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न्यूज क्लिपिंग्स् | एक अनूठा सत्याग्रह- गिरिराज किशोर

एक अनूठा सत्याग्रह- गिरिराज किशोर

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published Published on Dec 12, 2011   modified Modified on Dec 12, 2011
जनसत्ता, 10 दिसंबर,2011: कुछ घटनाएं महत्त्वपूर्ण होती हैं, पर सरकार और कई बार समाज भी उनका उतना संज्ञान नहीं लेता जितना लिया जाना चाहिए। अगर किसी घटना को नजरअंदाज करने से काम चल सकता है तो लोग सोचते हैं कि चला लेना ज्यादा सुविधाजनक है। भले ही देश या समाज को कितना भी आघात क्यों न पहुंचे। मणिपुर हमारे देश के पूर्वोत्तर का महत्त्वपूर्ण प्रदेश है। जब मैं वहां गया था तो लगा कि असली वृंदावन यही है। वहां के शाही मंदिर में संभवत: सैकड़ों वर्ष पूर्व बर्मा के राजा द्वारा उपहारस्वरूप दी गई कृष्ण की मूर्ति स्थापित है। वह नीले पत्थर से बनी है। वहां पर हर साल मेला लगता है। कहा जाता है कि मणिपुर के छोटे-बडेÞ सब लोग उसमें बहुतायत से सम्मिलित होते हैं। पहले तो राजा की तरफ  से भोजन मिलता था। अब केवल प्रसाद मिलता है।
मणिपुर में वैष्णव महिलाएं-पुरुष जिस प्रकार तिलक लगा कर निकलते हैं वह वृंदावन से भी अधिक हृदय-ग्राह्य लगता है। कृष्ण-भक्ति का जो प्रवाह मणिपुरी नृत्य में देखने को मिलता है, वह लास्य और कहीं नहीं देखने को मिलता। मृदंग ताल नृत्य अद्भुत होता है। लेकिन इस संस्कृति को, जो उत्तर भारत से किसी भी हालत में कम नहीं, हम पूरे देश से जोड़ कर नहीं रख पा रहे। ऐसा क्यों है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या हम सरहदी खतरों को नहीं समझ पा रहे हैं?
मुझे स्मरण है जब मैं लगभग दो दशक पहले कु. जगतसिंह (मंत्री) द्वारा आयोजित एक लेखकीय सम्मेलन में हिस्सा लेने मणिपुर गया था तो वहां के लोग इस बात से नाराज थे कि उनकी अस्मिता के प्रतीक कांगला फोर्ट में भारतीय सेना रह रही थी। उसको लेकर वहां बड़ा आक्रोश था। वे मानते थे कि भारतीय सेना को फोर्ट में रखना उनको अपमानित करना है। वैसे भी भारतीय सेना के व्यवहार से स्थानीय लोग बहुत क्षुब्ध थे। मैं जब वहां के तत्कालीन राज्यपाल से मिला तो उनसे इस भावनात्मक समस्या का हल निकालने के लिए निवेदन किया। वे स्वयं भी इस भावनात्मक समस्या से चिंतित थे। लेकिन कोई रास्ता नहीं निकल पा रहा था। लेकिन बाद में जब वहां के सिविल समाज का दबाव बढ़ा और आतंकवादी संगठन ने आतंक फैलाया तो सेना को उनकी अस्मिता के प्रतीक किले को खाली करना पड़ा। सरकारें पता नहीं क्यों तब जाकर सक्रिय होती हैं जब पानी सिर से ऊपर निकलने लगता और असंतोष विद्रोह की शक्ल लेने लगता है। क्या उन्हें इसी बात का इंतजार रहता है?
