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न्यूज क्लिपिंग्स् | आम आदमी का आंदोलन- अजय सिंह

आम आदमी का आंदोलन- अजय सिंह

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published Published on Apr 13, 2011   modified Modified on Apr 13, 2011
अन्ना हजारे के आमरण अनशन पर राजनीतिक दलों में एक अजीब सी सहमति है. समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह और राष्ट्रीय जनता दल के रघुवंश प्रसाद सिंह को विरोध के इस स्वरूप में फ़ासीवाद की झलक दिखाई दे रही है.

संघी मानसिकता के बुद्धिजीवियों को अन्ना हजारे का विरोध प्रजातंत्र विरोधी लग रहा है. कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी को यह अराजक और खतरनाक दिखायी दे रहा है. वामदलों को भी विरोध का यह स्वरूप पच नहीं रहा है. शायद विरोध की यह शैली माक्र्सवादी अवधारणा के अनुरूप नहीं है. आखिर अन्ना हजारे का विरोध क्या है, जो राजनेताओं को नहीं भा रहा है? दिल्ली के जंतर- मंतर पर जिस तरह का उत्साह अन्ना समर्थकों में दिख रहा है वो अभूतपूर्व है. कई बार यह समर्थक अराजक प्रवृत्ति भी दिखाते हैं. पर यह एक अपवाद की तरह है.

मूल मुद्दा है भ्रष्टाचार. अन्ना हजारे की मांग है, भ्रष्टाचार रोकने के लिए जन लोकपाल बिल लाया जाये. बिल का मसौदा तैयार करने के लिए एक कमिटी बने, जिसमें सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधि हों. बिल का जो स्वरूप अन्ना हजारे की ओर से दिया गया है उसे लेकर विवाद है. उसमें कुछ बिंदु ऐसे हैं, जो संविधान की परिधि से बाहर हैं. मसलन लोकपाल की नियुक्ित और असीमित अधिकार क्षेत्र.

जाहिर है जंतर-मंतर पर जमा हुई भीड़ को मुद्दे की इस जटिलता से लेना-देना नहीं है. इसका विेषण तो मनु सिंघवी, अरुण जेटली जैसे कानून के जानकार ही कर सकते हैं. आम आदमी के दिमाग में सिर्फ़ एक बात है कि अन्ना हजारे का आमरण अनशन एक आम भारतीय को न्याय दिलाने और भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए है. जाहिर है यह उद्देश्य हासिल होगा कि नहीं, इसकी फ़िक्र किसी को नहीं है.

जंतर-मंतर के माहौल को इस वक्त दुष्यंत कुमार की यह कविता ज्यादा अच्छी तरह समझा सकती है-‘कौन कहता है कि आसमां में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से  उछालो यारो’. पिछले चार दिनों से जंतर-मंतर पर आने वाले हर व्यक्ित में पत्थर को तबीयत से उछालने का जज्बा दिख रहा है. आसमां में सूराख करने की गलतफ़हमी किसी को नहीं है. लगभग एक हजार मीटर के इस आंदोलन स्थल के पास आये व्यक्ित को राज्य और इसके भ्रष्टाचार तंत्र का भय नहीं है.

ना ही इस बात का भय कि बंदूकों के साये में चलने वाले राजनेता उनके साथ क्या बर्ताव करेंगे. यही वजह है कि उमा भारती और ओम प्रकाश चौटाला जैसे राजनेताओं को यहां से वापस जाना पड़ा. नेताओं का यह हश्र देखकर और नेता जंतर-मंतर आने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाये. इसमें शक नहीं है कि अन्ना हजारे का आंदोलन भारतीय राजनेताओं के लिए बड़ी चुनौती है.

यह आंदोलन सही मायने में राजनीतिक है, पर इसकी अगुवाई करने वाला गैर राजनीतिक व्यक्तित्व है. यही इस आंदोलन की ताकत भी है और कमजोरी भी. सच तो यह है कि उत्तर भारत में अन्ना हजारे एक ऐसे सामाजिक व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं, जिनका कार्यक्षेत्र महाराष्ट्र है. परंपरागत राजनेता और आध्यात्मिक गुरुओं जैसा उनका प्रभाव नहीं है. 73 वर्षीय समाजसेवी का भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आमरण अनशन करना उत्तर भारत की जनता के लिए एक नया प्रयोग है.

राजनेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की कहानियों से आहत जनता के लिए यह एक नयी कहानी का नया प्लॉट है. दिलचस्प यह है कि इस प्लॉट की नींव में है राजनेताओं का जनता से 42 साल पहले किया‘भ्रष्टाचार मुक्त’समाज का वादा. लगभग चार दशकों से भ्रष्टाचार किसी न किसी रूप में देश के सार्वजनिक जीवन में मुद्दा रहा है. सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के समय में और अस्सी के दशक में राजीव गांधी के कार्यकाल में. पर इस मुद्दे का इस्तेमाल सिर्फ़ दलगत राजनीतिक हितों को साधने के लिए हुआ. लोकपाल विधेयक इसीलिए हर दल की सरकारों के लिए एक ऐसा विषय रहा, जिसे बैक बर्नर पर रखा गया.

जाहिर है भ्रष्टाचार के विरोध की इस नयी कहानी के किरदार में राजनेता नदारत हैं. उनकी साख और विश्वसनीयता पर गहरा प्रश्न चिह्न जनमानस में है. चूंकि मुख्य किरदार में राजनेता नहीं हैं, इसलिए जंतर-मंतर का यह आंदोलन कभी फ़ासीवाद और कभी अलोकतांत्रिक की संज्ञा से परिभाषित हो जाता है.दिलचस्प यह है कि आजादी के पहले महात्मा गांधी के सत्याग्रह को भी उस समय के जमे हुए राजनेताओं ने इसी नजरिये देखा था.

गोपाल कृष्ण गोखले से लेकर मोतीलाल नेहरू तक को गांधी का आंदोलन अराजक और असंवैधानिक लगता था. अंग्रेजों की सरकार का बनाया कानून तोड़ना उनकी नजर में अक्षम्य अपराध था. पर गांधी की भाषा आम हिंदुस्तानी की समझ में आती थी. गांधी आम आदमी की नजर में सरकार की जन विरोधी नीतियों को उजागर करते थे. एक तरह से यह बताते थे - इम्पेरर इज नेकेड (सम्राट नंगा है).

यह कहना अभी बहुत जल्दी होगा कि अन्ना हजारे का आंदोलन यह स्वरूप लेगा कि नहीं. पर इसमें शक नहीं कि  अन्ना हजारे की भाषा राजनेताओं को भले समझ नहीं आये, आम आदमी को समझ आ रही है. इस आंदोलन का एक दुखद पहलू होगा, अगर इसका उद्देश्य ’इम्पेरर इज नेकेड’को उजागर करने के बजाय सम्राट को कपड़ा पहनना हो जाये. इस भटकाव से आम जनता फ़िर छली जायेगी.
लेखक गवर्नेस नाउ पत्रिका के मैनेजिंग ऐडिटर हैं.

http://www.prabhatkhabar.com/news/81080.aspx


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