Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | इस असंतोष की जड़ें- पुण्य प्रसून वाजपेयी

इस असंतोष की जड़ें- पुण्य प्रसून वाजपेयी

Share this article Share this article
published Published on Nov 8, 2012   modified Modified on Nov 8, 2012
जनसत्ता 8 नवंबर, 2012: बेचैनी हर किसी में है। आम आदमी की बेचैनी रोज-रोज की परेशानी से जूझते हुए पैदा हुई है। खास लोगों की बेचैनी सत्ता-सुख गंवाने के डर से उपजी है। विरोध में उठे हाथ गुस्से में हैं। गुस्सा जीने का हक मांग रहा है। सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं है तो वह गुस्से में उठे हाथों को चिढ़ाने के लिए और ज्यादा गुस्सा दिलाने पर आमादा है। गुस्सा सत्ता में भी है और सत्ता पाने के लिए बेचैन विपक्ष में भी। तो गुस्सा ही सत्ता है और गुस्सा ही प्यादा है। गुस्सा दिखाना भय की मार सहते-सहते निर्भय होकर सत्ता को डराना भी है। दूसरी ओर, सत्ता का गुस्सा भ्रष्टाचार और महंगाई में डूबी साख को बचाने का खेल भी है।
केजरीवाल जान हथेली पर रख फर्रुखाबाद से सत्ता को चुनौती देते हैं। सत्ता की पीठ पर सवार राहुल गांधी राजनीति के बंद दरवाजों को आम आदमी और कमजोर वर्ग के लिए खोलने की गुहार लगाते हैं। नितिन गडकरी मुस्कराते हुए नागपुर से सत्ता का हू-तू-तू दिखाते हैं। मनमोहन सिंह के इंडिया पर खामोशी बरतते हुए सोनिया गांधी को कांग्रेस में भारत नजर आता है। और मनमोहन सिंह हर कर्म-धतकर्म के लिए सोनिया गांधी के नेतृत्व का जिक्र कर अपने होने न होने की परिभाषा गढ़ते हैं। सबके सामने आम आदमी ही है और सबके पीछे खास सत्ता ही है।
खास सत्ता उसी पूंजी पर टिकी है जिसे विदेशी निवेश के नाम पर कांग्रेस लाना चाहती है। और वह विदेशी पूंजी ही है जो एनजीओ के जरिए देश के गुस्से को बदलाव के मंत्र में बदल व्यवस्था-परिवर्तन का सपना संजो रही है। बिना पूंजी न सत्ता चल पा रही है और न ही विरोध के स्वर पूंजी बिना गूंजने की स्थिति में हैं। और विदेशी पूंजी के लिए छटपटाता मीडिया भी इसी गुस्से में व्यवसाय की पत्रकारिता का नया पाठ याद कर रहा है। तो फिर आम आदमी की बेचैनी और उसके गुस्से से रास्ता जाता किधर है।
आदिवासी, किसान, मजदूर और ग्रामीणों के संघर्ष का रास्ता इसी दौर में हाशिये पर है, जब बदलाव और संघर्ष का सबसे तीखा माहौल देश में बन रहा है। वही आवाज इस दौर में सत्ता को चेता पाने में गैरजरूरी-सी लग रही है जो सीधे उत्पादन से जुड़ी थी। देश की भूख से जुड़ी थी। बहुसंख्यक समाज से जुड़ी थी। और वही आवाज सबसे तेज सुनाई दे रही है जो महानगरों से जुड़ी है। सेवा क्षेत्र से जुड़ी है। शिक्षा पाने के बाद बेरोजगारी से जुड़ी है। या रोजगार पाने के बाद हर जरूरत को जुगाड़ने के लिए भ्रष्टाचार के कटोरे में कुछ न कुछ डाल कर ही जिए जा रही है। गुस्से का सवाल पहली बार तिभागा से नक्सलबाड़ी और सिंगूर से लालगढ़ या बस्तर के संघर्ष से नहीं जुड़ रहा बल्कि शहरी और खाए-पीये अघाए लोगों को संघर्ष के लिए खड़ा करने से जुड़ रहा है।
