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न्यूज क्लिपिंग्स् | इमरजेंसी में कई मायनों में हुई थी चूक - जस्टिस राजिंदर सच्‍चर

इमरजेंसी में कई मायनों में हुई थी चूक - जस्टिस राजिंदर सच्‍चर

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published Published on Jun 22, 2015   modified Modified on Jun 22, 2015
जो देश अपने हाल-फिलहाल का इतिहास याद नहीं रखते, वे एक ही तरह की दुर्घटना दोहराने का खतरा उठाते हैं। देश की दो तिहाई आबादी 35 साल से नीचे की है। यदि इनमें से किसी से आपातकाल लगाए जाने के दिन यानी 26 जून, 1975 का महत्व पूछिए तो उनके चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभरते हैं। कई बार 55 साल के लोगों से भी ऐसा जवाब नहीं मिलता, जिससे बहुत उत्साह पैदा होता हो। अखबारों में भी आपातकाल को लेकर पहले पेज पर शायद ही खबर दी जाती है। कई तो उस दिन कोई सूचना भी नहीं छापते। कुछ जरूर अंदर के किसी पेज पर संक्षेप में इसके बारे में उल्लेख भर करते हैं। आपातकाल के शिकार रहे कई राजनीतिक दल भी प्राय: चुप रहना ही पसंद करते हैं। हालांकि पीयूसीएल और नागरिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले अन्य संगठन हर साल विरोध सभाएं करते हैं, लेकिन सरकारों की नव-उदारवादी नीतियों के साथ होने के कारण आम तौर पर टीवी चैनल और अखबार इनका उल्लेख करना भी मुनासिब नहीं समझते। या इसकी वजह कोई भय है, क्योंकि हाल तक वही पार्टी सत्तारूढ़ थी, जो आपातकाल लगाने की दोषी है।

दुर्भाग्य से यही वह दिन था, जब भारत ने अपना लोकतंत्र खो दिया था और अमेरिकी राष्ट्रपति ने व्यंग्य के साथ अहंकारपूर्वक कहा था कि अमेरिका अब सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यह दूसरी बात है कि जयप्रकाश नारायण के प्रेरक नेतृत्व में देश के लोगों के अप्रतिम त्याग और बलिदान के कारण 18 माह बाद ही सही, अमेरिकी राष्ट्रपति का अभिमान खंडित हो गया। ऐसा भी नहीं है कि आपातकाल का कोई विरोध नहीं किया गया। इसके विरोध में हजारों लोग जेल गए। इनमें कई पूर्व केंद्रीय मंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, राज्यपाल, वकील, विधायक-सांसद और कुछ बहादुर पत्रकार भी थे। कई मानवाधिकार कार्यकर्ता भूमिगत थे, लेकिन एक सीमा थी जिसके बाहर जाकर नि:शस्त्र लोग अत्याचारी और लगभग फासिस्ट सरकार से नहीं लड़ सकते थे। भारत में भी उस वक्त वैसे ही दिन थे।

संकट के वक्त में कार्यपालिका की ज्यादतियों के खिलाफ न्यायपालिका से बचाव की अपेक्षा की जाती है, लेकिन हमारी आजादी तब उच्चतम न्यायालय ने भी छीन ली थी। दरअसल, जबलपुर के एडीएम ने आदेश दिया था कि जीवन का अधिकार आपातकाल के दौरान लागू नहीं रहता। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में इसे सही ठहरा दिया। मानवाधिकार की रक्षा की पहरेदार बनने से इनकार करने वाली न्यायपालिका पर लगा यह दाग कभी मिटाया नहीं जा सकता। वर्ष 1976 में एडीएम जबलपुर मामले में उच्चतम न्यायालय ने नौ उच्च न्यायालयों के आदेश के विरुद्ध निर्णय दिया। इन न्यायालयों ने कहा था कि सरकारों द्वारा निरुद्ध करने के आदेश की वैधता अवैध होने के आधार पर रद्द की जा सकती है।

