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न्यूज क्लिपिंग्स् | आरक्षण पर लगातार बढ़ती उलझनें - डॉ एके वर्मा

आरक्षण पर लगातार बढ़ती उलझनें - डॉ एके वर्मा

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published Published on Sep 28, 2015   modified Modified on Sep 28, 2015
गुजरात के पाटीदार या पटेल समुदाय के आरक्षण आंदोलन ने देश को एक बार फिर पच्चीस वर्ष पीछे धकेल दिया। 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं और देश में आरक्षण 22.5 फीसदी से बढ़कर 49.5 फीसद हो गया, क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति के अलावा अन्य पिछड़े वर्ग के लिए भी 27 फीसदी आरक्षण का कानून बन गया। देश-समाज जल उठा और जातीय आधार पर एक गहरी विभाजन रेखा खिंच गई। आज समाज के अन्य वर्ग और जातियां भी आरक्षित वर्ग में अपने को शरीक कराना चाहती हैं, क्योंकि अब वे अपने को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश से वंचित पाती हैं।

आरक्षण एक संवेदनशील मुद्दा है और राजनीतिक दलों को इसके बारे में विचार व्यक्त करने में थोड़ी सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि सरकार किसी भी दल की हो, यदि इस मुद्दे को शुरू से ही ठीक ढंग से हैंडल नहीं किया गया तो यह न केवल शासक दल के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए एक गंभीर समस्या बन जाएगा। इस संबंध में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान पर भाजपा की सफाई स्वागतयोग्य है, भले ही बयान किसी दूसरे संदर्भ में क्यों न आया हो।

यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने कहा था कि योग्य नेता लोगों को असीमित और अयोग्य नेता सीमित की ओर ले जाते हैं। सीमित की ओर ले जाने से जाहिर है समाज में संघर्ष होगा, क्योंकि लोग ज्यादा हैं और वस्तुएं सीमित। आरक्षण भी हमें सीमित पदों, सीटों और रिक्तियों की ओर ले जाता है। आज जिस विधि से शैक्षणिक संस्थाओं व सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू किया जाता है उससे कुल पदों और सीटों पर आरक्षित वर्ग के 70-80 फीसद प्रतिभागी चयनित हो रहे हैं और सामान्य वर्ग के वे युवा उनसे वंचित होते जा रहे हैं जिन्होंने कभी दलितों, पिछड़ों का शोषण न देखा, न किया। उनको यह बात समझ में नहीं आ पाती कि उनसे बहुत कम अंक पाने वाले और कम योग्य उनके अपने ही सहपाठी क्यों आगे निकल जाते हैं और वे क्यों पीछे धकेल दिए जाते हैं? समाज को इसका भी संज्ञान लेना होगा।

कुछ प्रश्न बड़े मूलभूत हैं। एक, क्या आरक्षण वह जादू की छड़ी है जिससे दलितों और पिछड़ों के सभी युवाओं को शिक्षा व रोजगार मिल सकेगा? दो, आरक्षण केवल 10 वर्षों के लिए लागू किया था, लेकिन आज 65 वर्ष बाद भी उसे हर बार दस वर्ष के लिए बढ़ा दिया जाता है और तर्क ऐसा दिया जाता है कि लगता नहीं कि अगले 65 वर्षों में व्यवस्था में कोई तब्दीली आएगी। तो क्या आरक्षण वस्तुत: संविधान का एक स्थायी प्रावधान हो गया है? तीन, जिन दलितों-पिछड़ों को आरक्षण का लाभ मिल रहा है, क्या उस वर्ग के सबसे निचले तबके को वह लाभ मिल पाया है या उसे उस वर्ग की कुछ खास जातियों ने हड़प लिया है? पिछले 65 वर्षों में अति-दलित और अति-पिछड़ों की दशा में क्या सुधार आया? हर तरफ आरक्षण, लेकिन क्या आरक्षित, क्या अनारक्षित, सब जगह भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार तो आम आदमी कहां जाए? क्या करे? यदि ऐसा न भी हो तो भी सभी को तो नौकरी या शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नहीं मिल सकता, फिर क्या किया जाए?

गुजरात के पटेल संपन्न् हैं। एक सरदार पटेल थे, जिनको हम सभी लौहपुरुष के रूप में जानते हैं और जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद 555 से ज्यादा देसी रियासतों को भारत में मिलाकर एकता का प्रतिमान स्थापित किया और एक आज के हार्दिक पटेल हैं, जिन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक संपन्न्ता के बावजूद न केवल गुजराती समाज को तोड़ने का काम किया है, बल्कि सरदार पटेल के सपनों को भी खंडित करने का प्रयास किया है। और भी आपत्तिजनक यह है कि पटेलों ने अपने घर की समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण करने का भी उपक्रम किया है। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा में सिलिकॉन वैली में भी इस मुद्दे पर अपना विरोध प्रदर्शित किया। उनका विरोध उस प्रधानमंत्री से है, जो सवा सौ करोड़ भारतवासियों को एक करने और उनके विकास का संकल्प लेकर चल रहा है।

मंडल की राजनीति को ठंडा होने में पूरे 25 वर्ष लग गए और राजनीतिक स्वार्थों के चलते बिहार में अब मंडल-2 की बातचीत चल रही है। बिहार चुनाव वैसे ही संवेदनशील माेड पर है, उसमें पटेलों का आंदोलन आग में घी का काम कर सकता है। हमें ऐसा क्यों लगता है कि आरक्षण हर हाथ को काम और हर व्यक्ति को रोटी देगा? समस्या का समाधान है कि लोगों में सरकारी नौकरियों के प्रति मोह खत्म किया जाए और उनको अपनी उद्यमिता के बलबूते अपने पैरों पर खड़ा होने की प्रेरणा और प्रोत्साहन दिया जाए। ये संतोष का विषय है कि मोदी सरकार इस ओर भी ध्यान दे रही है। स्किल डेवलपमेंट और मेक इन इंडिया की सफलता इस परिवर्तन के लिए बहुत जरूरी है।

फिर भी समस्या के अनिश्चित चरित्र के कारण हमें राजनीतिक, आर्थिक और संवैधानिक फलक पर कुछ प्रभावी कदम उठाने चाहिए। राष्ट्रीय पार्टियों को वास्तव में समाज के सभी वर्गों का समावेश कर इंद्रधनुषीय गठबंधन का स्वरूप ग्रहण करना चाहिए, जिससे किसी भी वर्ग की समस्या पर पार्टी मंचों पर खुली चर्चा हो सके। सरकार को आर्थिक समावेशन पर बहुत ध्यान देना चाहिए, क्योंकि जब सभी वर्ग आर्थिक रूप से सुरक्षित होते हैं तो आंदोलनों की लक्ष्मण-रेखा स्वयं ही खिंच जाती है। इसके साथ ही सरकार को इस पर भी विचार-विमर्श करना चाहिए कि संविधान में आर्थिक पिछड़ेपन को भी आरक्षण की परिधि में कैसे लाया जाए जिससे उच्च जातियों और मुसलमानों के गरीब तबकों को भी आरक्षण का लाभ मिल सके।

-लेखक राजनीतिक विश्‍लेषक हैं।

 


- See more at: http://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-complexities-increases-on-reservation-issue-487945#sthash.TzLLqHg8.dpuf


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