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न्यूज क्लिपिंग्स् | आरटीआइ में आम आदमी की ताकत

आरटीआइ में आम आदमी की ताकत

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published Published on Oct 28, 2013   modified Modified on Oct 28, 2013

मित्रो,

सूचना का अधिकार पर हम लगातार बात करते रहे हैं. इस अधिकार के लागू हुए आठ साल पूरे हो गये. हमारे कई पाठकों और आरटीआइ एक्टिविस्टों ने इसे जनतंत्र के खास अवसर के रूप में याद किया. इन आठ सालों में आम से लेकर खास और गैर सरकारी से लेकर सरकारी लोगों ने इस कानून का अपने-अपने हित और हिसाब से खूब किया. इसका अनुभव भी विस्तृत रहा. इस अनुभव को देश भर के एक्टिविस्टों और आरटीआइ में रूचि रखने वालों ने आपस में बांटा भी है. अच्छे अनुभव भी रहे और कड़वे भी. सबसे  कड़वा अनुभव सरकार का रहा. जिस सरकार ने  विश्व विरादरी में यह बातने के लिए इस कानून को लाया कि वह अपनी जनता को अधिकार देने के मामले में पीछे नही है, उसी ने बाद में पांव पीछे करने की कोशिश की. इस कानून में संशोधन का कई बार प्रयास हुआ. संधोशन हुआ भी. यह कोशिश अब भी जारी है. दूसरी ओर सोशल और आरटीआइ एक्टिविस्ट इस कानून की कमियों को दूर करने की मांग कर रहे हैं. वे इस बात के  लिए तैयार नहीं है कि सरकार संशोधन के नाम पर इसे और कमजोर करे.

इसे लेकर जन संगठनों और आरटीआइ एक्टिविस्टों ने अपनी ताकत दिखायी और सरकार को ऐसा करने से रोका भी, लेकिन पिछले दिनों केंद्रीय सूचना आयोग के  आदेश को लागू करने से इनकार कर और राजनीकि दलों को आरटीआइ एक्ट के दायरे से बाहर कर केंद्र सरकार ने खतरे की घंटी बजा दी है. दूसरी ओर आरटीआइ के दायरे से अब भी वैसे संगठन बाहर हैं, जो हमारे देश की राजनीतिक दिशा और आर्थिक नीतियों को प्रभावित करते हैं. जिस तरह से पीपीपी पैटर्न को सरकार हर क्षेत्र में लागू कर रही है, उससे यह जरूरी हो गया है कि प्राइवेट कंपनियों को भी आरटीआइ के दायरे में सीधे तौर पर लाया जाये. तीसरी बात कि आरटीआइ अब भी कई मामने में कमजोर है. जनता को मिला यह बड़ा अधिकार है, लेकिन इसे ताकत देने के लिए कुछ और अधिकार उसे मिलने चाहिए, जो आरटीआइ की भावनाओं को पूरा करने के लिए जरूरी है. इस तरह के कानून राजस्थान  जैसे सजब राज्य में लागू हो रहे हैं, जबकि केंद्र सरकार अभी प्रक्रिया के दायरे में ही समेटे हुए है. वहीं अन्य राज्य सरकारें ऐसे मामले में चुप हैं. ऐसे में यह जरूरी है कि जब आरटीआइ ने आठ साल पूरे किये हैं, तब हम इन सब विषयों पर बात करें, जो इसकी विशेषता को बताती हैं, इसे कमजोर करती हैं और इसे ताकत दे सकती हैं. हम इस अंक में उन्हीं विषयों की चर्चा कर रहे हैं.

