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न्यूज क्लिपिंग्स् | ऐसे संघर्ष का औचित्य क्या है- विनोद कुमार

ऐसे संघर्ष का औचित्य क्या है- विनोद कुमार

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published Published on Jun 17, 2013   modified Modified on Jun 17, 2013
जनसत्ता 15 जून, 2013: बूर्जुआ राजनीतिक दलों और पुलिस प्रशासन की नजर में उग्रवादी, आतंकवादी, नक्सली और माओवादी, सभी एक हैं। उनकी नजर में तो यथास्थितिवाद का विरोध करने वाला हर आदमी नक्सली है। लेकिन इन सब में फर्क है। सबों के राजनीतिक दर्शन और लक्ष्यों में अंतर है। मोटे रूप में कहा जाए तो देश में सक्रिय उग्रवादी और आतंकवादी संगठन देश का विखंडन चाहते हैं, अलग देश की मांग करते हैं। नक्सली संगठन के रूप में चिह्नित संगठन अलगावादी नहीं हैं। वे व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं। सामाजिक बदलाव चाहते हैं। हालांकि वे भी उग्रवादी तौर-तरीकों और आतंक का सहारा लेते हैं, लेकिन सीमावर्ती क्षेत्रों में सक्रिय उग्रवादियों और आतंकवादियों से वे भिन्न हैं। इसी तरह नक्सली संगठनों के काम करने का तरीका और उनका राजनीतिक दर्शन भी अलग है। और जब तक इस फर्क को हम नहीं समझ लेते, तब तक उनसे निबटना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल होगा।
सभी नक्सल संगठनों का मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी रही है जो सोवियत रूस की समाजवादी क्रांति से प्रेरणा ग्रहण करती और मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन को अपना आदर्श मानती है। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी की सातवीं कांग्रेस हुई जिसमें उसका विभाजन हो गया। बीटी रणदिवे, ज्योति बसु, नंबूदरीपाद सहित बत्तीस कामरेड भाकपा की राष्ट्रीय परिषद से बाहर हो गए। इन लोगों का आरोप था कि डांगे वर्ग-संघर्ष का रास्ता छोड़ वर्ग-सहयोग की बात करने लगे हैं। चुनाव की राजनीति में पूरी तरह संलग्न हो गए हैं। और इस तरह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनी। 25 मई, 1967 को पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग जिले के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में किसानों ने सामंती उत्पीड़न के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू किया। लेकिन केंद्र्र के निर्देश पर पश्चिम बंगाल की कांग्रेसी सरकार ने उस आंदोलन को बुरी तरह से कुचल दिया। इस सिलसिले में कांग्रेसी नेता सिद्धार्थ शंकर राय का नाम चर्चित हुआ।
बाद में माकपानीत सरकार ने भी नक्सलियों के विरद्ध कांग्रेसी नीति का ही अनुसरण किया। इससे विक्षुब्ध होकर माकपा के अनेक कामरेडों ने पार्टी से अलग होकर आॅल इंडिया कोआर्डीनेशन कमेटी आॅफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनिस्ट (एआइसीसीआर) बनाई, जिसके नेता कामरेड चारु मजूमदार थे। उस संगठन में सत्यनारायण सिंह, कानू सान्याल सहित पंजाब से लेकर पूर्वोत्तर भारत के अंतिम छोर तक अनेक नेता शामिल हुए। यह संगठन बाद में सीपीआइ (एमएल) में बदल गया। कालांतर में उसी से टूट कर सभी नक्सली गुट बने- सत्यनारायण सिंह गुट, संतोष राणा गुट, विनोद मिश्र गुट आदि।
