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न्यूज क्लिपिंग्स् | उदार पीढ़ी का उद्वेग- सुधीश पचौरी

उदार पीढ़ी का उद्वेग- सुधीश पचौरी

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published Published on Jan 4, 2013   modified Modified on Jan 4, 2013
जनसत्ता 4 जनवरी, 2012: पिछले करीब पंद्रह दिनों में एक युवा विमर्श प्रकट हुआ है, जो कई वजहों से  ऐतिहासिक है। उसके कारक, लक्ष्य और परिणाम नए हैं। वह प्रकटत: स्वत:स्फूर्त स्वभाव से असंगठित और अराजनीतिक प्रतीत होता है।
वह ‘परदुख कातर’ है। पुलिस प्रशासन और सत्ता से अन्याय के बरक्स न्याय के सवाल कर रहा है। वह बर्बरता के विरोध में है। वह एक ऐसा नागरिक समाज चाहता है, जिसमें नारी का सम्मान हो और स्त्री के प्रति हो रहे अन्यायों का फौरी निदान हो। अपराधी कड़ी सजा पाएं। प्रशासन निर्णायक और जिम्मेदार बने। कानून जनता की हिफाजत करे। पुल्लिंगवादी लंपट मानसिकता बदले। स्त्री को उपभोग की वस्तु न समझा जाए। स्त्री को आखेट न बनाया जाए। उसके प्रति अपराध और अन्याय को सहा न जाए।
इंडिया गेट से लेकर जंतर मंतर तक दिखे पोस्टरों, बैनरों, दीवारों और सड़क पर खिंची इबारतों में घृणा और क्रोध व्यक्त होते रहे हैं। इस आशुलेखन और आशुचित्रण के पाठों से हम नए मेट्रो शहरी युवावर्ग के सहज सांस्कृतिक विमर्श के मर्म को समझ सकते हैं। सर्द हवाओं के बीच इंडिया गेट से लेकर जंतर मंतर तक जलाई जातीं मोमबत्तियों के प्रतिरोध और उन आवाहन गीतों का मर्म समझ सकते हैं, जो एक तरह की अनुदार वर्चस्वकारी संस्कृति के बरक्स एक उदारवादी प्रति-संस्कृति को अपनी भावोत्तेजना के साथ बना रहा है।
युवा न्याय की पुकार के दृश्य जितने जमीनी बने हैं उतने ही मीडिया में बड़ी कहानी बन कर प्रसारित हुए हैं। लाइव प्रसारण के सातत्य में एक नई पीढ़ी प्रकट हुई है, जो साइबर स्पेस-सेवी है और उसी गति से गतिमान है, अपनी बनाई घटना और उसकी बनी सूचना की तुरंतावादी गति और उसके परिणामों को जानती है और उसके अनुसार आचरण करने को तैयार है।
यह पहली पीढ़ी है, जिसने साइबर स्पेस की एकांतिक मित्रमंडली से निकल कर सड़कों को सामूहिक रूप से भरा और मीडिया में बड़ी कहानी बनाई है। इन पंद्रह-सोलह दिनों में युवा वर्ग ने एक क्षुब्धकथा बनाई है। इस नए युवा वर्ग में ज्यादातर लड़के दिखे हैं, लेकिन लड़कियों की संख्या भी कम नहीं रही। वे एक दूसरे के साथ बराबर के एक्टिविस्ट बने हैं। जीन्स, स्वेटर, कोट, पुलओवर, मफलर और शॉलों से सड़कों पर कड़ाके की ठंड का मुकाबला करते वे सब पुलिस पलटन के बीच, प्रशासन और पुलिस के विरोध में नारे लगाते दिखे हैं।
