जब वे फेल हो जाते हैं, तो वे अपने जीवन को निरर्थक मान बैठते हैं. यही वजह है कि बाकी तमाम तरह के दबावों के बावजूद युवाओं में प्रेम-संबंधों का फेल हो जाना भी एक प्रमुख कारण है उनकी आत्महत्या का. मसलन, किसी ने सोशल मीडिया पर लिख दिया कि वह उससे ब्रेकअप चाहती है या चाहता है, तो वह इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पाता या पाती और नतीजा होता है

आत्महत्या.

आत्महत्या की सामाजिक अवधारणा

हम आत्महत्या को एक समाज और एक व्यक्ति के बीच के संबंध के तौर पर देखते हैं. यानी, जिस व्यक्ति का अपने समाज से मजबूत संबंध होता है, वहां वह व्यक्ति जल्दी आत्महत्या नहीं कर सकता. लेकिन, जब समाज और व्यक्ति के संबंध कमजोर हो जाते हैं, तब वह व्यक्ति आसानी से आत्महत्या कर सकता है.

कहने का अर्थ है कि अगर लोगों में अकेलापन बढ़ेगा, तो उनमें आत्महत्या की प्रवृत्ति घर कर सकती है. यह बताने की जरूरत नहीं कि आज तकनीक और सूचना के इस दौर में अकेलापन बढ़ रहा है. हमारे बच्चे खुद किसी न किसी प्रकार के दबाव के चलते खुद को अकेले कर लेते हैं. एक ही हॉस्टल या एक मुहल्ले में रहते हुए दो बच्चे एक-दूसरे से बहुत अंजान बने रहते हैं, उनमें सामाजिकता पनप नहीं पाती, तकनीक के जरिये वे दुनिया से जुड़े हुए हैं, लेकिन अपने नजदीकियों से कटे हुए हैं. युवाओं में आत्महत्या का यह बहुत बड़ा कारण है.

सरकार की लापरवाही और सामाजिक संस्थान

इस मसले पर सरकार कुछ नहीं कर रही है. मेरा मानना है कि जितने भी सामाजिक और मानवाधिकार वाले संस्थान हैं, उनमें इस मसले पर काउंसेलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए. परिवारों तक काउंसेलिंग की पहुंच बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि मां-बाप यह समझ सकें कि बच्चों पर इस तरह दबाव बनाना ठीक नहीं है.

एक तो बच्चों के पास अब खेलने तक का वक्त नहीं है, दूसरे उन पर तमाम तरह के दबाव होते हैं, आखिर बच्चे करें तो क्या करें! दरअसल, युवाओं में आत्महत्या को हम मानसिक बीमारी का परिणाम मानने तक ही सीमित कर देते हैं, हम यह नहीं सोच पाते कि उसके ऊपर बढ़ रहे बाकी दबावों को सहने के लिए वे दिमागी तौर पर इतने मजबूत नहीं हैं, इसलिए भी हम यह नहीं समझ पाते कि इस हालत में उनकी काउंसेलिंग कैसे करनी है. इसलिए मां-बाप की भी काउंसेलिंग की जरूरत है, ताकि वे समझ सकें कि बच्चों पर पढ़ाई या किसी चीज का दबाव बनाने से ही वे सफल नहीं होंगे.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

भारतीय किशोरों और युवाआें में मौत की सबसे बड़ी वजह आत्महत्या

लंदन स्थित एक शोध संस्था ने भारतीय नौजवानों की मौत के कारणों का अध्ययन किया है, जिसकी रिपोर्ट प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका लांसेट में छपी है. इस अध्ययन के लिए संस्था ने ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीजेज, इंज्यूरिज एंड रिस्क फैक्टर स्टडी, 2013 के आंकड़ों का इस्तेमाल किया है.

स्टडी में 188 देशों के नौजवानों से संबंधित आंकड़े हैं. ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीजेज परियोजना अंतरराष्ट्रीय सहभागिता से चलायी जाती है, जिसमें 110 से अधिक देशों के करीब 1500 शोधार्थी शामिल हैं. इसका कोऑर्डिनेशन वाशिंगटन विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य संस्थान द्वारा किया जाता है. रिपोर्ट के अनुसार,

36.46
करोड़ आबादी है भारत में 10-24 वर्ष आयु वर्ग की, 2011 की जनगणना के अनुसार.
30.11
फीसदी देश की जनसंख्या की उम्र 10 से 24 वर्ष के बीच है, जनगणना के मुताबिक.
62,960
बच्चों और युवाओं ने (10 से 24 वर्ष आयु वर्ग के) आत्महत्या की 2013 में, जो कि इस आयु वर्ग में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण हैं.
3,594
बच्चों ने (10 से 14 आयु वर्ग के) आत्महत्या की भारत में 2013 में.
23,748
किशोरों ने (15 से 19 आयु वर्ग के) आत्महत्या की भारत में 2013 में.
35,618
युवाओं ने (20 से 24 आयु वर्ग के) आत्महत्या की भारत में 2013 में.
41,168
लोग, 10 से 24 वर्ष आयु वर्ग के, सड़क दुर्घटनाओं में मारे गये 2013 में.
32,171
लोग इस आयु वर्ग के तपेदिक (टीबी) से काल कवलित हुए 2013 में.
28.65
लाख लोग, 10-24 वर्ष आयु वर्ग के, अवसाद से जुड़ी समस्याओं के कारण स्वास्थ्य के नुकसान से जूझ रहे हैं, लांसेट की रिपोर्ट के अनुसार.
1.8 अरब
आबादी दुनिया की 10-24 वर्ष आयु सीमा में है, जिनमें से 89 फीसदी विकासशील देशों में रहती है. वर्ष 2032 तक इस संख्या के दो अरब हो जाने की संभावना है.
89,195
लोगों ने आत्महत्या की भारत में 1994 में
1,13,697
हो गये आत्महत्या करनेवाले 2004 में.
1,31,666
लोगों ने आत्महत्या की भारत में 2014 में.
44,870
युवाओं ने 18 से 30 आयु वर्ग के आत्महत्या की 2014 में.
9,230
किशोरों ने 14 से 18 वर्ष के आत्महत्या की 2014 में.
40%
के करीब रही संख्या किशोरों-युवाओं (14 से 30 साल आयुवर्ग) की, आत्महत्या करनेवाले सभी भारतीयों में 2014 में.
2,403
युवाओं ने परीक्षाओं में फेल हो जाने के कारण आत्महत्या की भारत में 2014 में, जिनमें 1358 पुरुष और 1045
महिलाएं थीं.
4,168
लोगों ने प्रेम में विफल रहने पर अपनी जान दी 2014 में भारत में, जिनमें 2441 पुरुष और 1727 महिलाएं थीं.
5,650
किसानों ने खुदकुशी भारत में 2014 में, जो कुल मामलों का 4.3% था.


http://www.prabhatkhabar.com/news/special-news/story/799821.html


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