मणिपुरी जनता और बाकी देश भी इरोम शर्मिला के ग्यारह साल से चल रहे आमरण अनशन को लेकर चिंतित है। इरोम एक कृत्रिम जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हैं। अस्पताल उनका मजबूरी का घर बना हुआ है। संभवत: विश्व का यह सबसे लंबा अनशन है, जो किसी व्यक्ति- वह भी एक महिला- ने अपने लोगों के ऊपर हुए अत्याचार के विरोध में किया है। इरोम ने यह अनशन नवंबर 2000 में शुरू किया था जब मणिपुर के मलोम नगर में सेना ने सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून का सहारा लेकर दस लोगों को गोलियों की भेंट चढ़ा दिया था।
शर्मिला के अनशन ने मणिपुर को संसार की नजर में ला दिया है। उस समय इरोम शर्मिला अट््ठाईस वर्ष की रही होंगी। अब वे चालीस साल के लगभग हैं। उन्हें लोग अब ‘आयरन लेडी’ के नाम से पुकारते हैं। अस्पताल में वे अपने संबंधियों और मित्रों की जगह सिपाहियों से घिरी रहती हैं। हर पंद्रह रोज में एंबुलेंस से इरोम को हाजिरी देने कचहरी जाना पड़ता है।
अगर उनसे कोई पूछता है कि क्या तुम अपना अनशन तोड़ने के लिए राजी हो तो वे बिना हिचके इनकार कर देती हैं, नहीं! उनकी नाक में ट्यूब लगी है जिसके जरिए उन्हें खाना दिया जाता है, कृत्रिम खाना। इसी वजह से अब उनका वजन, बताया जाता है, सैंतीस किलो रह गया है। ग्यारह साल में शायद वे सब खाद्य-पदार्थों का स्वाद भी भूल गई होंगी। यह कोई कम बड़ी तपस्या नहीं कि युवावस्था में जब सबसे अधिक खाने-पीने की ललक होती है, इरोम शर्मिला ने अपने लोगों के लिए उसे भी त्याग दिया।
कितने दिन तक वे इस अनशन को इसी तरह जिएंगी इसकी किसे चिंता है? और क्यों हो? यह सबसे बड़ा तप है युवावस्था में, सारे आकर्षण छोड़ कर शरीर को काष्ठवत बना लेना और अपने मूल्यवान युवा जीवन के ग्यारह वर्ष अनशन करते हुए, नाक के जरिए कृत्रिम भोजन लेकर जीवित रहने के लिए बाध्य होना। यह देश जो अपने को करुणा का स्रोत कहते नहीं अघाता, एक महिला पर यह अन्याय कैसे बर्दाश्त करता है?
इरोम शर्मिला, जैसा कि पहले भी कहा गया, अब उनतालीस वर्ष की हो चुकी हैं। अविवाहित हैं। ऐसा नहीं कि उनके मन में कोमल भावनाएं नहीं हैं। उन्होंने एक ब्रिटिश पत्रकार से अपनी इन भावनाओं को प्रकट किया है। ब्रिटेन के डेस्मेंड कोटिनो से उनका पूरे एक वर्ष

