Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | आधी आबादी की राजनीतिक हिस्सेदारी- अरविन्द मोहन

आधी आबादी की राजनीतिक हिस्सेदारी- अरविन्द मोहन

Share this article Share this article
published Published on Nov 29, 2013   modified Modified on Nov 29, 2013

चुनाव आते ही अगर सभी दलों और सचेत लोगों को महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का मसला याद आने लगता है, तो यह महिलाओं के प्रति उनके अनुराग या देश में महिलावादी आंदोलन का जोर बढ़ने का नतीजा नहीं है. अभी तक महिलाओं का अपना आंदोलन शहरों को छोड़ कर कहीं नहीं गया है. असल में इसका कारण हाल के चुनावों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी है. बीते दो-ढाई दशक में अगर हमारा लोकतंत्र अधिक लोकोन्मुख हुआ है, इसमें पिछड़ों, आदिवासियों, दलितों की भागीदारी बढ़ी और मजबूत हुई है, तो इसका सबसे अच्छा प्रमाण मतदान का प्रतिशत बढ़ना है.

पिछड़े जमातों में इसमें और तेजी से वृद्धि हुई है. दूसरी ओर लोकसभा और विधानसभाओं का सामाजिक स्वरूप भी तेजी से बदला है. ठीक ऐसी ही वृद्धि महिलाओं के मतदान प्रतिशत में भी दिखती है. इस बार भी अभी मध्य प्रदेश में महिलाओं के मतदान का नया रिकॉर्ड बना. डॉ लोहिया महिलाओं को भी पिछड़े तबके के अंदर ही मानते और गिनते थे. जब सभी कमजोर जमातें लोकतंत्र और प्रतिनिधित्व प्रणाली वाली शासन व्यवस्था में हिस्सेदारी बढ़ा कर अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ रही हैं, तब महिलाओं की तरफ से भी मतदान में भागीदारी बढ़ जाये, तो हैरानी किस बात की है?

दरअसल, हैरानी की बात यह है कि महिलाओं में वोट के प्रति जागरूकता बढ़ने के बावजूद संसद और विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ा है. इस बार जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, उनमें से अकेले राजस्थान को छोड़ बाकी चार में महिलाओं के चुनाव लड़ने और टिकट पाने की संख्या में गिरावट आयी है. जितनी हिस्सेदारी वोटिंग में है, उतनी चुनाव लड़ने में नहीं. जितनी चुनाव लड़ने में है, उतनी हाउस के अंदर नहीं और सत्ता के महत्वपूर्ण पदों पर तो उस अनुपात से भी कम भगीदारी है. समाज और उसके आर्थिक कार्य-व्यापार में महिलाओं की दमदार भागीदारी वाले मिजोरम में भी इस बार पहले से कम महिलाएं मैदान में थीं, पर यह जानकारी चौंकाती है कि आज तक मिजोरम विधानसभा में कोई महिला पहुंची ही नहीं. दिल्ली में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और मंत्री किरण वालिया के अलावा सिर्फ एक और महिला जीत पायी थी, जिसे महिला आयोग का प्रमुख बना दिया गया. इस कमी और महिलाओं के अच्छे प्रदर्शन के बावजूद दिल्ली में पार्टियों ने दस फीसदी टिकट भी महिलाओं को नहीं दिया. महिला को टिकट का अर्थ अकसर पुरुष नेता की किसी रिश्तेदार को टिकट देना है.

टिकट देने न देने की वजह ‘विनेबिलिटी’ यानी जीत की संभावना बतायी जाती है. पर पिछले चुनाव तक के आंकड़े बताते हैं कि अगर चुनाव लड़नेवाले आठ-नौ फीसदी पुरुष ही चुनाव जीत पाते हैं, तो महिला उम्मीदवारों में चुनाव जीतनेवालियों का औसत 12 फीसदी के आसपास होता रहा है. फिर जब टिकट ही नहीं मिलेगा, तो विनेबिलिटी दिखाने का अवसर कहां मिलेगा? भाजपा का तर्क है कि वह संसद और विधानसभाओं में 33 फीसदी महिला आरक्षण के पक्ष में है. मगर, महिलाओं को आगे लाने का पक्षधर होकर भी वह अकेले पहल नहीं कर सकती, क्योंकि बाकी दल उसकी तरह साफ वादा नहीं कर रहे हैं. यह बहलानेवाली बात है. अगर उसे अब मुसलमानों तक की नाराजगी की चिंता हो रही है और नरेंद्र मोदी टोपी-बुर्का बंटवा रहे हैं तथा मुसलमान धर्मगुरुओं से समर्थन पाने का जतन कर रहे हैं, तो महिलाओं को चुनावी टिकट देने की जगह संगठन में शोभा की चीज क्यों बनाया जा रहा है?