लेकिन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर इस वंशवृक्ष की शाखा नहीं था। एआइसीसीआर के गठन के वक्त ही पश्चिम बंगाल के परिमल दासगुप्ता गुट और असित सेन गुट ने माओइस्ट कोआर्डीनेशन सेंटर का गठन किया जिसे एमसीसी के नाम से जाना गया। अन्य नक्सली ग्रुपों से शुरू से माओ के ‘थ्री वर्ल्ड थ्योरी', ‘इंडिवीजुअल टेररिज्म' और ‘इंडिवीजुअल एनहिलेशन', लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हिस्सेदारी, वर्ग संगठन आदि को इसके लेकर मतभेद रहे हैं। नक्सलबाड़ी आंदोलन के तुरंत बाद जब सीपीआइ (एमएल) का गठन हुआ तो इन सवालों पर उन दोनों के बीच का अंतर कम था। लेकिन अन्य नक्सली संगठनों का रुख इन मुद््दों पर धीरे-धीरे नरम पड़ता गया और वे एमसीसी से भिन्न होते गए।
वर्ष 1972 में चारुमजूमदार की मृत्यु के बाद उनके गुट के सीपीआइ (एमएल) का नेतृत्व शर्मा और माधव मुखर्जी ने संभाला। लेकिन वे पार्टी में बिखराव को रोक पाने में असमर्थ रहे और नक्सल आंदोलन से एक तरह से बाहर हो गए। और इस तरह से पश्चिम बंगाल का कोकन मजूमदार गुट, जम्मू कश्मीर का सरप गुट, पंजाब, केरल और तमिलनाडु के गुट स्वतंत्र रूप से काम करने लगे।
चारुमजुमदार का गुट पहले माधव और शर्मा गुट में बंटा और फिर माधव मुखर्जी गुट का एक हिस्सा विनोद मिश्र गुट में और दूसरा गुट इमरजेंसी के बाद निशीत गुट और अजीसुल हक ग्रुप में समाहित होकर पश्चिम बंगाल में संकेंद्रित हो गया। जबकि शर्मा गुट ने मुखर्जी गुट से अलग होने के बाद सुनीति घोष ग्रुप और आंध्र में सक्रिय गुटों से मिल कर सेंट्रल आर्गेनाइजेशन का गठन 1974 में किया। लेकिन 1975 में आंध्र के गुट उनसे फिर अलग हो गए।
इस तरह नक्सली संगठन 1974 आते-आते कई गुटों में बंट गया जिन्हें मुख्यत: दो बड़े खेमों में विभाजित किया जा सकता है। एक खेमा है चारुमजूमदार समर्थकों का, जिसमें शामिल थे विनोद मिश्र गुट, आंध्र प्रदेश में कोंडापल्ली सीतारमैया के नेतृत्व में गठित पीपुल्स वार ग्रुप, जो सीओसी से अलग होने के बाद बना था, सीआरसी बेनु गुट, आदि।
विरोधी खेमे में शामिल नक्सली गुट थे- पश्चिम बंगाल का शांतिपाल गुट, केरल का कुन्नीकल नारायण ग्रुप, राजस्थान और उत्तर प्रदेश का बीपी शर्मा गुट, आंध्र प्रदेश का चेलपती राव गुट, तमिलनाडु के छोटे-छोटे गुट, गदर पार्टी, रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी आदि।
इन तमाम गुटों में नीति और वर्चस्व के झगड़े होते रहे और दो मुख्य गुट चर्चा में बने रहे। एक, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर, और दूसरा, आंध्र का पीपुल्स वार ग्रुप। 1980 में पीपुल्स वार ग्रुप और तमिलनाडु के चारुमजूमदार समर्थक गुटों ने मिल कर सीपीआइ (एमएल)-पीपुल्स वार ग्रुप का गठन किया।

