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न्यूज क्लिपिंग्स् | इतने ही नैतिक हैं तो पहले सामने क्यों नहीं आए- कुमार प्रशांत

इतने ही नैतिक हैं तो पहले सामने क्यों नहीं आए- कुमार प्रशांत

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published Published on Apr 22, 2014   modified Modified on Apr 22, 2014
किताबें बोलती हैं, कोई ऐसा कहता है, तो हम इसे भाषा का विन्यास मानकर हंस लेते हैं। लेकिन अभी दो किताबें आई हैं, जो बोल रही हैं। पहली किताब संजय बारू की है, जो बता रही है कि कैसे और किसने बनाया-बिगाड़ा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को-द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर : मेकिंग ऐंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह! फिर दूसरी किताब आई पूर्व कोयला सचिव पी सी पारेख की। यह करती है मनमोहन सिंह का भंडाफोड़ क्रूसेडर ऑर कांस्पिरेटर? : कोलगेट ऐंड अदर ट्रूथ!

देश में इस वक्त वह मौसम तारी है, जिसमें झूठ, फरेब, आत्मस्तुति, परनिंदा और देश को अपमानित कर जाने वाली आंधी उठती है और यह सब संविधानसम्मत माना जाता है। यह सब देख-सुनकर संविधान पर क्या गुजरती होगी, इसे देखने-समझने की संवेदना उनमें तो नहीं ही बची है, जिन्हें संविधान की रक्षा की शपथ लेनी है, उनमें भी नहीं बची, जिन पर समाज भरोसा करता है कि वे नैतिक माहौल बनाए रखेंगे। लेखक-पत्रकार, कवि-रचनाकार इसी श्रेणी में माने जाते हैं। मैं संजय बारू और पी सी पारेख की किताबों को इसी श्रेणी में रखता हूं। अगर दोनों किताबों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को निकाल दें, तो इनकी कोई कीमत रह जाएगी?

संजय बारू विशेष बने तभी, जब मनमोहन सिंह ने उन्हें मीडिया सलाहकार बनाया। सत्ता के पास पहुंचने की ललक उन सभी पत्रकारों में होती है, जो कलम को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं। संजय बारू के मुताबिक, वह चाहते थे कि यह किताब चुनाव के बाद प्रकाशित हो, लेकिन प्रकाशक का जोर था कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं रह गए, तब कौन उन पर लिखी किताब पढ़ना चाहेगा? यदि किताब लिखने के पीछे देश को सच बताने की व्यग्रता होती, तो यह तब प्रकाशित की जाती, जब लोग इसे राजनीतिक शिगूफे की तरह नहीं, किताब की तरह पढ़ते। लेकिन संजय और उनके प्रकाशक की नजर कमाई पर थी।

हमारे देश के नौकरशाह इसी मनोभावना से संचालित होते हैं कि जब तक सत्ता में हैं, उसकी मलाई खाते रहो। जब सब कुछ निचोड़ लो, तब सोचो कि अब रस कहां है? तब आप अचानक देशभक्त बन जाते हैं और अपनी कायरता दूसरे पर थोप खुद को चमकाने लगते हैं। जब संजय बारू प्रधानमंत्री की नौकरी में थे, तब भी तो वह कमजोर, अनिर्णय का बंदी प्रधानमंत्री देश का कबाड़ा कर रहा था! तब तो देश कभी आपके सपने में नहीं आया? कोयला सचिव पारेख को तब उनके जमीर ने नहीं झकझोरा, जब उनके ही विभाग की लूट चल रही थी। प्रधानमंत्री मंत्रियों पर काबू नहीं रख पा रहे थे, यदि पारेख का यह सच मान लें, तो यह क्यों न मानें कि पारेख साहब अपने विभाग, अपने पद की मर्यादा को काबू में नहीं कर पा रहे थे?

कोल ब्लॉक की राजनीतिक लूट इतनी ही त्रासदायक लगी थी पारेख साहब को, तो एक भी मौका ऐसा आया क्या, जब वह देश के सामने आए? जब कोयला घोटाला सामने आया और उसकी चपेट में पारेख साहब भी आ गए, तब वह यह कहते हुए सामने आए कि अगर मैं अपराधी हूं, तो प्रधानमंत्री भी अपराधी हैं! बड़े नौकरशाह इसी मुगालते में जीते हैं कि वे हैं, तभी यह मुल्क बचा हुआ है! पारेख या संजय इतने ही ईमानदार हैं, तो वे किताब नहीं लिखते, अपनी सच्चाई स्थापित करने में जुटे होते। वे अपनी नौकरियों से बाहर आते और देश को अपना सच बताते। गुजरात में दो तरह के अधिकारियों को हम देख रहे हैं। कुछ जेल की सलाखों में बंद हैं, जो मोदी सरकार की शह पर गलत कर रहे थे। और दूसरे वे हैं, जो नौकरी गंवाकर भी अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। संजयों और पारेखों को इनमें अपनी जगह चुननी है।

http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/if-you-have-so-morality-then-why-not-come-out-first/


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