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न्यूज क्लिपिंग्स् | आमजन सिर्फ भीड़ न बने-- विजय कुमार चौधरी

आमजन सिर्फ भीड़ न बने-- विजय कुमार चौधरी

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published Published on Aug 8, 2018   modified Modified on Aug 8, 2018
पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘मॉब लिंचिंग' (भीड़-हिंसा) का गंभीरता से संज्ञान लेते हुए इसे रोकने हेतु सख्त कार्रवाई के निर्देश दिये गये हैं. न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि केंद्र सरकार को इसके लिए अलग से कानून बनाना चाहिए और राज्य सरकारों को भी इसे नियंत्रित करने के उपाय करने चाहिए, क्योंकि विधि-व्यवस्था की मौलिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है. भीड़-हिंसा धीरे-धीरे खतरनाक रूप ले चुकी है और समय रहते इसे नहीं रोका गया, तो यह और भी वीभत्स रूप ले सकती है.

भीड़ मानसिकता के कई रूप और कारण होते हैं. अनियंत्रित भीड़ कानून अपने हाथ में लेकर हत्यारी तक बन जाती है. अपराधी द्वारा किसी घटना को अंजाम देते समय या उसके बाद पकड़े जाने पर आक्रोशित भीड़ के द्वारा उसके साथ बेरहम सलूक किया जाता है, जिसमें कभी-कभी उसकी मृत्यु भी हो जाती है.

अधिक चिंताजनक स्थिति तब होती है, जब किसी अफवाह या सोशल मीडिया के द्वारा भ्रामक तथ्यों के प्रचार-प्रसार से उत्तेजित जन भावना का शिकार कोई निर्दोष व्यक्ति भी हो जाता है. किसी भी स्थिति में अनियंत्रित भीड़ द्वारा कानूनी प्रक्रिया को धता बताते हुए किसी की बेरहमी से पिटाई या हत्या को आपराधिक कृत्य ही कहा जायेगा. उम्मीद है कि इसे रोकने हेतु उच्चतम न्यायालय के निर्देश के आलोक में केंद्र एवं राज्य सरकारें समुचित कार्रवाई करेंगी.

इन दिनों लोक-व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर) के खिलाफ किये जानेवाले अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है. आये दिन किसी मसले को लेकर सड़क जाम करके यातायात व्यवस्था को ध्वस्त कर देना आम बात हो गयी है.

इसका कारण हत्या, लूट, चोरी, डकैती आदि जैसी आपराधिक घटना हो सकती है. कभी-कभी विकास या प्रशासनिक विफलता से जुड़े मामले जैसे सड़क, बिजली, पानी की समस्या पर भी जाम और बंद किया जाता है. अपराध शास्त्र की दृष्टि से सड़क जाम करना या आवागमन को बाधित करना लोक व्यवस्था के विरुद्ध अपराध की श्रेणी में आता है.

लोगों में जागरूकता फैलाने की जरूरत है कि आवागमन अवरुद्ध कर देने से किसी अपराधी या अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ता है, बल्कि जाम के शिकार हजारों निर्दोष नागरिक ही बनते हैं. जाम में फंसे लोगों में अत्यावश्यक या आकस्मिक कार्य के लिए जा रहे यात्रियों की पीड़ा का अनुमान लगाना कठिन है.

अनेक अवसरों पर जाम में एंबुलेंस में फंसे मरीजों की मौत भी हो जाती है. कई लोगों की पूर्व निर्धारित रेल या हवाई यात्रा विलंब से पहुंचने के कारण रद्द हो जाती है और इस कारण किसका कितना बड़ा नुकसान होता होगा, यह सोचने की बात है.

दुर्घटना तो दुर्घटना ही होती है. किसकी गलती से कोई दुर्घटना या हादसा हुआ, यह कभी मुद्दा नहीं रहता है. यदि दुर्घटना में कोई व्यक्ति घायल या हताहत होता है, फिर स्थानीय लोगों के द्वारा बिना सोचे-समझे उग्रता के कारण वाहन चालक या वाहन सवार की जान का खतरा पैदा हो जाता है.

