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न्यूज क्लिपिंग्स् | इन सुदामाओं के कृष्ण कहां

इन सुदामाओं के कृष्ण कहां

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published Published on Jan 23, 2010   modified Modified on Jan 23, 2010

इलाहाबाद । परंपरा और संस्कृति का चंदन माथे पर लगाए प्रदेश के न जाने कितने लोक कलाकार सुदामा बनने के कगार पर पहुंच गये हैं। गांव में बसे होने के कारण इन सुदामाओं पर अभी सरकार की नजर नहीं पड़ी है। जिस कारण कई लोक कलाएं लुप्त होने की स्थित में हैं। देश में फिल्मों को प्रोत्साहन देने वाली नौटंकी कला का भी कुछ यही हाल है। पवारा और करिंगा जैसी कलाएं एक पीढ़ी के बाद समय के चक्र में विलीन हो जाएंगी। वहीं कजरी, बन्ना, ऋतु और विदाई गीत गाने वाली महिला कलाकारों की फिल्मी धुनों के आगे कोई पूछ नहीं रही। इसका अंदाजा तीजन बाई के कार्यक्रमों की घटती लोकप्रियता से लगाया जा सकता है। हां गांवों में किसी आयोजन के अवसर पर इन कलाकारों की गाहेबगाहे पूछ जरूर हो जाती है। गांव में रची-बसी लोक कलाओं के सिरमौर सुदामाओं को सरकार के रूप में तारनहार कृष्ण की जरूरत आन पड़ी है।

जीवन यापन में संघर्षरत कलाकार लोक कलाओं की गठरी झुके कांधों पर उठाये दर-दर घूम रहे हैं। हंडिया के लाल बहादुर रागी इकलौते कलाकार हैं, जो पवारा विधा को कई वर्षो से संभाले हुये हैं। इसी प्रकार करिंगा विधा को सैदाबाद के मुकुंद लाल और पाइडांडा विधा को महोबा के रामचरण यादव आज भी जीवित किये हुये हैं। चंदौली के राम जियावान बावला और इलाहाबाद के लल्लन सिंह गहमरी भोजपुरी गीतों की लोक शैली को सजाये हुये हैं। वहीं गाजीपुर के बाबू लाल धोबिया नृत्य को बचाए हुये हैं। इन सभी कलाओं को मंच और विकास के लिए धन की आवश्यकता है। हालांकि भारत संस्कृति मंत्रालय की ओर से पेंशन जैसी व्यवस्था ऐसे लोक कलाकारों के लिए की गई है। लेकिन विडंबना देखिये कि इसकी जानकारी वेबसाइट के मार्फत अंग्रेजी में उपलब्ध कराई जाती है। जिससे गांव में बसे यह होनहार जानकारी से मरहूम रह जाते हैं। स्वर्ग रंगमंडल के निदेशक अतुल यदुवंशी बताते हैं कि संस्कृति मंत्रालय की ओर से जो अनुदान प्रदेशों को दिया जाता है, उसमें से सबसे अधिक अनुदान कर्नाटक, बंगाल, मणिपुर और दिल्ली ले जाते हैं। अन्य प्रदेशों को उपलब्ध राशि उनके सांस्कृतिक विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। हालांकि उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र और कई एनजीओ ऐसी विलुप्त हो रही कलाओं और कलाकारों को प्रोत्साहन देने का प्रयास कर रहे हैं। रंगकर्मी शांति स्वरूप प्रधान कहते हैं कि लोक कलाओं के लुप्त होने का कारण लगातार घटती उनके श्रोता और दर्शकों की संख्या है। इनको मंच और धन उपलब्ध कराने के लिए सरकार को आगे आना चाहिये।

'ऐसा नहीं है कि गांव में बसे लोक कलाकारों का विकास नहीं हो रहा है। मैं खुद गांवों-गांवों में जाकर ऐसी कलाओं और कलाकारों को मंच उपलब्ध कराने में प्रयासरत हूं। इसके लिए गुरु-शिष्य परंपरा योजना शुरू की गई है। जो कलाकार केंद्र और जोनल केंद्रों में आते हैं, उन्हें पेंशन दिलाने का प्रयास भी हो रहा है।'

आनंद व‌र्द्धन शुक्ला, निदेशक उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र

'पारंपरिक लोक गीतों को कोई गाना नहीं चाहता। लोग फिल्मी धुनों के दीवाने हैं। जो पारंपरिक गीत आज गाये जा रहे हैं, उनमें शैली कम अभद्रता अधिक है। इसके लिए लोगों को कला प्रेमी होना होगा।'

लल्लन सिंह गहमरी, भोजपुरी गायक


http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_6126632_1.html
 

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