सत्ता के महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं को हिस्सा देने, संसद-विधानसभाओं में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाने में कांग्रेस भी पीछे है, जिसकी नेता सोनिया गांधी हैं. गौरतलब है कि नेतृत्व के मामले में पार्टी पर सोलह आने हावी मायावती, ममता बनर्जी और जयललिता भी इस मामले में महिला विरोधी ही ठहरती हैं. जिस पंचायती राज संस्था को महिला नेतृत्व उभारने और प्रशिक्षित करनेवाला माना जा रहा था, उसने भी कम से कम इन पांच राज्यों में ऐसा कोई काम नहीं किया है. यह तक कहा जाता था कि अच्छा और सक्षम नेतृत्व इन सवालों पर तुरंत ध्यान देगा. पर ऐसा नहीं हुआ है. अब अगर 50 फीसदी आबादी वोट देने में, राजनीतिक समझदारी में तेजी से आगे निकल रही है, तो नेतृत्व और प्रतिनिधित्व के मामले में वह पिछड़ी ही रहेगी, यह कहना गलत होगा. पर वे ये हिस्सा लेने की स्थिति में कब आयेंगी, यह कहना मुश्किल है.

दरअसल, औरतों में राजनीतिक चेतना बढ़ी है. मतदान केंद्रों पर उनकी पांत लग जाती है, वे पुरुषों से पूछ कर ही मतदान नहीं करतीं और उनका फैसला कई बार पुरुषों से अलग होता है. पर दो तीन चीजें बहुत साफ हो रही हैं. अपने परिवार, बिरादरी, आर्थिक हैसियतवाली जमात, इलाके की हवा का उस पर असर रहता ही है. इसलिए उसकी चेतना बढ़ने को अलग परिघटना नहीं मान सकते. दूसरे उनका वोट देना और राजनीतिक रूप से सचेत होना बढ़ा है. तीसरी चीज है, सब घालमेल के बावजूद कुछ साफ प्रवृत्तियों को दिखाना. योगेंद्र यादव ने वर्षो के आंकड़ों के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि उनका रुझान एक फीसदी ज्यादा कांग्रेस के पक्ष में और ढाई-तीन फीसदी भाजपा के खिलाफ है. एक फीसदी ज्यादा रुझान वाम दलों, राजद और क्षेत्रीय दलों के पक्ष में भी होता रहा है. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह की छवि महिलाओं में लोकप्रिय है. इसलिए जब वहां महिलाओं की वोटिंग बढ़ी, तो संभव है कि यह शिवराज के नाम पर हुआ हो. पिछले बिहार चुनाव में भी महिलाओं की वोटिंग ज्यादा थी, पर कुछ अलग नहीं हुआ. महिलाएं शायद भाजपा के ज्यादा हुड़दंगी राजनीति से परेशानी महसूस करती हैं.

 आम तौर पर औरत, युवा, दलित, आदिवासी या किसी जाति समूह का वोट एकदम अलग-थलग ढंग से नहीं पड़ता. वह अकसर अपनी जमात के हिसाब से ही चलता है. पर यह भी होता है कि सत्ता पाने या उसकी हिस्सेदारी के लिए दो जमातें एक दूसरे से मुकाबला करती हैं और इस क्रम में अपनी एकजुटता बढ़ाने के साथ ही अपने साथ संख्या बल बढ़ाने का जतन भी करती है. दलित-पिछड़ा गठजोड़, यादव-मुसलमान गठजोड़, कभी कांग्रेस का ब्राह्मण-मुसलमान-दलित, कभी मायावती का दलित-ब्राह्मण-अति पिछड़ा गठजोड़ भी दिखता और कारगर होता रहा है. जब महिलाओं की आबादी सीधे पचास फीसदी हो जाती है, तब कायदे से उन्हें ऐसे गठजोड़ की जरूरत नहीं होनी चाहिए. पर अपनी जमात की टूट को कम करना और एकजुटता बढ़ाने के साथ रजनीतिक चेतना बढ़ानी तो पढ़ेगी ही.


http://www.prabhatkhabar.com/news/66837-story.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close