Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | आबोहवा को बचाने की कवायद- कोरल डेवनपोर्ट

आबोहवा को बचाने की कवायद- कोरल डेवनपोर्ट

Share this article Share this article
published Published on Dec 2, 2014   modified Modified on Dec 2, 2014
दो दशक से अधिक समय से वैश्विक संधि की अनवरत विफल कोशिशों के बाद एक बार फिर उम्मीदों के घोड़ों पर सवार संयुक्त राष्ट्र के वार्ताकार सोमवार से दक्षिण अमेरिका में जमा हुए हैं। उनकी कोशिश यही है कि इस बार बात बन जाए। हालांकि ग्रीन हाउस गैस के मौजूदा उत्सर्जन में कटौती करने संबंधी समझौते के बावजूद वैज्ञानिकों का आकलन है कि दुनिया की आबोहवा तेजी से खराब होती जाएगी। फिर भी वे मानते हैं कि ऐसे किसी समझौते का न होना, पृथ्वी से मानव अस्तित्व खत्म कर सकता है। लिहाजा अगले दो सप्ताह तक दुनिया भर के हजारों राजनयिक पेरू की राजधानी लीमा में संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में शिरकत करेंगे, ताकि धरती का तापमान बढ़ाने वाली गैसों के वैश्विक उत्सर्जन पर लगाम लगाने संबंधी समझौते को मूर्त रूप दिया जा सके।

यह बैठक अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के उस समझौते के कुछ हफ्तों बाद हो रही है, जिसमें दुनिया में ग्रीन हाउस गैस के इन दो शीर्ष उत्सर्जक देशों ने कार्बन कटौती करने की घोषणा की थी। संयुक्त राष्ट्र वार्ताकारों को उम्मीद है कि यह समझौता जलवायु वार्ता में लंबे समय से जारी गतिरोध को तोड़ने में मदद कर सकता है। हालांकि लीमा वार्ता का स्वागत करने के बाद भी वैज्ञानिकों और जलवायु नीति के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यह कमोबेश मुश्किल ही है कि वैश्विक तापमान को अब 3.6 डिग्री फॉरेनहाइट बढ़ने से रोका जा सके। वैज्ञानिक शोधों के अनुसार, यह खतरनाक स्थिति होगी, जब दुनिया आसन्न सूखा, खाद्यान्न और स्वच्छ जल की कमी, बर्फ की चादर के पिघलने, ग्लेशियरों के सिकुड़ने, समुद्र जल स्तर बढ़ने और व्यापक बाढ़ जैसी चुनौतियों का सामना करेगी। इससे न सिर्फ मानव आबादी प्रभावित होगी, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी खासा नुकसान पहुंचेगा। यही तथ्य लीमा वार्ता की जरूरत बताते हैं।

बेशक हम 3.6 डिग्री की दहलीज तक पहुंच रहे हैं, पर वैज्ञानिकों का कहना है कि इसे रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र के वार्ताकारों को महज सदस्य देशों के प्रयासों तक ही खुद को नहीं समेटना चाहिए। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल के सदस्य और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकल ओपेनहेमर की मानें, तो वह अमेरिका-चीन समझौते को लेकर उत्साहित तो हैं, पर उन्हें शक है कि वैश्विक तापमान में सीमा से अधिक होने वाली वृद्धि को रोका जा सकता है। उनका कहना है, पारिस्थितिकी तंत्र में बड़े पैमाने पर बदलाव और परिवर्तन पहले से ही हो रहे हैं। कोरल रीफ सिस्टम और बर्फ की चादर में हो रही सिकुड़न तथा फसलों की घटती पैदावार इसके उदाहरण हैं। लिहाजा समझौता नहीं होने पर स्थिति खरतनाक हो सकती है।

