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न्यूज क्लिपिंग्स् | एक योजना का निराधार हो जाना-- हरजिंदर

एक योजना का निराधार हो जाना-- हरजिंदर

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published Published on Oct 9, 2015   modified Modified on Oct 9, 2015
यूनीक आइडेंटिटी नंबर यानी आधार की राह कभी आसान नहीं थी। खासतौर पर आम लोगों ने इसके लिए काफी पापड़ बेले हैं। पांच साल पहले, जब कार्ड बनाने की शुरुआत हुई थी, तो इसका फॉर्म लेने के लिए ही लंबी लाइनें लगती थीं।

फिर उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों का स्कैन दर्ज कराने के लिए हफ्तों बाद का समय मिलता था। इतने इंतजार के बाद नियत समय पर पहुंचने वालों को पता चलता था कि सारा काम समय से काफी पीछे चल रहा है और उन्हें अभी और इंतजार करना पड़ेगा। देश की तकरीबन 75 फीसदी आबादी के पास आधार कार्ड के लिए भटकने के ढेर सारे कड़वे और खट्टे-मीठे अनुभव हैं- कहीं विद्युत आपूर्ति रुकने की वजह से काम अटक गया, तो कहीं पर स्कैनर खराब हो गया, नया अब अगले सोमवार को ही आ पाएगा। इन सारी बाधाओं के बावजूद अगर 90 करोड़ से ज्यादा लोगों को आधार कार्ड मिल चुके हैं, तो यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।

यह संख्या यूरोप के 50 देशों की कुल आबादी से भी 18 फीसदी ज्यादा है। लेकिन इतनी बड़ी उपलब्धि अब अपना ज्यादातर महत्व खो चुकी है। यूनीक आइडेंटिटी नंबर की जो व्यवस्था पूरे देश की आबादी को एक बहुत बड़े सूचना तंत्र से जोड़ने की कल्पना के साथ रची गई थी, उसकी भूमिका अब किसी राशन कार्ड से ज्यादा नहीं रह गई। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद अब इसे सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली में मिलने वाले अनाज, रसोई गैस और केरोसीन के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकेगा। कहां तो योजना यह थी कि आधार कार्ड न सिर्फ प्रत्येक नागरिक की पहचान का सबसे बड़ा आधार बनेगा, बल्कि यह उसके बैंक खाते से भी जुड़ेगा और बहुत सारे भ्रष्टाचार पर लगाम लगा देगा। यह कहा जा रहा था कि इसके बाद सरकारी सब्सिडी ही नहीं, वृद्धा पेंशन तक सीधे लोगों के बैंक खाते में पहुंच जाया करेगी।

यह वादा भी था कि इससे कई तरह की धोखाधड़ी और घपलों पर भी रोक लग सकेगी। काले धन पर रोक के तर्क भी दिए जा रहे थे। शेयर बाजार में कारोबार के लिए इसे जरूरी बनाने पर भी विचार चल रहा था। सरकार के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का कहना था कि इसकी मूल परिकल्पना सुरक्षा जरूरतों के हिसाब से बनाई गई थी, बैंक खाते और आर्थिक लाभ जैसी चीजें इसमें बाद में जोड़ी गईं। लेकिन सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले के बाद फिलहाल इन सब वादों और इरादों का कोई अर्थ नहीं रहा। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले को एक सांविधानिक पीठ के हवाले करने की बात कही है, मगर अभी तो सारे भगीरथ प्रयत्न के बाद हमें जो जलधारा मिली है, उसे हम महानदी तो क्या नाला भी नहीं कह सकते।

आधार का पूरा मामला, दरअसल एक साथ हमारे तंत्र की खूबियों और खामियों को दिखाता है। खूबी इस मायने में कि हम इतनी बड़ी योजना न सिर्फ बना सकते हैं, बल्कि उसे काफी हद तक लागू भी कर सकते हैं। सवा अरब की आबादी वाले विशाल देश में अगर सरकार लोगों से संवाद कर ले, न केवल उन तक अपन संदेश पहुंचा दे, बल्कि उनकी भागीदारी भी सुनिश्चित कर दे, तो यह कोई छोटी बात नहीं है। वैसे इसका मजाक उड़ाते हुए यह भी कहा जाता है कि जब फायदा मिलने की बात आती है, तो लोग अपने आप उमड़ पड़ते हैं। लेकिन यह भी सच है कि भ्रष्टाचार की हाय-तौबा वाले देश में लोग अब भी पूरी तरह निराश नहीं हैं और यह मानते हैं कि सरकार उन तक योजनाओं का लाभ पहुंचा सकती है।