दरअसल कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों ने नजरबंद किए गए लोगों की रिहाई के आदेश दिए थे। अगर इन आदेशों को उच्चतम न्यायालय समर्थन देता तो आपातकाल खत्म हो जाता, लेकिन यह हमारे लिए शर्म की बात है कि एक सम्मानित अपवाद को छोड़कर चार न्यायाधीशों के बहुमत से उच्चतम न्यायालय ने यह आदेश दिया - '27 जून, 1975 को राष्ट्रपति द्वारा दिए गए आदेश के मद्देनजर किसी भी व्यक्ति को धारा 226 के अंतर्गत या इस आधार पर निरुद्ध करने के आदेश की वैधता को चुनौती देने का अधिकार नहीं है। इस आधार पर बंदी प्रत्यक्षीकरण या अन्य कोई याचिका उच्च न्यायालय में दायर नहीं की जा सकती।"

उच्चतम न्यायालय ने बहुत ही शर्मनाक ढंग से अटॉर्नी जनरल के इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि अपने उच्चस्थ के आदेशों के अंतर्गत अगर किसी पुलिसकर्मी को किसी व्यक्ति को गोली मारनी हो अथवा यहां तक कि उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को गिरफ्तार करना हो तो वह वैध होगा और इसमें कोई राहत उपलब्ध नहीं हो सकती। स्वाभाविक रूप से इस हालत में कोई भी शांतिपूर्ण विरोध आगे जारी नहीं रखा जा सकता था।

मुझे आश्चर्य है कि हाउस ऑफ लॉर्ड्स में 1942 में युद्ध के वक्त लिवरसिज बनाम एंडरसन मामले में दिए गए बहुमत के फैसले पर न्यायपालिका द्वारा विश्वास किया गया। इसमें भी लॉर्ड एटकिन ने अपनी असहमति को लेकर यादगार टिप्पणी की थी। बाद में ब्रिटिश न्यायालयों ने इस फैसले पर इतनी शर्म महसूस की कि उसे कूड़ेदान में डालने लायक बताया।

1963 में इस लिवरसिज बनाम एंडरसन मामले को लॉर्ड रेडक्लिफ ने उपेक्षापूर्ण ढंग से उद्धृत किया और कहा कि इसे सिर्फ युद्ध के दिनों के लिए सीमित रखना चाहिए और यह पहले से ही स्पष्ट है कि इसे पथभ्रष्ट निर्णय माना गया है। लॉ क्वार्टरली रिव्यू 1970 ने साफ शब्दों में बताया कि लिवरसिज का यह फैसला ब्रिटिश न्यायपालिका के लिए किस तरह लज्जाजनक बनता जा रहा है। कुछ टिप्पणीकारों ने लिवरसिज मामले में बहुमत के फैसले को इंग्लैंड के युद्ध के प्रयासों में न्यायालय की भागीदारी के तौर पर वर्णन किया है। उसी तरह कई ने जबलपुर मुकदमे में बहुमत के फैसले को 1975 के आपातकाल को जारी रखने में उच्चतम न्यायालय की भागीदारी के रूप में माना है।

अगर उच्चतम न्यायालय ने नौ उच्च न्यायालयों के समान विचार रखा होता, तो आपातकाल तत्काल खत्म हो जाता, क्योंकि तब कोई न्यायालय जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, राजनारायण, जॉर्ज फर्नांडीस, मधु लिमये जैसे साहसी राष्ट्रभक्तों, कुलदीप नैयर जैसे बहादुर पत्रकारों और अन्य हजारों लोगों की नजरबंदी को इस आधार पर संभवत: सही नहीं ठहराता कि वे देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं। यदि ऐसा किया गया होता तो ये नेता तत्काल रिहा कर दिए जाते और देश में विपक्षी दलों का आंदोलन और तीव्र होता, जिससे 1976 के मध्य तक इंदिरा गांधी की सत्ता आंधी में उड़ जाती। यह उदाहरण है कि कुछ लोगों की भीरुता से कभी-कभी देश का भाग्य कैसे प्रभावित होता है। दुर्भाग्य से इस मामले में ऐसा सबसे ऊंची अदालत के निर्णय की वजह से हुआ, जिसे खुद सुप्रीम कोर्ट को भी भुला पाना संभव नहीं।

-लेखक दिल्‍ली उच्‍च न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायाधीश रह चुके हैं।

 


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