सूचना का अधिकार आठ साल का हो गया. 12 अक्तूबर 2005 को यह पूरे देश (जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर) जनता के व्यवहार के लिए लागू हुआ था. इससे पहले नौ राज्यों ने अपनी जनता को यह अधिकार दिया था कि वह उनसे तथा उनके अधिकार क्षेत्र के संस्थानों, संगठनों और कार्यालयों से लिखित रूप से सूचना मांगे. इनमें  गोवा, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र, असम, मध्य प्रदेश तथा जम्मू एवं कश्मीर शामिल थे. यह सब सात सालों (1997 से 2004) में हुआ. जब 2005 में सूचना का अधिकार का केंद्रीय कानून बना, तो इसे उन राज्यों ने भी लागू किया, जो अब तक मांगने पर अपनी जनता के साथ सूचना साझा नहीं करते थे और ऑफिसिअल सेक्रेट एक्ट (1923 का कानून) को हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे.

केंद्रीय  कानून बनने के बाद पूरे देश में सूचना का अधिकार पर एक समान कानून लागू हुआ. जिन राज्यों ने पहले से इस पर कानून बना रखा था, उनके कानून की जगह इस केंद्रीय कानून ने ले लिया. सबने अपने-अपने हिसाब से इस केंद्रीय कानून को लागू  करने के लिए नियम बनाये. इस केंद्रीय कानून (सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005) की धारा-27 ने राज्यों को नियम बनाने का अधिकार दिया है. राज्यों ने उसका प्रयोग किया. जम्मू-कश्मीर ने भी इस केंद्रीय कानून के आधार पर अपने यहां सूचना का अधिकार कानून बनाया और शासन-प्रशासन में पारदर्शिता लाने की अपनी पुरानी मुहिम को नया आयाम दिया.

नियम बनाने में बिहार आगे, झारखंड पीछे
जिन राज्यों ने सूचना का अधिकार यानी आरटीआइ पर विस्तार से कानून बनाया और अलग-अलग स्तर पर इस कानून के कार्यान्वयन के लिए गाइड लाइन तैयार की, उनमें बिहार आगे है. इस ने इ-सर्विस डिलिवरी सिस्टम से आरटीआइ को जोड़ा और ऑन-लाइन आरटीआइ आवेदन फाइल करने की व्यवस्था की. इसके लिए ‘जानकारी’ जैसी व्यवस्था की गयी. जिन राज्यों ने आरटीआइ का नियम बनाने में अपने अधिकार का सीमित उपयोग किया, उनमें झारखंड है. इस ने केवल दो नियम बनाये. पहला सूचना का अधिकार फीस व लागत नियम, 2005 एवं दूसरा सूचना का अधिकार अपील की विधि नियम, 2005. वह भी संक्षिप्त.


सूचनाधिकार में कटौती की कोशिशें बार-बार
आरटीआइ में संशोधन के  जरिये जनता के अधिकारों में कटौती की कोशिशें कई बार हुई हैं. इस कानून के 2005 में लागू होने के अगले ही साल केंद्र सरकार ने इसमें संशोधन का प्रयास किया. पहले इस कानून में संशोधन कर यह व्यवस्था की गयी कि आरटीआइ के तहत नागरिक फाइल नोटिंग की जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता है. यानी फाइल में अधिकारियों और मंत्रियों क्या टिप्पणी अंकित की, यह जानने का अधिकार जनता से छीन लिया गया.

देश भर में हुआ विरोध
देश भर के आरटीआइ एक्टिविस्ट, पत्रकार, वकील आदि ने इसका कड़ा विरोध किया. कहा, अगर नोटिंग की जानकारी नहीं मिलेगी, तब जनता को यह जानकारी भी नहीं हो पायेगी कि किसी निर्णय, कार्रवाई, घोटाले या गड़बड़ी में किस अधिकारी या मंत्री की कैसी, क्या और कितनी भूमिका थी. इससे आरटीआइ की आत्मा की मर जायेगी.

