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न्यूज क्लिपिंग्स् | आर्थिक माहौल को लेकर फिक्रमंद - संजय गुप्‍त

आर्थिक माहौल को लेकर फिक्रमंद - संजय गुप्‍त

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published Published on Dec 26, 2016   modified Modified on Dec 26, 2016

पांच सौ व एक हजार के नोटों का चलन बंद करने की घोषणा के बाद केंद्र सरकार के साथ ही तमाम विशेषज्ञों का अनुमान था कि करीब तीन-चार लाख करोड़ रुपए की राशि काले धन के रूप में होने के कारण बैंकिंग व्यवस्था में लौटकर नहीं आएगी। अब जब पुराने नोट बैंकों में जमा कराने की अवधि बीतने में महज पांच दिन शेष रह गए हैं, तब जितनी राशि के नोटों का चलन बंद किया गया था लगभग उतनी ही राशि बैंकों में आ जाने के आसार दिख रहे हैं। इसकी एक बड़ी वजह नोटबंदी के बाद काले धन वालों पर अंकुश न लग पाना ही है। शुरुआत में लोगों ने पुराने नोट बदलवाने की सुविधा का जमकर दुरुपयोग किया। जब यह सुविधा बंद की गई तो भ्रष्ट बैंक कर्मियों को कमीशन देकर पुराने नोटों के बदले नए नोट हासिल करने का सिलसिला चल निकला। कुछ लोग पुराने नोटों से सोना खरीदने में भी जुट गए। यह सब देखकर सरकार ने आयकर कानून में बदलाव किया। इसके तहत टैक्स व जुर्माना चुकाकर काले धन की घोषणा करने की सुविधा दी गई। टैक्स और जुर्माने के रूप में वसूल की जाने वाली रकम को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना का हिस्सा बनना है। वैसे इस योजना में कोई बहुत बड़ी राशि जमा होने के आसार नहीं हैं और यदि ऐसा ही होता है तो इसका मतलब होगा कि काले धन वालों ने येन-केन-प्रकारेण अपनी काली कमाई सफेद कर ली। यदि सरकार डाल-डाल रही तो काले धन वाले पात-पात। हालांकि रिजर्व बैंक ने दर्जनों बार अपने नियम बदले और इस क्रम में उपहास का पात्र भी बना, लेकिन वह काले धन वालों पर काबू नहीं पा सका।

 

इस आम धारणा में एक बड़ी हद तक सच्चाई है कि निजी बैंकों के साथ-साथ सरकारी बैंकों के भ्रष्ट कर्मियों के कारण काले धन को सफेद करने में आसानी हुई। बैंकों की मिलीभगत के बिना यह संभव ही नहीं था। भ्रष्ट बैंक कर्मियों की वजह से न केवल नोटबंदी का कदम अपने उद्देश्य से दूर होता दिखा, बल्कि लोगों को एटीएम और बैंकों से पैसा निकालने में कठिनाई का भी सामना करना पड़ा। लोगों को इस कठिनाई से अभी भी दो-चार होना पड़ रहा है। चूंकि यह साफ नहीं कि 30 दिसबंर के बाद क्या हालात बनेंगे और सरकार ने यह स्पष्ट भी नहीं किया कि वह बंद किए गए नोटों के बदले कितनी राशि के नोट बैंकिंग व्यवस्था में लाएगी, इसलिए कारोबारियों के साथ-साथ आम लोग भी तरह-तरह के अंदेशे से ग्रस्त हैं।

 

 

यह भी ध्यान रहे कि सरकार नकदी रहित लेन-देन की जो मुहिम चला रही है, उसके बारे में भी यह स्पष्ट नहीं कि कब तक जीडीपी का कितना हिस्सा इस तरह के लेन-देन का हिस्सा बन जाएगा? नोटबंदी के समय 500 और 1000 रुपए के नोटों का कुल मूल्य लगभग साढ़े 14 लाख करोड़ रुपए था। करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपए नकली नोटों के रूप में माने जा रहे थे। नोटबंदी से नकली नोटों का कारोबार तो स्वत: समाप्त हो गया, जो कोई छोटी बात नहीं, क्योंकि हर कोई जानता है कि पाकिस्तान किस तरह नकली नोटों की मदद से भारत में आतंकवाद फैलाने के साथ-साथ इसकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की साजिश में जुटा था। नकली नोटों पर अंकुश लगना अच्छी बात है, किंतु नोटबंदी का केवल यही एकमात्र उद्देश्य नहीं हो सकता।

