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न्यूज क्लिपिंग्स् | इन बच्चों का क्या कसूर?- हर्षमंदर

इन बच्चों का क्या कसूर?- हर्षमंदर

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published Published on May 1, 2012   modified Modified on May 1, 2012
गरीबों के बच्चे मवेशी चराते हैं और चटाई बुनते हैं, वे शहर के कूड़ागाहों और ट्रैफिक सिगनल्स पर पाए जाते हैं, ईंट-भट्टे और कोयला खदानें आमतौर पर उनके काम करने की जगहें होती हैं। जब हमारे बच्चे स्कूलों में पढ़ाई करने जाते हैं, तब गरीबों के बच्चे रोजी-रोटी के लिए मशक्कत कर रहे होते हैं।


लेकिन बड़ी अजीब बात है कि हमने महज इस संयोग के आधार पर इन बच्चों की इस अभागी नियति को स्वीकार कर लिया है कि उनका जन्म किसी गरीब के घर में हुआ था। यह भी हैरत में डाल देने वाला है कि अगर ढलाईखानों, ईंट-भट्टों, आतिशबाजी कारखानों, खदानों जैसी कुछ ‘खतरनाक’ प्रतिबंधित जगहों को छोड़ दिया जाए, तो आज भी हर आयु वर्ग के बाल श्रमिकों से विभिन्न व्यवसायों और उद्यमों में काम करवाया जा रहा है। अक्सर तो यह भी देखा जाता है कि इन खतरनाक जगहों पर भी बाल श्रमिकों से काम लिया जाता है, लेकिन इस तरह के मामलों में कितनी बार मुकदमे दर्ज किए जाते हैं और कितने लोगों को सजा दी जाती है?


मिसाल के तौर पर खेतों में बाल श्रमिकों से काम लिए जाने पर कोई पाबंदी नहीं है, जबकि यहां विषैले कीटनाशकों और रसायनों के कारण उनकी सेहत को खासा नुकसान पहुंचता है। वास्तव में आंकड़े तो बताते हैं कि देश के ७क् फीसदी बाल श्रमिक खेतों में ही मजदूरी करते हैं।


साथ ही बच्चों द्वारा कचरा बीनने, चाय की दुकानों या किसी घर में काम करने पर भी कोई पाबंदी नहीं है। आज से एक दशक पहले पांच वर्ष से कम आयु वाले पांच लाख से अधिक बच्चे और कुल लगभग एक करोड़ 30 लाख बच्चे बाल श्रमिक के रूप में किसी न किसी क्षेत्र में काम कर रहे थे।


ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आज यह आंकड़ा कहां पहुंच गया होगा। बाल अधिकार कार्यकर्ताओं का तो कहना है कि वास्तविक आंकड़े इससे कहीं ज्यादा हैं, क्योंकि हर वो बच्च जो स्कूल नहीं जाता है, किन्हीं अर्थो में बाल श्रमिक ही है, क्योंकि उसे कई छोटे-मोटे काम करते हुए अपने माता-पिता की आर्थिक सहायता करनी पड़ती है।


वर्ष १९८१ में पेश गुरुपादस्वामी कमेटी रिपोर्ट में कहा गया था : ‘..जब तक गरीबी रहेगी, तब तक बाल श्रम का पूरी तरह उन्मूलन मुश्किल है, इसीलिए वैधानिक संसाधनों के जरिए इसे समाप्त करने के सभी प्रयास व्यावहारिक नहीं हो सकते।’ बाल श्रमिकों को लेकर सरकार के रवैये पर आज भी इसी तरह के तर्क हावी नजर आते हैं। कई प्रगतिशील कार्यकर्ता और विचारक भी बाल श्रम पर संपूर्ण प्रतिबंध को लेकर असमंजस में रहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि एक गरीब परिवार के लिए अपने बच्चे को स्कूल भेजने के बजाय उसे काम पर भेजना ही अधिक व्यावहारिक होता है।