कभी-कभी तो वाहन सवार इसी डर से रुककर घायल को अस्पताल तक पहुंचाने की हिम्मत नहीं कर पाते. कई मामलों में किसी बच्चे या व्यक्ति के अचानक सड़क के बीच आ जाने के कारण दुर्घटना होती है और स्थानीय लोग बिना सोचे समझे चालक या सवार पर हिंसक हमला कर देते हैं. दुर्घटना के बाद भीड़ के द्वारा सड़क जाम कर देना, तो सामान्य बात है. इस तरह के जाम में फंसनेवाले आम लोगों की परेशानी या नुकसान का जिम्मेदार कौन होता है? सड़क-मार्ग अवरुद्ध होने पर फंसीं गाड़ियों या बसों में महिलाएं परेशान होती हैं और उनके बच्चे बिलखते लगते हैं.

दूसरी तरफ, हत्या या लूट जैसे संगीन अपराधों के मामले में आक्रोशित भीड़ द्वारा जाने-अनजाने अनेक ऐसी हरकतें होती हैं, जिनसे अपराधियों को ही मदद मिल जाती है.

अपराध अनुसंधान की दृष्टि से, घटना के तुरंत बाद के कुछ घंटे अतिमहत्वपूर्ण होते हैं. अगर पुलिस घटनास्थल पर पहुंचकर गहराई से घटनास्थल का अध्ययन कर अपराधियों द्वारा छोड़े गये सुराग की पहचान कर तत्काल उनको खोजने की कार्रवाई प्रारंभ कर देती है, तो इसके परिणाम अच्छे हो सकते हैं. वरना घटना के तुरंत बाद सैकड़ों लोगों द्वारा घटनास्थल को अव्यवस्थित कर देने या फिर मृत को घटनास्थल से उठाकर बीच सड़क पर रखने में अपराधियों के सुराग मिलने की संभावना ही क्षीण हो जाती है.

पुलिस के लिए भी दुविधा होती है कि अपराधियों के पीछे जाये या फिर जाम से उत्पन्न विधि-व्यवस्था की स्थिति से निबटे. अक्सर पुलिस या वरीय प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा घटनास्थल पर आक्रोशित लोगों को समझाकर जाम हटवाने में कई घंटे लग जाते हैं. ऐसे में सड़क पर आम लोगों की परेशानी के अलावा अपराधियों को भी बच निकलने का मौका मिल जाता है.

यह सही है कि पुलिस पदाधिकारियों की गैरजिम्मेदार कार्यशैली एवं क्रियाकलाप से आम लोगों का पुलिस में विश्वास घटता है. दूसरी तरफ, समाज में पुलिस की विश्वसनीयता घटने से पुलिस का काम भी कठिनतर होता है. पुलिस का काम अपराध के अनुसंधान के साथ-साथ विधि-व्यवस्था का संधारण भी है और इन दोनों कार्यों में समाज का सक्रिय सहयोग भी अपेक्षित होता है.

समाज अगर अपराधियों को पकड़ने में पुलिस का सहयोग नहीं करेगा और इसके विपरीत विधि-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न करेगा, तो स्थिति बदतर ही होगी. किसी आपराधिक घटना या दुर्घटना के बाद कम से कम 24 से 36 घंटे पुलिस को अपनी सक्रियता या विश्वसनीयता दिखाने का अवसर दिया जाना चाहिए. इस बीच अगर पुलिस ने पारदर्शी तरीके से अनुसंधान अथवा दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की पहल नहीं की, तभी विरोध प्रदर्शन का औचित्य हो सकता है. आपराधिक घटना के तुरंत बाद आक्रोशित लोगों द्वारा जाम, बंद या हिंसा करने से इसका लाभ अपराधियों को ही मिलता है.

इस आलोक में उच्चतम न्यायालय ने मॉब लिंचिंग के मामले में भीड़ की मानसिकता एवं प्रवृत्ति के संबंध में चिंता जाहिर कर पूरे देश के लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है. आवश्यकता इस बात की है कि आम जन को भी यह समझना पड़ेगा कि किसी आपराधिक कृत्य को आपराधिक प्रवृत्ति के विरोध प्रदर्शन से दबाया या मिटाया नहीं जा सकता है, बल्कि इससे और अधिक विस्फोटक स्थिति बनती है.

https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1191576.html


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