नहीं चली सरकार की दलील
उधर सरकार ने कहा कि नोटिंग के उजागर होने से ईमानदार निष्पक्ष टिप्पणी और सलाह देने से डरेंगे. उनकी सुरक्षा प्रभावित होगी, लेकिन इस दलील नहीं चली. देश भर के एक्टिविस्टों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर ‘महाधरना’ दिया. धरना दिल्ली के जंतर-मंतर पर सात अगस्त से 20 अगस्त 2006 तक चला. अंत में कार्मिक विभाग ने आदेश जारी कर इसे वापस ले लिया.

एक कोशिश यह भी
एक कोशिश और हुई. कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में संशोधन का प्रस्ताव तैयार किया. इसमें ‘तर्कहीन’ और ‘परेशान करने वाले’ सूचना के आवेदन को रद्द करने का अधिकार लोक  सूचना पदाधिकारी को देने का प्रावधान शामिल किया गया.

ताकत का ऐसे हुआ अहसास
कृपा सिंधु बच्चन झारखंड के उन सजग लोगों में से हैं, जिन्होंने कई क्षेत्रों में सूचना का अधिकार का इस्तेमाल कर इसकी ताकत का एहसास कराया. वे पाकुड़ के रहने वाले हैं, जो राज्य का सुदूरवर्ती और पिछड़ा इलाका है. यहां सरकार की योजनाओं में लूट के कई किस्से राज्य भर में चर्चा में रहा. श्री बच्चन ने आरटीआइ का इस्तेमाल कर करीब आधा दर्जन मामलों में भ्रष्टाचार उजागर किया और आम आदमी को लाभ पहुंचाया. प्रशासन की गलतियों को उजागर कर उसी के चतुर्थ वर्गीय कर्मचारियों को तृतीय वर्ग में प्रोन्नति का लाभ दिलवाया. राज्य सरकार की ओर से एक आदेश जारी किया गया था, जिसमें कहा गया था कि सूचना देने में लगे कर्मचारियों के वेतन-भत्ते पर होने वाला खर्च भी सूचना मांगने वाले को चुकाना  होगा. उस आदेश को चुनौती देने वालों में बच्चन से सबसे आगे थे. अंतत: यह आदेश निरस्त हुआ. इसके लिए बच्चन जी झारखंड सिटीजन अवार्ड से सम्मानित भी हुए.


चुप चुप चुप! ये अंदर की बात है

अंदर की बात है ये अंदर की बात है

संशोधन के नाम पर दो नंबर की बात है.

दाल में है काला, फंसा नेता का साला

रक्षा उनकी करनी है, करते जो धंधा काला

उनको बचाना है, नोटिंग हटाना है

नोटिंग के बहाने, असली कागज को छिपाना

हमने तो ठाना, मनमोहन को मनाना

सोनिया ने जाना, लेकिन चुप्पी है बहाना

संसद के अंदर लोकतंत्र पर घात है

अंदर की बात है, ये अंदर की बात है.

सोनिया भी चुप और मनमोहन भी चुप

मंत्री भी चुप और संतरी भी चुप

पक्ष भी चुप और विपक्ष भी चुप

अर्दल भी चुप और निर्दल भी चुप

पूरे के पूरे पांच सौ पैंतालीस चुप

चुप चुप चुप, चुप चुप चुप,चुप

अंदर की बात है ये अंदर की बात है.

 

धरना लगायेंगे, हल्ला मचायेंगे

लोकतंत्र की बात को, सबको सुनायेंगे

गांव-गांव जायेंगे, शहरों में सुनायेंगे

वोटों के अंतर से, इनको सुझायेंगे

ये खुली खुली बात है, ये खुली खुली बात है

ये तेरी भी बात भैया, मेरी भी बात है

ये बहनों की बात है, हम सब की बात है

ये जीने की बात है, ये मरने की बात है.

(यह गीत फाइल की नोटिंग के  हिस्से को आरटीआइ से अलग करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा किये गये संशोधन के विरोध में 7 से 20 अगस्त 2006 तक दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक्टिविस्टों के धरने के दौरान बना था. 23 जून 2009 को सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था).

www.prabhatkhabar.com/news/55489-story.html


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