इसमें कोई संदेह नहीं कि भीषण गरीबी से तंग आकर ही माता-पिता अपने बच्चों को छोटी उम्र से ही काम पर भेज देते हैं। ऐसी स्थिति में भला कौन-से कानून के तहत भूख, कर्ज और गरीबी से पीड़ित उन अभिभावकों को दंडित किया जाना चाहिए? लेकिन इससे सरकार अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो जाती।



यह सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है कि बच्चे कामकाज करने के बजाय पढ़ाई करें। बाल श्रम केवल गरीबी का ही नहीं, गरीबी के कारणों का भी परिणाम है। बाल श्रम के बदले रोजमर्रा की मजदूरी तो मिल जाती है, लेकिन इसके दूरगामी दुष्परिणाम बच्चों को भुगतने पड़ते हैं। यदि वे शिक्षित न हों, तो यह पूरी तरह संभव है कि एक भूमिहीन मजदूर का बेटा ताउम्र मजदूर बना रहे और कचरा बीनने वाले का बेटा ताउम्र कचरा बीनता रहे।


सरकारी महकमों द्वारा दी जाने वाली अनेक दलीलों में से एक यह भी है कि बाल श्रम पर पाबंदी लगा देने से अनेक निर्यातों पर प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि वयस्क श्रमिकों को उसी काम के लिए ज्यादा मजदूरी देनी पड़ती है। वास्तव में निर्यात के एक छोटे-से हिस्से में ही बाल श्रमिकों की मदद ली जाती है।



निश्चित ही भारत के आर्थिक विकास की कमान इन नन्हे कामगारों के छोटे-छोटे हाथों में नहीं है। लेकिन इस बात का एक चिंतनीय पहलू यह है कि अकुशल और बाल श्रमिकों को काम देकर कई कंपनियां कामगारों के प्रति अपनी कानूनी जवाबदेहियों से किस तरह पल्ला झाड़ लेना चाहती हैं।



कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि कारीगरी, खेती-किसानी, हस्तशिल्प जैसे क्षेत्रों में बाल श्रमिकों की सहायता लिए जाने का एक मंतव्य यह भी है कि आने वाली पीढ़ी को उनके अभिभावक छोटी उम्र से ही ये हुनर सिखा सकें। लेकिन बच्चे इन हुनर को तो स्कूल से लौटने के बाद या छुट्टियों में भी सीख सकते हैं।


वास्तव में देखा जाए तो इस तरह के तर्क जाति व्यवस्था की ही जड़ें मजबूत करने का एक और आधार बन जाते हैं। सवाल यही है कि बच्चे अपने पिता और बुजुर्गो द्वारा परंपरागत रूप से किए जाते रहे कामों को ही क्यों अपनाएं? श्रम की महत्ता का तर्क केवल तभी सशक्त रह सकता है, जब मध्य वर्ग के बच्चों को भी पढ़ाई के साथ ही काम करना सिखाया जाए।

मुझे ऐसे सैकड़ों बच्चों के साथ काम करने का सौभाग्य मिला है, जो महज कुछ वर्षो पहले तक सड़कों पर भीख मांगते थे, कचरा बीनते थे या जेबकतरी कर जीवनयापन करने को मजबूर थे। हमने कई स्कूलों के दरवाजों पर दस्तक दी, लेकिन केवल कुछ ने ही अपने दरवाजे उनके लिए खोले। लेकिन आज वे ही बच्चे अपने अन्य सहपाठियों जितने ही मेधावी और होनहार हैं।


कुछ क्षेत्रों में तो वे अपने सहपाठियों से भी बेहतर साबित हो रहे हैं। वे उनके साथ नाच-गा, खेल-कूद रहे हैं और अपने उस बचपन को फिर से जी रहे हैं, जिससे उन्हें वंचित कर दिया गया था। जब ये बच्चे बड़े हो जाएंगे तो अपने माता-पिता की तरह ताउम्र भीख नहीं मांगेंगे, कचरा नहीं बीनेंगे या फुटपाथ पर रात नहीं बिताएंगे।


किसी भी बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि बच्चों के भविष्य का निर्माण फुटपाथों पर नहीं, स्कूलों में ही हो सकता है। - (लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।) -लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-the-childrens-fault-3172915.html


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