तक पत्र-व्यवहार रहा है। हालांकि वे केवल एक बार कोटिनो से मिली भी हैं, पिछले मार्च में। शर्मिला भी सामान्य जीवन जीना चाहती हैं। लेकिन अनशन तोड़ने की उनकी जो शर्त है वह पूरी होने की निकट भविष्य में कोई आशा नजर नहीं आती। उनकी मांग है कि सुरक्षा बल विशेषाधिकार कानून को वापस लिया जाए।
भारत सरकार एक पूंजीपति की एअरलाइंस बचाने के लिए तो सक्रिय हो सकती है, पर ग्यारह साल से कारावास में अपने प्रदेश के नागरिकों की सुरक्षा के लिए मार्शल लॉ जैसे कानून को वापस लिए जाने की प्रतीक्षा में अनशन करने वाली वीरांगना से बात करने को तैयार नहीं। सुरक्षा बल विशेषाधिकार कानून को वापस लेने की मांग मणिपुर में ही   नहीं, जम्मू-कश्मीर में भी उठ रही है। वहां के मुख्यमंत्री ने इस सवाल को उठाया है।
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मणिपुरी के सिविल समाज के लोग उनकी प्रेम-भावना को वितृष्णा से देखते हैं। उनका खयाल है कि प्रेम दोनों के बीच साजिशन रोपा गया है। इस घटना से शायद मणिपुरवासियों के अहं को चोट पहुंची है। क्या शर्मिला को अपने निजी जीवन के बारे में कल्पनाएं संजोने और आकांक्षाएं रखने का कोई अधिकार नहीं है? खासतौर से जब वे यह कह चुकी हैं कि तब तक विवाह नहीं करेंगी जब तक यह काला कानून वापस नहीं होगा। यह इंतहा है कि जिस अखबार में शर्मिला के साक्षात्कार छपते हैं उसका मणिपुर में बहिष्कार किया जाता है।
आखिर कब तक सिविल समाज उनके साथ ऐसा कठोर व्यवहार करता रहेगा। क्या वे यह नहीं समझते कि इस आंदोलन को सबसे अधिक प्रतिष्ठा शर्मिला के अनशन ने दिलाई है। जम्मू-कश्मीर भी इस कानून को वापस लेने के लिए आवाज उठा रहा है, लेकिन वहां अभी तक कोई शर्मिला पैदा नहीं हुई। वहां के मुख्यमंत्री इस सवाल को उठा रहे हैं। अभी कुछ दिन पूर्व कश्मीर से ‘शर्मिला बचाओ’ यात्रा एक कश्मीरी सज्जन फैजल भाई के नेतृत्व में चल कर कई राज्यों से होकर मणिपुर गई। उसमें मध्यप्रदेश, पंजाब, गुजरात आदि प्रदेशों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए।
कश्मीर के कुछ ऐसे युवा कार्यकर्ता भी शामिल थे जिन्हें इस कानून के अंतर्गत उठा कर दो-तीन साल गिरफ्त में रखा गया था। स्वाभाविक है शर्मिला के अनशन की सहानुभूति लहर कश्मीर तक पहुंची है। वह यात्रा कानपुर भी आई थी, उसकी बैठक हरिहर शास्त्री भवन में हुई। उसकी अध्यक्षता का अवसर मुझे दिया गया। गुजरात भी एक खामोश दमन का शिकार बताया जाता है। यह अच्छा संकेत नहीं है।
अभी सुरक्षा बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की सुगबुगाहट भी नहीं है। ऐसा लगता है शर्मिला को अपने प्रण के अनुपालन में अपना अनशन पता नहीं कब तक जारी रखना पड़े। अगर ऐसा हुआ तो उनके जीवन के साथ उनका प्रेम भी बलि चढ़ जाएगा। गृहमंत्री का कहना है कि सरकार सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के मामले पर एकमत नहीं है। सेना को अगर इस मसले पर निर्णय लेना है, तो कोई भी अपने दमनात्मक अधिकारों को जल्दी छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता। खासतौर से जब कानूनन ये अधिकार प्राप्त हों। इन ग्यारह वर्षों के दौरान, जैसा कि पहले कहा गया, वे बहुत कमजोर हो गई हैं। स्नायु तंत्र भी प्रभावित हुआ है।
शर्मिला से कुछ मित्रों ने कहा कि सोनिया गांधी को सख्त शब्दों में पत्र लिखो, तो वे रोने लगीं, ‘मैं कुछ भी सख्त लिख कर किसी का दिल नहीं दुखाना चाहती। मैं जैसे जी रही हूं जी लूंगी।’ वे मन से पूरी तरह गांधीवादी हैं। मनसा वाचा कर्मणा वे अहिंसा में विश्वास करती हैं। ऐसी स्त्री को इस हालत में कैद में रखना और उसके सपनों को  शनै: शनै: तोड़ना कहां तक जायज है?
सरकार लोहे की जंजीर ही नहीं होती, उसका एक पक्ष संवेदनशीलता से भी जुड़ा होना चाहिए। जो सरकारें दमन के सहारे चलती हैं उनका हश्र स्टालिन, मुसोलिनी और कज्जाफी जैसे तानाशाहों की तरह होता है। इस तरह के कानून अनंतकाल तक नहीं बने रह सकते। जब बदलाव आता है तो बड़ी-बड़ी चट््टानें ढह जाती हैं। अनशन की परंपरा और अहिंसा की पुकार के चलते ही आखिरकार इस तरह के कानून रद्दी की टोकरी में फेंक दिए जाते हैं। कानून संवेदना-विहीन जरूर होते हैं, पर उन्हें इंसानों की बेहतरी के लिए इस्तेमाल किया जाए तो समाज को जोड़ने के काम आते हैं। सहनशीलता और मौन आखिरकार इंसानों के पक्षधर बन कर सामने आते हैं।
मुझे बार-बार म्यांमा की सू की की याद आती है। वे बिना उफ किए गांधी की तरह हर दमन को अपने हिस्से की रोटी समझ कर हजम करती रही हैं। मणिपुरवासी यह भारतीय वीरांगना किसी भी हाल उनसे कम नहीं। ग्यारह वर्ष तक भूखे रह कर जेल की यातना सहना और अपने व्यक्तिगत सुखों को बिसार कर अपनी सांसों को समाज के नाम मौरूसी कर देना, उन्हें और भी ऊपर उठा देता है। हम जिस दुनिया में रह रहे हैं उसमें इस तरह के बलिदानों का कोई मूल्य नहीं?

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/6129-2011-12-10-04-45-45


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