 

इससे इनकार नहीं कि नोटबंदी के बाद से छापेमारी के साथ काले धन की जब्ती का सिलसिला जारी है, लेकिन केवल इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता क्योंकि इसका दूसरा पहलू यह भी है कि व्यापारियों और कारोबारियों के बीच दहशत का माहौल बन रहा है। यह ठीक है कि काले धन वाले बख्शे न जाएं, लेकिन केंद्र सरकार को यह भी देखना होगा कि उद्योगपतियों और व्यापारियों के मन में अनावश्यक भय पैदा न होने पाए।

 

नोटबंदी के बाद यह उम्मीद थी कि इस ऐतिहासिक और दूरगामी महत्व वाले फैसले के प्रभावों को लेकर संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सारगर्भित बहस होगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। चूंकि संसद में कही गई बातों का एक विशेष महत्व होता है इसलिए जनता भी उस पर निगाहें लगाए थी। दुर्भाग्य से नोटबंदी पर संसद के बाहर तो खूब चर्चा हुई, लेकिन संसद के भीतर केवल हंगामा हुआ। सभाओं और रैलियों में सरकार और विपक्ष के नेताओं की ओर से की गई बातों के आधार पर जनता को इस सवाल का ठोस जवाब नहीं मिल सका कि नोटबंदी से उसके जीवन में क्या बदलाव होने जा रहा है। लंबे समय तक शासन का अनुभव रखने वाली कांग्रेस से उम्मीद थी कि वह इस गंभीर आर्थिक मसले पर विपक्ष का नेतृत्व करेगी, लेकिन उसने ही सबसे ज्यादा निराश किया। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने संसद सत्र की समाप्ति से दो-तीन दिन पूर्व अचानक यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि उन्हें संसद में बोलने नहीं दिया जा रहा और यदि वह बोलेंगे तो भूकंप आ जाएगा। उन्होंने प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के सुबूत होने का भी दावा किया। उनके इस रुख के चलते कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष का ध्यान नोटबंदी से हटा। गुजरात की एक रैली में जब उन्होंने प्रधानमंत्री के खिलाफ अपने आरोप उछाले तो अपनी जगहंसाई ही करा बैठे। उन्होंने उन पुराने आरोपों को ही दोहराया, जिन्हें खुद सुप्रीम कोर्ट खोखले ठहरा चुका था।

 

 

सियासी नेतृत्व इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि आर्थिक माहौल किस तरह देश के विकास को दिशा देता है, लेकिन कांग्र्रेस के रुख से ऐसा नहीं लगता कि उसे देश के आर्थिक माहौल की चिंता है। काले धन वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई को लेकर सरकार की ओर से दिए जाने वाले कुछ बयान भी उद्योग-व्यापार जगत को सशंकित कर रहे हैं। यह समझना होगा कि वैध तौर-तरीकों से टैक्स बचाने और हेराफेरी कर टैक्स से बचने में अंतर है। अंदेशा है कि कहीं आयकर विभाग इस अंतर की अनदेखी न करने लगे। जहां यह जरूरी है कि सरकार अपने फैसलों के नकारात्मक असर को लेकर सतर्क रहे, वहीं विपक्षी नेता भी बेसिर-पैर की बातों से बाज आएं। राहुल अब यह आरोप दोहराने में जुटे हुए हैं कि नोटबंदी के जरिए प्रधानमंत्री अपने पसंदीदा उद्यमियों को फायदा पहुंचा रहे हैं। अगर उन्हें अपनी साख की चिंता है तो उन्हें प्रमाण सहित बताना चाहिए किन उद्यमियों को किस तरह लाभ पहुंचाया जा रहा है? राहुल अपने बेजा बयानों से उद्योग जगत की नकारात्मक छवि तो बना ही रहे, कारोबारियों को भ्रष्ट और चोर भी ठहरा रहे हैं। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती वहां के कारोबारियों से ही मिलती है। यदि राजनीतिक स्वार्थ के फेर में कारोबारियों को चोर ठहराया जाएगा तो इससे न केवल उद्योग जगत हतोत्साहित होगा, बल्कि निवेश पर भी बुरा असर पड़ेगा। इससे अंतरराष्ट्रीय जगत में भी यह संदेश जाएगा कि भारत में तो उद्योगपतियों को लांछित किया जाता है। इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे।

 

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)

 


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