नक्सली संगठनों में विचारधारा के स्तर पर लगातार परिवर्तन होता रहा है। पहले वे भी माओ के तीन विश्व सिद्धांत (थ्री वर्ल्ड थ्योरी) के हिमायती थे, लेकिन बाद में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अगर माओ के इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया तो मार्क्सवाद के मूल सिद्धांत वर्ग-संघर्ष की अवधारणा ही खतरे में पड़ जाएगी। व्यक्तियों को आतंकित करने और व्यक्तियों के सफाए की रणनीति से भी उनका मोहभंग हो गया था। इसके अलावा जनता में अपना आधार व्यापक करने के लिए वे चुनाव में भाग भी लेने लगे। 1977 में सत्यनारायण सिंह और आंध्र के पुल्ला रेड््डी गुट ने मिल कर विधानसभा चुनाव में भाग लेने का निर्णय किया। विनोद मिश्र गुट ने चुनाव में भाग लेने के लिए आइपीएफ का गठन किया। जनसंगठनों और ट्रेड यूनियन के प्रति भी नक्सली गुटों का रवैया पहले की तुलना में नरम हो गया।
इस लिहाज से माओइस्ट कोआर्डिनेशन सेंटर अपने मूल सिद्धांतों पर अडिग रहा और उसमें विभाजन न के बराबर हुआ। कुछ कट््टर माओवादियों के अनुसार, नक्सलबाड़ी आंदोलन के काफी पहले से चीन की सशस्त्र क्रांति से प्रेरणा ग्रहण कर और माओत्से तुंग के राजनीतिक दर्शन से लैस होकर वे लोग काम कर रहे हैं। नक्सली संगठन जहां रणनीति के तहत ही सही, संसदवाद को स्वीकार करते हैं और चुनाव भी लड़ते रहे हैं, वहीं माओवादी संसदीय राजनीति का पूरी तरह से निषेध करते हैं और सशस्त्र क्रांति को ही व्यवस्था परिवर्तन का एकमात्र रास्ता मानते हैं। नक्सली संगठन एक रणनीति के तहत हिंसा का रास्ता स्वीकार करते हैं और आतंकवादी तौर-तरीकों से उन्हें परहेज है, जबकि एमसीसी की राजनीति का मूल तत्त्व ही हिंसा और आतंक है।
नक्सली संगठन भी हिंसा करते हैं और एक जमाने में ‘ऊपर से छह इंच छोटा करने' वाली पार्टी के रूप में उनकी पहचान थी, लेकिन माओवादी गुट जब हत्या करते हैं तो उसे क्रूरतम तरीके से अंजाम देते हैं। आधुनिकतम हथियार रहते हुए भी पहले कथित दुश्मन की पिटाई की जाती है, अंग भंग किया जाता है और फिर गला रेत कर उसकी हत्या की जाती है। उद््देश्य यह कि उस घटना को देख-सुन कर लोग दहशत से भर जाएं।
माओवादियों को इस बात की भी फिक्र नहीं रहती कि उनके बम विस्फोट या बारूदी सुरंगों में निर्दोष लोग मारे जा सकते हैं। 2006 में उन लोगों ने छत्तीसगढ़ में बारूदी सुरंग से आदिवासियों से भरे ट्रक को उड़ा दिया था, जिसमें पचास से ज्यादा आदिवासी मारे गए और दर्जनों जीवन भर के लिए अपाहिज हो गए।
माओवादी चीन के नेता माओ को अपना आदर्श मानते हैं और वनों से आच्छादित पहाड़ी क्षेत्र को अपनी शरणस्थली बना कर काम करते हैं, ताकि समतल क्षेत्र में अपने दुश्मन पर वार करने के बाद वे वापस अपनी शरणस्थली में छिप सकें और दुश्मन का देर तक गुरिल्ला तरीकों से मुकाबला कर सकें। पिछले तीन दशक में जहां नक्सली संगठन समाप्तप्राय हैं, वहीं अपनी इस विशेष रणनीति की वजह से वे अब तक बचे हुए हैं।
सबसे पहले झारखंड के पारसनाथ की पहाड़ी शृंखला को उन्होंने अपनी शरणस्थली बनाया जिसके प्रारंभ में कैमूर की पहाड़ियां हैं और अंतिम छोर पर टुंडी। इसलिए शुरुआती दौर में पलामू और चतरा में अपनी उपस्थिति दर्ज करने के बाद उन्होंने हजारीबाग, गिरिडीह, तोपचांची और टुंडी क्षेत्र में अपना जनाधार मजबूत किया। फिर गिरिडीह और बोकारो जिले के मिलनस्थल की झुमरा पहाड़ी को, जो पुनदाग के जंगलों से मिल कर झालदा, मुरी, रांची, हटिया होते हुए दक्षिण भारत की पहाड़ी शृंखला तक चली जाती है।
यानी जो देश का वनक्षेत्र है वही एमसीसी का प्रभाव क्षेत्र। शुरुआती दौर में आंध्र प्रदेश में सक्रिय पीपुल्स वार ग्रुप से कुछ वर्षों तक वर्चस्व के टकराव के बाद दोनों संगठनों में मेल-मिलाप हो चुका है। बाद के दिनों में बिहार में सक्रिय नक्सली संगठन सीपीआइ-एमएल (संतोष राणा गुट) का भी इसमें विलय हो गया। इस मेल-मिलाप के बाद ही बारूदी सुरंग बिछाने में उसने महारत हासिल की है। पिछले तीस वर्षों में झारखंड के अट्ठाईस में से चौबीस जिलों सहित समीपवर्ती ओड़िशा और छत्तीसगढ़ के वनों से आच्छादित इलाकों में इनका विस्तार हो गया है। हमारे देश का जो वनक्षेत्र है वही जनजातीय क्षेत्र भी। इसलिए इनका दावा है कि वे आदिवासियों के रहनुमा हैं। जबकि वस्तुगत स्थिति यह है कि इनके दस शीर्ष कामरेडों में सात आंध्र प्रदेश से आते हैं। इक्के -दुक्के बंगाल और हिंदी पट्टी के हैं।
लेकिन सवाल यह उठता है कि एक बड़ी ताकत बन जाने के बाद भी वे कर क्या रहे हैं? क्या इस ताकत का इस्तेमाल सिर्फ आतंकवादी कार्रवाइयों में होगा और आतंक के बलबूते ‘लेवी' की वसूली? जिस आंदोलन से भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता में संघर्ष का जज्बा पैदा न हो, व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में व्यापक जन गोलबंदी न हो, उस आंदोलन-संघर्ष का औचित्य क्या है?


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/46997-2013-06-15-06-00-36


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