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न्यूज क्लिपिंग्स् | आपदा राहत की उलझी कड़ियां-- शैलेन्द्र चौहान

आपदा राहत की उलझी कड़ियां-- शैलेन्द्र चौहान

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published Published on Dec 8, 2015   modified Modified on Dec 8, 2015
भारत में लोगों को आपदा से बचाना या तत्काल राहत पहुंचाना किसकी जिम्मेदारी है? पिछले पांच दशक से सरकार भी इस यक्ष प्रश्न से जूझ रही है। दरअसल, आपदा प्रबंधन तंत्र की सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोगों को कुदरती कहर से बचाने की जिम्मेदारी कई महकमों पर है। जब लोग बाढ़ में डूब रहे होते हैं, भूकंप के मलबे में दब कर छटपटाते हैं या फिर ताकतवर तूफान से जूझ रहे होते हैं, भूस्खलन, बादल फटने से लोग मर रहे होते हैं तब दिल्ली में फाइलें सवाल पूछ रही होती हैं कि आपदा प्रबंधन किसका दायित्व है?

कैबिनेट सचिवालय, जो हर मर्ज की दवा है; गृह मंत्रालय, जिसके पास दर्जनों दर्द हैं; प्रदेश का मुख्यमंत्री, जो केंद्र के भरोसे है या फिर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का, जिसे अभी तक सिर्फ ज्ञान देने और विज्ञापन करने का काम मिला है। एक प्राधिकरण सिर्फ पैंसठ करोड़ रुपए के सालाना बजट में कर भी क्या सकता है! 

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) पर आपदाओं के समय अधिक प्रभावी प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिए नीतियों, योजनाओं और आपदा प्रबंधन के लिए दिशा-निर्देश बनाने की जिम्मेदारी है। राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ) प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं के लिए विशेष प्रतिक्रिया के प्रयोजन के लिए गठित किया गया है। एनडीआरएफ का गठन डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत सन 2006 में वैधानिक प्रावधान के अंतर्गत प्राकृतिक आपदा और मनुष्य निर्मित आपदा से निपटने के लिए किया गया था। इसमें बीएसएफ, सीआरपीएफ, इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस और सीआइएसएफ यानी केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल- से दो-दो बटालियनें शामिल की गई थीं। 

जिस देश में बाढ़ हर पांच साल में पचहत्तर लाख हेक्टेयर जमीन और करीब सोलह सौ जानें लील जाती हो, पिछले दो सौ सत्तर वर्षों में जिस भारतीय उपमहाद्वीप ने दुनिया में आए तेईस सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से इक्कीस की मार झेली हो और ये तूफान भारत में छह लाख जानें लेकर शांत हुए हों, जिस मुल्क की उनसठ फीसद जमीन कभी भी थर्रा सकती हो और पिछले अठारह सालों में आए छह बड़े भूकंपों में जहां चौबीस हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हों, वहां आपदा प्रबंधन तंत्र का कोई माई-बाप न होना आपराधिक लापरवाही है। सरकार ने संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी और अब तक यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ है।

भारत का आपदा प्रबंधन तंत्र काफी उलझा हुआ है। आपदा प्रबंधन का एक सिरा कैबिनेट सचिव के हाथ में है, तो दूसरा गृह मंत्रालय, तीसरा राज्यों, चौथा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन और पांचवां सेना के। समझना मुश्किल नहीं है कि इस तंत्र में जिम्मेदारी टालने के अलावा और क्या हो सकता है। गृह मंत्रालय के एक अधिकारी का यह कहना कि ‘आपदा प्रबंधन तंत्र की संरचना ही अपने आप में आपदा है। प्रकृति के कहर से तो हम जूझ नहीं पा रहे, अगर मानवजनित आपदाएं मसलन, जैविक या आणविक हमला हो जाए तो फिर सब कुछ भगवान भरोसे ही होगा’ भी यही जाहिर करता है। 