वे सब क्षुब्ध हैं। उनके क्षोभ का फौरी कारण वह सामूहिक जघन्यतम बलात्कार है, जिसकी शिकार एक पैरामेडिकल छात्र बनी है और जो पंद्रह दिन तक अपनी जिंदगी के लिए लड़ाई लड़ते हुए हारी है। उसकी जिस निरीहता, भयावह पीड़ा और दुर्लभ साहस ने अनंत भाई-बहनों और साथियों को एक धागे से बांध कर एकत्र और सक्रिय किया वह उसकी अकथित पीड़ा से जन्मा हमदर्दी का अबूझ धागा रहा, जिसे बलात्कार की प्रसारित खबरों ने बनाया।
पहली बार मीडिया ने उस संवेदना को जगाया, जो अक्सर उसी द्वारा प्रसारित उपभोक्तावादी संस्कृति के जरिए खत्म की जाती रही है। मुख्यधारा का मीडिया हर खबर को अक्सर ‘डंबिंग डाउन’ की नीति से भुलाता हुआ चलता है, लेकिन वह जब कभी किसी सामाजिक मसले पर फोकस करने लगता है तो उसमें एक शक्ति भी पैदा हो जाती है, जो गहरी प्रतिक्रिया पैदा कर सकती है। सामूहिक बलात्कार की भयावह घटना से प्रेरित मीडिया के संवेदनापरक प्रसारण इसी का उदाहरण हैं।
इस माने में यह आंदोलन स्वत:स्फूर्त दिखते हुए भी मीडिया-स्फूर्त कहा जा सकता है। ‘जेसिका लाल के लिए न्याय’ अभियान एक चैनल का सफल आह्वान रहा। अण्णा आंदोलन भी मीडिया-विस्तारित रहा। पहले केजरीवाल और फिर उनकी ‘आआ पार्टी’ बहुत दिनों तक सड़क के भंडाफोडू प्रतिपक्ष का नमूना बन कर प्रसारित होते रहे। लेकिन जेसिका अभियान को छोड़, अण्णा, रामेदव या केजरीवाल के अभियान या मीडिया के 2 जी या राष्ट्रमंडल खेल के भंडाफोड़-अभियान भंडाफोडू सूचना बन कर चकित तो करते रहे, लेकिन किसी की भावना का गहरा आलंबन नहीं बने। सामूहिक बलात्कार की पीड़िता की निरीहता ने युवा जनता की भावनाओं को गहरे झकझोरा और एक नए तरह का आंदोलन खड़ा हो गया।
यह युवा पीढ़ी वह पीढ़ी है, जिसे कुछ दिन पहले तक जनरेशन नेक्स्ट के नाम से मीडिया पुकारता रहा। यह इंटरनेट सक्रिय, मोबाइल चपल, ट्वीट-त्वरित राय रखने वाली, अपने साइबर दोस्तों के बीच सक्रिय पीढ़ी है, जो बलात्कार को मर्दवादी सत्ता-विमर्श का जघन्य रूप मान कर अपने नए उपलब्ध ‘लिबरल जगत’ और ‘नागरिक स्पेस’ को बचाने के लिए निकली है।
इस अर्थ में यह आंदोलन एक ‘उदार नागरिक स्पेस’ को स्थापित करने का, ‘रिक्ेलम’ करने का आंदोलन है, जिसकी उत्प्रेरक सामूहिक बलात्कार की जघन्य घटना बनी है। इस प्रकट हमदर्दी को कम करके नहीं आंका जा सकता। इसका ऐतिहासिक महत्त्व है। इसके फलाफल देर तक अध्ययन के विषय बनेंगे। ऐसे भावोद्वेलनकारी आंदोलन दुहरते रहेंगे।
तीक्ष्ण भावनाओं के जागरण के तुरंत बाद की प्रतिक्रियाएं स्वत:स्फूर्त और निर्बंध होती हैं। वे किसी न किसी नेटवर्किंग का ही परिणाम होती हैं। नेटवर्किंग कोई अपराध नहीं है। इस बार यह नेटवर्किंग किसी पार्टी या संगठन की नहीं, बल्कि मीडिया प्रेरित रही। इसे मीडिया की आह्वान करने वाली बाइटों के उदाहरणों से सिद्ध किया जा सकता है। यह मीडिया-स्फूर्त आंदोलनों का समय है, जिनमें इंटरनेट, फेसबुक, ट्वीटर मोबाइल और मुख्यधारा का मीडिया सब एक साथ शामिल हो सकते हैं। लेकिन इससे आंदोलन के औचित्य पर शंका नहीं की जा सकती।