वर्ष 1992 के बाद से संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन पर हर साल बैठक आयोजित करता है, जिसका उद्देश्य ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती को लेकर सहमति बनाना है। ये ग्रीन हाउस गैस अधिकतर बिजली के लिए कोयला जलाने और यातायात के लिए पेट्रोल के उपयोग से पैदा होती हैं। लेकिन पूर्व के समझौतों में, जिसमें 1997 में हुआ क्योटो प्रोटोकॉल भी शामिल है, भारत और चीन, जैसे विकासशील देशों को उत्सर्जन में कटौती के लिए बाध्य नहीं करते। और अब तक अमेरिका भी घरेलू जलवायु परिवर्तन नीतियों के साथ इन वैश्विक सम्मेलनों को लेकर आगे नहीं बढ़ा है। अगर अमेरिका पहल करता है, तो नतीजे सकारात्मक आ सकते हैं, जैसा चीन को साथ लेने से आया है।

दरअसल, पिछली गर्मी में, 13 संघीय एजेंसियों की एक साझा रिपोर्ट में बताया गया था कि जलवायु परिवर्तन अमेरिका में खाद्यान्न की दरों, बीमा दरों और वित्तीय अस्थिरता को बढ़ाकर देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा सकता है। इसके बाद ओबामा ने पर्यावरण संरक्षण संबंधी एक नए नियम की घोषणा की, जिसमें कोयला से बिजली उत्पादन करने वाले विद्युत संयंत्रों से उत्सर्जित कार्बन में बड़ी कटौती की बात थी। चीन भी अपने यहां ऐसा करे, इसी उम्मीद के साथ विदेश विभाग के वार्ताकारों ने बीजिंग से बात शुरू की, जिसका परिणाम नवंबर में बीजिंग में दोनों देशों के कार्बन कटौती संबंधी घोषणा के रूप में सामने आया है। इस समझौते के अनुसार, वर्ष 2025 तक अमेरिका 28 फीसदी तक कटौती करेगा, जबकि चीन 2030 तक या उससे पहले अपने यहां होने वाले उत्सर्जन में कटौती करेगा।

लीमा में वार्ताकार पहली बार एक ऐसे समझौते पर आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे, जिसमें सदस्य देशों को घरेलू नीतियां बनाने की बात कही जाएगी; बिल्कुल अमेरिका-चीन समझौते की तरह। वार्ताकारों को भरोसा है कि आगामी मार्च तक अमेरिका और चीन की तरह अन्य सरकारें भी घोषणा कर सकती हैं। हालांकि जलवायु विशेषज्ञों का मानना है कि यह इतनी तेजी से नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्यक्रम द्वारा नवंबर में जारी रिपोर्ट के अनुसार, 3.6 डिग्री वृद्धि से बचने के लिए, वैश्विक उत्सर्जन को, जो अगले दस वर्षों में शीर्ष पर होगा, सदी के मध्य तक मौजूदा स्तर से आधा करना होगा। लेकिन जो समझौता पत्र लीमा में बनाया जाएगा, वह 2020 से पहले लागू हो ही नहीं सकता।

इसके साथ ही, समझौते का यह प्रारूप कि हर देश घरेलू नीतियों में वास्तविक कटौती के लिए प्रतिबद्ध होगा, उतना कठोर नहीं होगा, जितने की जरूरत वैज्ञानिकों ने बताई है। स्थिति यह है कि चीन कटौती को लेकर अपने सर्वोत्तम प्रयास 2030 तक करेगा, जबकि भारत को, जो दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ग्रीन हाउस उत्सर्जक देश है, ऐसा करने में 2040 तक का वक्त चाहिए। इसी तरह ओबामा ने 2025 तक कार्बन कटौती का भरोसा तो दिया है, पर उनके बाद की सरकार ऐसा ही करेगी, यह स्पष्ट नहीं है। सच यह भी है कि तटीय देशों में समुद्री जल के बढ़ने का अर्थ है, तटीय मिट्टी का कमजोर होना, फसलों का खत्म होना और स्वच्छ जल की आपूर्ति प्रभावित होना। लिहाजा लीमा में जलवायु प्रभावों के अनुकूल मदद की उनकी मांग की उम्मीद बेमानी भी नहीं है।


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/for-save-our-climate-hindi/


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close