सुनामी के बाद जो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया गया, उसका मकसद और कार्य क्या है अभी यही तय नहीं हो सका है। सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति का कारण बनने वाली आपदाओं से जूझने के लिए इसे साल में पैंसठ करोड़ रुपए मिलते हैं और काम है लोगों को आपदाओं से बचने के लिए तैयार करना। पर बुनियादी सवाल है कि आपदा के वक्त लोगों को बचाए कौन? यकीन मानिए कि जैसा तंत्र है उसमें लोग भगवान भरोसे ही बचते हैं। उत्तराखंड में हुई भारी तबाही को देखते हुए हमें आपदा प्रबंधन से सीख लेनी चाहिए थी। उत्तराखंड में भारी बारिश और अचानक आई बाढ़ की भयावहता के मद्देनजर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने की योजना बनाई थी। उत्तराखंड त्रासदी के बाद एनडीएमए के पूर्व उपाध्यक्ष शशिधर रेड््डी ने कहा था कि उत्तराखंड समेत देश के अन्य हिमालयी प्रदेश बारिश, बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओं के साथ भूकम्प के प्रभाव वाले क्षेत्र भी माने जाते हैं। ऐसे में हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में अगर प्राकृतिक आपदा आए, तो हमारे पास इससे निपटने की पूरी व्यवस्था पहले से हो। नई सरकार ने अब यह उपाध्यक्ष पद समाप्त कर दिया है। इसके स्थान पर एक तीन सदस्यीय समिति गठित की गई है, जिसमें एक वैज्ञानिक, एक आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ और एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी शामिल हैं।

चेन्नई में बारिश का कहर एक माह से जारी है। अब तक कोई दो सौ लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। नवंबर में चेन्नई में करीब एक सौ बीस सेंटीमीटर बारिश हुई है। यहां बारिश ने पिछले सौ साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। चेन्नई के एअरपोर्ट पर पानी भर गया। उन्नीस ट्रेनें भी रद्द कर दी गर्इं। स्कूल-कॉलेज, दफ्तर, कारखाने पखवाड़े भर से ज्यादा समय से बंद हैं। आंध्र प्रदेश के समीपवर्ती जिलों में भी भारी बारिश से हालात बिगड़े हैं। सरकार अब तक जो राहत कार्य कर रही है उसे कतई पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। फिर भारी बरसात और तबाही के बाद सरकार चेती है। ऐसा पहली बार हुआ है जब इस शहर में थल सेना, जल सेना, एनडीआरएफ और तटरक्षक बलों ने एक साथ मोर्चा संभाला है। एयरफोर्स को भी अलर्ट पर रखा गया है। सोलह सौ किलोमीटर से अधिक के समुद्री किनारे और भूकंप के मामले में सक्रिय अफगानिस्तान से प्लेट जुड़ा होने के कारण गुजरात पर हमेशा आपदा का खतरा बना रहता है। 