लेकिन आधार यह भी बताता है कि हमारा तंत्र बिना बहुत ज्यादा विचार किए किसी वृहद् योजना पर काम शुरू कर सकता है। नौकरशाही की सुविधा का पूरा ख्याल रखा जाता है, लेकिन जनता पर पड़ने वाले दूरगामी असर को नजरअंदाज कर दिया जाता है। सबसे पहले तो आधार की पूरी योजना ही एक सरकारी आदेश पर शुरू कर दी गई, इसके लिए कानूनी और सांविधानिक प्रावधान करने की जरूरत भी नहीं समझी गई। बाद में जो प्रावधान किए गए, वे भी आधे-अधूरे ही थे। इनमें भी इन आंकड़ों के दुरुपयोग को रोकने और लोगों की निजता के उल्लंघन से निपटने की कोई सोच नहीं थी। ढेर सारी आलोचनाएं हुईं, कई खतरे भी गिनाए गए।

2011 की शुरुआत में जब यूनीक आइडेंटिटी नंबर अथॉरिटी के अध्यक्ष भाषण देने के लिए बेंगलुरु की इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में गए, तो वहां इसके खतरों पर उनका ध्यान खींचने के लिए कुछ लोगों ने बैनर लगा रखे थे, जिन पर लिखा था- हैप्पी न्यू फियर। लेकिन सरकारें आलोचनाओं पर न ध्यान देती हैं, न कान। आधार की हर आलोचना को सरकार की नीयत पर संदेह की तरह देखा गया। सब ठीक है- सब ठीक है वाले अंदाज में इसे बढ़ाते रहने की कोशिशें जारी रहीं।

 

आधार का मामला यह भी बताता है कि जब सरकारों के सामने आलोचनाओं का जवाब देने की मजबूरी आ जाती है, तो वे अक्सर बेतुकी हो जाती हैं और कुतर्क करने लगती हैं। अभी कुछ महीने पहले ही जब आधार पर सुप्रीम कोर्ट में चर्चा चल रही थी, तो सरकार ने तर्क दिया था कि निजता का अधिकार लोगों का मूल अधिकार नहीं है। बेशक, भारतीय संविधान की किताबी व्याख्याओं से इस तर्क को सही ठहराया जा सकता हो, लेकिन 21वीं सदी के इस सूचना युग में अगर कोई सरकार यह कहती है कि निजता का अधिकार कोई बड़ी चीज नहीं है, तो सचमुच लोगों को आने वाले खतरों के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान एक और महत्वपूर्ण बात कही थी, 
अदालत का कहना था कि किसी नागरिक को सिर्फ इसलिए उसके अधिकर से वंचित नहीं किया जा सकता कि उसके पास आधार कार्ड नहीं है। इस बात को और आगे ले जाएं, तो कई और तरह के खतरे भी देखे जा सकते हैं। तब हो सकता है कि बहुत ज्यादा जोर दिए जाने के कारण आधार की सुविधा असुविधा में बदलती दिखाई दे। जैसे किसी को सिर्फ इसलिए नागरिक मानने से इनकार कर जेल में डाल दिया जाए कि उसके पास आधार नहीं है। हमने आधार कार्ड के लिए लंबा-चौड़ा तंत्र तो बना दिया, लेकिन अभी तक इसके उपयोग-दुरुपयोग के लिए कोई एथिक्स या आचार संहिता बनाने की जरूरत क्यों नहीं महसूस की?

 

सरकारी तंत्र की बेपरवाही के कारण आधार की योजना सुप्रीम कोर्ट पहंुचकर जनता के लिए निराधार हो गई। लेकिन अगर इसी रूप में यह सचमुच लागू हो जाती, तो हो सकता है कि जनता के लिए यह बंटाधार साबित होती। आधार के इस हश्र से क्या सरकार सचमुच कोई सबक लेगी? अभी तक के जो रिकॉर्ड हैं, उनसे तो कोई उम्मीद नहीं बनती।


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-The-unique-identity-numberthe-basethe-common-peopleform-498509.html


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