इस सब में मीडिया की आवश्यक तटस्थता के अभाव पर उंगली भी रखी जा सकती है और दर्शक-पाठक जनता के प्रति मीडिया के अवसरवादी और उठाईगीर रवैए की अनदेखी भी नहीं की जा सकती, जो विज्ञापनों में औरतों को आखेटित उपभोग की वस्तु की तरह दिखाता है।
सड़कों पर उतरे क्रोध को मीडिया ने अपेक्षित हमदर्दी के साथ बनाया-बढ़ाया। इस अभियान में मीडिया ने उसी लिबरल नागरिक जगत की रक्षा करने की बात की, जिसकी रक्षा युवा भी करना चाहता था, लेकिन मीडिया किसी क्रांति के लिए इसका हमदर्द नहीं बना। उसे लिबरल जगत इसलिए चाहिए कि उसे अपना उपभोक्ता ब्रांड बेचना है। खबर बेचनी है। जबकि आंदोलनकारी किसी हद तक बदलाव के हामी दिखे।
इस जन-उद्वेलन को पिछले बीस-बाईस साल के दौरान के भूमंडलीकरण से प्रसूत  उदारवादी अर्थव्यवस्था और नए उदार नागरिक के निर्माण की प्रक्रियाओं और नए उदारवादी जगत में सक्रिय आकांक्षाओं और समकालीन मंदी जनित हताशाओं के बीच रख कर ही समझा जा सकता है। उदारवाद की उम्र बीस बाईस है, तो उसके समांतर  आंदोलनकारी लड़के-लड़कियों की उम्र भी बीस-बाईस साल दिखी। इस आंदोलन में बहुत सारी हताशाएं मिल कर सामूहिक क्षोभ बनी लगती हैं।
जैसा कि बार-बार कहा गया है: भारत की आधी जनता युवा है, जो उदार आकांक्षाओं वाली है। वह उदारवाद के दौर में पली-बढ़ी है, जिसके निम्न बुर्जुआ मूल्य घर या मुहल्ला-पड़ोस में कम, साइबर में ज्यादा बने हैं, जहां हर मामूली युवा भी अपनी खास राय रखता है, जो गहराई में अवगाहन किए बिना हर बात पर अपनी राय देकर अपने को नायक समझता है और अपनी ‘साइबरी सामाजिक भूमिका’ निभाता और इसे ही ‘नागरिकता का कर्तव्य’ समझता है।
जाति-भेद, लिंग-भेद, धर्म-भेद, स्थान-भेद, भाषा-भेद आदि इस उदारवादी नागरिक स्पृहाओं के विपरीत हैं। नया उदार नागरिक  लिंग-भेद, जाति-भेद का उस तरह से कायल नहीं है, जिस तरह का भेद सांस्कृतिक स्तर पर उदारवाद के दबावों से किसी तरह अपने को बचाए रखते आए अनुदार रूढ़िवादी में दिखता है। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि वह मुकम्मल उदारवादी मूल्यों का सतत और पूर्ण पोषक है! उसके भी अंतर्विरोध हैं। उसका रोष और उसके होश के बीच एक तनातनी है।
यह विकासशील उदारवाद कथित क्रांतिकारियों के लिए कितना भी निंदनीय हो, उसने अपनी प्रक्रियाओं के विकास से ‘उदारवादी सांस्कृतिक स्पेस’ का और कुछ अचीन्हे मूल्यों का निर्माण किया है, जो हर शहरी मध्यवर्ग के घर में कमोबेश मौजूद हैं। इनमें सबसे बड़ा चिह्न वे लड़कियां हैं, जो आज बहुत बड़ी संख्या में पढ़ने जा रही हैं जो उच्चतर शिक्षा में आगे आ रही हैं और नौकरियां कर रही हैं। उनके काम का समय भी वही चौबीस गुणे सात का है।
