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न्यूज क्लिपिंग्स् | इरोम के मुद्दों से भागता समाज-- उर्मिलेश

इरोम के मुद्दों से भागता समाज-- उर्मिलेश

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published Published on Aug 12, 2016   modified Modified on Aug 12, 2016
सोलह साल बाद अपना ऐतिहासिक अनशन तोड़नेवाली मणिपुर की 44 वर्षीया इरोम शर्मिला चानू के बारे में हर कोई बात कर रहा है, पर ज्यादा लोगों की रुचि उस मुद्दे में नहीं दिखती, जिसके लिए इरोम ने अपनी जिंदगी दावं पर लगा दी. यह संयोग नहीं कि हर विचार, रंग और धारा के राजनेता और दल आमतौर पर उनके अभियान पर खामोश रहे.

मीडिया यदा-कदा उनके बारे में छापता-दिखाता रहा. समाज में माहौल बनानेवाले अन्य लोगों ने भी उनके मुद्दे को बहुत हल्के में लिया. चिंता की बात है कि समाज के जिन हिस्सों ने बीते सोलह साल के दौरान उनकी चर्चा की या उनके बारे में रुचि दिखायी, वे भी सिर्फ उनके व्यक्तित्व और निजी जीवन तक सीमित रहे. उनके अभियान के केंद्रीय मुद्दे- सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आफ्सपा) को लगभग सबने नजरंदाज किया. ऐसा क्यों?

विश्व कीर्तिमान बन चुके अपने अनशन को इरोम ने मंगलवार, 9 अगस्त को तोड़ दिया. बीते तीन दिनों का आकलन करें, तो आश्चर्य होता है, उनको लेकर जो भी चर्चा हो रही है, वह सिर्फ शख्सियत, परिजनों, उनके परदेसी ब्वाॅय-फ्रेंड, बालों-नाखूनों की हालत, मां-बेटी के रिश्तों, पड़ोसियों या समर्थकों की नाराजगी या उनके योग-प्रेम तक सीमित है. उनके इतने लंबे और कठिन अभियान के विमर्श को मानो भुला दिया गया है. पूर्वोत्तर राज्यों, खासकर मणिपुर में, ‘आफ्सपा' की भूमिका, उसके आतंक और लोकतंत्र से उसके छत्तीस के रिश्ते पर बातचीत करनेवाले बहुत कम हैं. लोग भूल गये हैं कि 1958 से ही पूर्वोत्तर के कई इलाकों में लागू इस निरंकुश कानून पर हाल के दिनों में स्वयं सुप्रीम कोर्ट भी सवाल उठा चुका है.

कितनी बार, कितने सारे लोगों ने लाठी-गोली खायी है, पूर्वोत्तर में कितने लोग मारे गये हैं और सरकारों ने इस पूरे प्रकरण पर किस तरह अपनी बेरुखी दिखायी है! चुनाव लड़ कर मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाहिर करते इरोम के बयान पर भी विवाद खड़ा हो गया. शादी करने की उनकी इच्छा भी कुछ लोगों के निशाने पर है, जिस पर इरोम को मजबूरन यह सफाई देनी पड़ी कि राजनीति में कामयाब नहीं होने पर ही वह घर बसाने का फैसला करेंगी.

आखिर हम कैसे समाज में जी रहे हैं और कैसा समाज बना रहे हैं? क्या किसी आंदोलनकारी को अपनी पसंद का पति या पत्नी चुनने का अधिकार नहीं है? क्या किसी विदेशी से शादी करने पर किसी का मकसद भटक जाता है?

सोलह साल लंबे अनशन की विफलता से निराश किसी आंदोलनकारी को क्या कामयाबी के लिए कोई और रास्ता चुनने की आजादी नहीं होनी चाहिए? हमें यह समझना होगा कि एक महान आदर्श और ध्येय से अनुप्राणित अहिंसक आंदोलनकारी होने के बावजूद यह कोई जरूरी नहीं कि इरोम राजनीतिक तौर पर बहुत प्रौढ़ या कुशल रणनीतिकार भी हों. शुरू में मुझे भी अचरज हुआ कि वह चुनावी मैदान में उतरना चाहती हैं और फिर मुख्यमंत्री बन कर ‘आफ्सपा' हटायेंगी या हटाने का फैसला करायेंगी!

‘आफ्सपा' के कानूनी पक्ष, ऐसे मामलों में केंद्र की विधायी शक्ति और भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र को बारीकी से समझनेवाला कोई भी राजनीतिक व्यक्ति ऐसी बात नहीं करना चाहेगा. लेकिन शर्मिला ने ऐसा कहा. क्योंकि शर्मिला बुनियादी तौर पर एक सत्याग्रही हैं, एक अहिंसक आंदोलनकारी हैं और यह उनकी बहुत बड़ी शक्ति है. अब वह राजनीति में दाखिल होंगी. फिर वह ‘आफ्सपा' की राजनीति और भारतीय राष्ट्र-राज्य की ताकत को समझेंगी. संभव है, तब वह अपनी रणनीति में तब्दीली करें.

देश में कई काले-कानूनों के खिलाफ बड़े अभियान चले, तो मजबूर होकर सरकारों को उन्हें वापस लेना पड़ा. संसद में इस बाबत कुछ पुराने कानूनों में संशोधन भी करना पड़ा. ‘आफ्सपा' भी वापस हो सकता है, यह कोई अजर-अमर नहीं है. लोकतंत्र में जब सरकारें अजर-अमर नहीं, तो उनके द्वारा बनाये कानून कैसे अमर हो सकते हैं? इसलिए इस वक्त ‘अराजनीतिक-सा' लगनेवाला इरोम का यह विवादास्पद बयान किसी खास मुकाम पर सच भी हो सकता है.

पूर्वोत्तर में ‘आफ्सपा' के कवचधारियों द्वारा मारे गये 1528 नागरिकों के परिजनों द्वारा दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक आॅब्जर्वेशन में कहा- ‘आफ्सपा जैसे कानून को अनंत काल तक बनाये रखना राज्य और गवर्नेंस की संस्थागत विफलता है.' कोर्ट ने बीस वर्षों के दौरान हुई मुठभेड़ों की जांच कराने को भी कहा. कोर्ट की इस ऐतिहासिक टिप्पणी से क्या इरोम के मकसद को बल नहीं मिलता? जरूरत है, उनके मुद्दों और मकसद पर बात करने की, न कि उनके निजी मामलों पर.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/843620.html


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