इसलिए संघर्ष का रास्ता जमा-भाग हथेली पर समाने वाले चंद रुपयों की संपत्ति समेटे अण्णा हजारे से निकल कर इसी व्यवस्था में करोड़ों की सफेद संपत्ति बटोरे लोगों का भी हो चला है। शहरी चमक-दमक से निकला संघर्ष चमक-दमक की दुनिया में सेंध लगा कर व्यवस्था बदलाव का सपना जगा रहा है। पत्रकार, शिक्षक, बाबू, वकील जैसे हुनरमंद मान चुके हैं कि अगर चोरों की व्यवस्था में हर किसी को दस्तावेज पर चोर बता दिया जाए तो चोर-व्यवस्था बदल जाएगी।
व्यवस्था बदलने की होड़ में शहरी गुस्सा इतना ज्यादा है कि राबर्ट वडरा हों या मुकेश अंबानी या फिर नितिन गडकरी हों या शरद पवार, इनके भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलासे की शुरुआत या अंत की कहानी में उस आम आदमी की भागीदारी कहां कैसे होगी जहां उसका गुस्सा पेट से निकल कर पेट में ही समा रहा है। यह किसी को नहीं पता। सिर्फ आस है कि आज गुस्सा सड़क पर निकला तो कल पेट भी भरेगा।
और सियासी धमाचौकड़ी का गुस्सा विकास के लिए खींची गई भ्रष्ट लकीर को भ्रष्ट ठहरा रहा कर नियम-कायदों को ठीक करने के लिए आम आदमी के गुस्से को सड़क पर दिखा कर वापस अपने घर लौट रहा है। दूरियां पट रही हैं या दूरियां बढ़ रही हैं? क्योंकि सवाल उस जमीन पर खडेÞ आम लोगों के गुस्से का नहीं है जिस जमीन को हड़पने या उसे बचाने का शहरी खेल जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक हर कोई बार-बार खेल रहा है। सवाल उन लोगों का है जिनकी जमीन उनका जीवन है। और पीढ़ियों से खिलाती आई उसी जमीन को अब देश की संपत्ति बता कर हथियाने की विकास नीति स्वीकार कर ली गई है।
सवाल उन लोगों का है जिनके लिए संस्थानों का होना लोकतंत्र का होना बताया गया। लेकिन वही संस्थान धनतंत्र में बदल गए। सवाल उन लोगों का है जिनके लिए संसदीय लोकतंत्र आजाद होने का नारा रहा। और अब वही संसदीय धारा उनके मुंह का कौर भी छीन लेने पर आमादा है। क्या पेट में समाए इस गुस्से को भूमि-सुधार, खाद्य सुरक्षा विधेयक और राजनीतिक व्यवस्था के बंद दरवाजों को खोलने से खत्म किया जा सकता है?
क्या वाकई देश के गुस्से को सही राह वही शहरी मिजाज देगा जिसने स्वदेशी का राजनीतिक पाठ किया और बाजार-व्यवस्था में गंवाने या पाने की तिकड़मों को समझने के बाद व्यवस्था बदलने का सवाल उठा दिया। क्या वाकई देश के गुस्से को राह वही शहरी देगा जिसने कॉनवेन्ट में पढ़ाई की और अब महात्मा गांधी के स्वराज को याद कर व्यवस्था बदलने का नारा लगाना शुरू कर दिया।
या फिर लुटियंस की दिल्ली की वह सियासी मशक्कत देश के गुस्से को शांत करेगी, जिसे राजनीतिक पैकेज में ही हर पेट के भीतर की कुलबुलाहट और भूख को बेच कर कॉरपोरेट के कमीशन से विकास दर का चढ़ता ग्राफ दिखाई देता है।
गुस्से और आक्रोश को भुनाने या शांत करने के उपाय तो शहरी मिजाज इस रास्ते देख सकता है। लेकिन गुस्सा और आक्रोश है क्यों? क्या शहरी संघर्ष का रास्ता इसे समझ पा रहा है या फिर जो गुस्सा दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान पर हर कोई दिखाने को आमादा है वह अपने बचने के उपाय तो नहीं खोज रहा। कहीं अपराध करने के बाद खुद को अपराधी कहलाने से बचने के लिए गुस्सा पालने का नाटक तो नहीं हो रहा। और गुस्से गुस्से के खेल में व्यवस्था परिवर्तन का नारा लगा कर असल गुस्से से बचने की ढाल ही गुस्से को तो नहीं बनाया जा रहा है? क्योंकि वे कौन-सी वजहें हैं कि सफेद कमाई और काली कमाई के बीच आम आदमी अंतर समझ नहीं पा रहा है?
उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के वकीलों की जो जमात संघर्ष करते हुए सड़क पर दिखाई देने लगी है वह सफेद कमाई से ही औसतन पचास करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालिक है। जो शिक्षक गुस्से में है उसकी संपत्ति औसतन पांच करोड़ की है। जो पत्रकार गुस्से में है और परदे पर चिल्लम-पों करते हुए व्यवस्था बदलाव के नारे में हक का सवाल जोड़ रहा है, संवैधानिक कायदों को बता रहा है, उसकी संपत्ति करोड़ों में है। जो बाबू, जो डॉक्टर, जो इंजीनियर और जो सामाजिक संस्था चलाते हुए संघर्ष के रास्ते निकले हैं उनकी दस्तावेजी कमाई चाहे करोड़पति वाली न हो लेकिन उनके पीछे करोड़ों रुपए का ऐसा रास्ता है जो उनकी सहूलियतों और उनके संघर्ष से उपजती सत्ता के पीछे सब कुछ झोंकने के लिए तैयार है।
सुविधाओं की पोटली बांध कर संघर्ष करते हुए पेट के गुस्से को अपने अनुकूल परिभाषित करने को क्या व्यवस्था परिवर्तन माना जा सकता है? कहीं व्यवस्था की परिभाषा भी तो इस दौर में नहीं बदल दी गई! क्योंकि देश का बजट, विकास नीतियां, बाजार और विकास दर अब देश के नागरिकों पर नहीं बल्कि उपभोक्ताओं पर टिके हैं। उपभोक्ताओं के लिए जल, जंगल, जमीन, रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा सेवा, शिक्षा से लेकर संघर्ष का पाठ ही देश का सच मान लिया गया है। पानी में लूट, शिक्षा में लूट, स्वास्थ्य सेवा को बीमाकरण और रोजगार से जोड़ने में लूट।
जंगल, जमीन और खनिज संपदा के खनन में लूट। यानी व्यवस्था के खांचे में ही एक खास तबके के लिए एक खास तबके के जरिए बनाया-लूटा जा रहा है। क्या इस लूट को सामने लाने का संघर्ष भी लूट का उपभोग करने या न कर पाने से ही जुड़ा होगा? यानी कहीं संघर्ष और गुस्से को उपभोक्ता संस्कृति के जरिए नागरिकों से छीन कर उपभोक्ताओं के हाथ में तो नहीं दिया जा रहा है!
जिस उपभोक्ता की जेब उपभोग में रोड़ा अटका रही है, जो उपभोक्ता हैरान-परेशान है, वह सड़क पर अपने गुस्से का इजहार करने के लिए जमा है। जिस उपभोक्ता की जेब उपभोग करने के साधन अब भी जुटा सकने में सक्षम है वह बेखौफ है। वह सत्ता के संघर्ष में अपने गुस्से का इजहार करने से नहीं चूक रहा। उसका संघर्ष या उसका गुस्सा सीधे सत्ता पर काबिज न हो पाने का है। उसे संसदीय लोकतंत्र में उपभोक्ता तंत्र ही दिखाई दे रहा है।
कॉरपोरेट हो या नौकरशाही, कांग्रेस हो भाजपा, ऊर्जा और खनन से जुडेÞ घराने हों या मीडिया घराने, इनके बीचे संघर्ष या गुस्सा इसी बात को लेकर है कि सत्ता पाने-चलाने में तो वे भी सक्षम हैं, फिर वे बाहर क्यों हैं। और सत्ता का मतलब ही जब उपभोक्ताओं का देश चलाना हो गया है तब संघर्ष भी उपभोक्ताओं का ही होगा। और व्यवस्था परिवर्तन के ऐसे मोड़ पर उस आम आदमी के गुस्से, उसके संघर्ष को देखेगा-समझेगा कौन, जहां रोटी-कपड़ा, बिजली-पानी, शिक्षा-स्वास्थ्य पहुंचते ही नहीं हैं। लेकिन गुस्सा उसके पेट से बारूद में समाने को तैयार है।
राबर्ट वडरा को बिना जांच क्लीन चिट दे दी गई। गडकरी की जांच हुई नहीं। अंजलि दमानिया की जांच रिपोर्ट भी जनलोकपाल दे नहीं पाया है। सलमान खुर्शीद पर लगे आरोपों की जांच के बीच ही उन्हें प्रधानमंत्री ने पदोन्नति दे दी। संघर्ष करते केजरीवाल भी खुला एलान करने लगे हैं कि अदालत जाने का कोई मतलब नहीं है। न्याय जनता करे। यानी अगर अदालतें या कानून इसी तरह ढहें तो फिर संघर्ष के तौर-तरीकों में कोई गैरकानूनी नहीं होगा। सब कुछ राजनीतिक फैसले पर टिकेगा। तो इंतजार इसी का करें या अब भी संभल जाएं! सोचिएगा जरा, क्योंकि देश गुस्से में है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/32411-2012-11-08-05-53-02


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close