उनके अपने सपने हैं, जो तीस साल पहले की काम करने वाली स्त्री के रूपों से कुछ अलग हैं। नई स्त्री का जगत नया है। उसमें एक तरह की अचिन्हित स्त्रीत्ववादी सजगता है, जो किसी निश्चित विचारधारा से नहीं बनी है। उसकी छवि बहुत कुछ मीडिया में सक्रिय स्त्री छवि के उपभोग से बनी है, जिसमें स्त्री  की भूमिका जबर्दस्त है और खूब है। वह अधिक दृश्यमान, अधिक दावेदार और पुरुषों से बराबरी करती दिखती है। उसका मीडिया में अनंतरूपा होना एक बड़ी, संवेदनशील और ताकतवर खबर है। यह उसका सबलीकरण है। वह विमर्शात्मक है। उसकी अपनी राय और निर्णय हैं। यह नई स्त्री-छवि अनुदार जगत के लिए अजनबी और उसके मर्दवादी नियंत्रण से बाहर है। यही नई स्त्री की चुनौती है, जिसे अनुदार जमात सहज रूप में स्वीकार नहीं करती। ऐसे हारे हुए विमर्श वहशत में दरिंदे बन जाते हैं। इस उदार समय में नाना स्तरों पर उदार और अनुदार के बीच तनाव और संघर्ष मौजूद हैं, जो बार-बार ध्यान खीचते हैं। जिन्हें सिर्फ एक फौरी आंदोलन ठीक नहीं कर सकता।
उदारवादी स्पेस की सांस्कृतिक उपलब्धियों की व्यवस्था और विकास के लिए न अपेक्षित कानून हैं न संस्थान, न प्रशासन और न राजनीति। स्त्री का इस कदर आगे आना उन्हीं समाजों को सबसे ज्यादा मथता है, जो अपने घर की बेटी को सिर्फ इस भय से बाहर नहीं जाने देते कि बाहर उन्हीं का दूसरा डरावना लंपट चेहरा उन्हें ‘दूसरे की’ मान कर छेड़ता है! तंग करता है!
दिल्ली की सड़कों पर दिन-रात छेड़ी जातीं और आखेटित लड़कियां रोज की खबर बनती रही हैं, लेकिन व्याप्त लंपटता का उपचार कभी नहीं किया गया है। न ऐसे संस्थान और तंत्र बने हैं, जो इस उदारतावादी समय में कार्यरत लड़कियों को हिफाजत दें। न इस नई औरत के लिए उचित भाषा ही विकसित हुई, जो उसे सही परिप्रेक्ष्य में रख कर समझ सके। मर्दवाद से संचालित भाषा के लंपटार्थ गहरे हैं। हद यह है कि ‘उदार विचार की’ लड़की लंपटवादी भाषा में ‘खुली मनचली’ तक मानी जा सकती है, जिसे छेड़ना परेशान करना हक माना जाता है।
लड़कियों के स्कर्ट, टॉप्स, जींन्स, मोबाइल के खिलाफ दिए जाते फतवे इसी अनुदार जगत की प्रतिक्रयाएं हैं, जो विकासमान उदारतावादी सांस्कृतिक स्पेस को बाधित करने के लिए दी जाती रहती हैं। असल लड़ाई उदारवादी अर्थव्यवस्था के समांतर उदार जगत की है। यह तभी बन सकता है जब रोष की जगह होश की बात हो। तुरंतावाद की जगह सातत्य और धैर्य का आग्रह हो और उदार जनतंत्र के निर्माण के लिए भिन्न विचारों के आपसी संवाद का आदर हो। मतभेद के प्रति असहिष्णुता न हो और विराट अनुदार जगत की मानसिकता को बदलने की तैयारी हो।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/35952-2013-01-04-05-37-47


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