कुछ साल पहले गुजरात में इजरायल का एक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम खरीदा गया था। यह उपकरण जमीन के नीचे बीस मीटर की गहराई में दबे किसी इंसान के दिल की धड़कन तक सुन लेता है। मोटर वाली जेट्स्की बोट और गोताखोरों को लगातार बारह घंटे तक आक्सीजन उपलब्ध कराने वाला अंडर वाटर ब्रीदिंग एपेरेटस भी है। नीदरलैंड का हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट है, जो मजबूत छत को फोड़ कर फर्श या गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का रास्ता बनाता है। गुजरात ने अग्निकांड से निपटने के लिए बड़ी संख्या में अल्ट्रा हाई प्रेशर फाइटिंग सिस्टम भी खरीदे हैं। आमतौर पर आग बुझाने में किसी अन्य उपकरण से जितना पानी लगता है, यह सिस्टम उससे पंद्रह गुना कम पानी में काम कर देता है। इसे अमदाबाद के दाणीलीमड़ा मुख्य फायर स्टेशन ने डिजाइन किया है। यह आग पर पानी की एक चादर-सी बिछा कर गरमी सोख लेता है। वहां अमेरिका के सर्च कैमरे और स्वीडन के अंडर वाटर सर्च कैमरे भी राहत और बचाव टीमों को दिए गए हैं। ये उपकरण जमीन के दस फीट नीचे और 770 फीट गहरे पानी में भी तस्वीरें उतार कर वहां फंसे व्यक्ति का सटीक विवरण देते हैं। अमेरिका की लाइन थ्रोइंग गन से बाढ़ में या ऊंची इमारत में फंसे व्यक्ति तक गन के जरिए रस्सा फेंक कर उसे बचाया जा सकता है। अब ये उपकरण किस स्थिति में हैं, पता नहीं। इनका उपयोग देश के दूसरे भागों में भी किया जाना चाहिए। रखे-रखे इनके निष्क्रिय होने की संभावना अधिक होती है। पता नहीं क्यों, गुजरात से कुछ आवश्यक उपकरण और विशेषज्ञ चेन्नई नहीं भेजे जा रहे हैं। वर्तमान में आपदा प्रबंधन का सरकारी तंत्र देखें तो कैबिनेट सचिव, गृहमंत्रालय, राज्यों में मुख्यमंत्री, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन विभाग और सेना इस तंत्र का हिस्सा हैं। यह भी सच है कि हमारे देश में आपदा प्रबंधन की स्थिति ज्यादा लचर है। आपदा प्रबंधन की कड़ी लगभग हर आपदा में ढीली दिखी, लेकिन हमने उसे मजबूत करने का प्रयास नहीं किया। मीडिया की भाषा में यह प्रशासनिक लापरवाही या न्यायपालिका की भाषा में ‘आपराधिक निष्क्रियता’ है। 

प्रभावी आपदा प्रबंधन की पहली शर्त है जागरूकता और प्रभावित क्षेत्र में तत्काल राहत एजेंसी की पहुंच। अगर लोगों में आपदा को लेकर जागरूकता नहीं है तो तबाही भीषण होगी और राहत में दिक्कतें आएंगी। आपदा संभावित क्षेत्रों में तो लोगों को बचाव की बुनियादी जानकारी देकर भी आपदा से होने वाली क्षति को कम किया जा सकता है। आपदा प्रबंधन के बाकी तत्त्वों में ठीक नियोजन, समुचित संचार व्यवस्था, ईमानदार और प्रभावी नेतृत्व, समन्वय आदि काफी महत्त्वपूर्ण हैं। हमारे देश में व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यहां सब एक-दूसरे पर जिम्मेवारी डालते रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक औसतन पांच से दस हजार करोड़ की आर्थिक क्षति प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं से होती है, लेकिन इससे जूझने के लिए आपदा प्रबंधन पर हमारा बजट महज पैंसठ करोड़ रुपए है। इस धनराशि में अधिकतर प्रचार आदि पर ही खर्च हो जाता है। प्रशिक्षण की अभी तैयारी भी नहीं है। वर्ष 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम संसद ने पारित कर दिया था। उसके बाद ही राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया। प्राधिकरण के पूर्व सदस्य केएम सिंह के मुताबिक, ‘इतने कम समय में हमसे ज्यादा अपेक्षा क्यों रखते हैं? वक्त दीजिए हम एक प्रभावी आपदा प्रबंधन उपलब्ध कराएंगे।’ राज्य सरकारों को भी अपना आपदा प्रबंधन तंत्र मजबूत और प्रभावी बनाना चाहिए। बाढ़ प्रभावित इलाकों में स्थानीय मदद से प्रत्येक गांव या दो-तीन गांवों पर एक आपदा राहत केंद्र की स्थापना कर वहां दो-तीन महीने का अनाज, पर्याप्त साधन, जरूरी दवाएं, पशुओं का चारा, नाव, मोटर बोट, तारपोलीन और अन्य जरूरी चीजों का बाढ़ से पूर्व ही इंतजाम सुनिश्चित किया जाना चाहिए।(शैलेंद्र चौहान)

- See more at: http://www.jansatta.com/politics/disaster-management-in-india/53450/#sthash.FYjx29Oc.dpuf


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