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न्यूज क्लिपिंग्स् | औरतों की आजादी का कारवां-- शशिशेखर

औरतों की आजादी का कारवां-- शशिशेखर

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published Published on Sep 1, 2017   modified Modified on Sep 1, 2017

तीन तलाक को जो लोग महज मुस्लिम हक-हुकूक का मुद्दा बनाने पर आमादा हैं, उनसे अनुरोध है कि एक बार वे अपनी हिन्दुस्तानी परंपरा में झांक देखें, उनकी सारी शंकाओं का समाधान मिल जाएगा। जन-जागरण और बदलाव हमारे देश में रवायत रही है।

परिवर्तन की यह अनवरत कामना भले ही कभी-कदा अदालत अथवा हुकूमत के जरिए आकार लेती दिखाई पडे़, पर मूलत: भारतीय समाज आत्मालोचन के जरिए आगे बढ़ने का अभ्यस्त है। ईसाइयत और इस्लाम के जन्मने से बहुत पहले का एक उदाहरण विनम्रता सहित पेश है। ईसा से 321 साल पहले पाटलिपुत्र में सम्राट नंद को अपदस्थ कर एक अनाम कुल में जन्मे चंद्रगुप्त मौर्य का सत्तारोहण किसका कमाल था? सुदूर तक्षशिला से आए किसी चाणक्य का? ऐसा मान बैठना क्या निरी काव्यात्मक भावुकता नहीं होगी? राजसत्ताओं के पास ऐसे विप्लवों से निपटने का भरा-पूरा तंत्र होता है। फिर यह क्रांति कैसे सफल हो सकी? मतलब साफ है कि सम्राट जन-समर्थन पूरी तरह खो बैठे थे। भारत में जन-शक्ति के जरिए राजसत्ता में बदलाव के ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं।

 


अब सामाजिक परिवर्तनों की बात करते हैं। सती-प्रथा से चर्चा शुरू करते हैं। इस कुप्रथा के खात्मे के लिए सफल और संगठित अभियान के मुखर पुरोधा थे- राजा राम मोहन राय। वह कुलीन ब्राह्मण थे। उनकी पहल कभी सफल नहीं होती, अगर उन्हें ज्यादातर हिंदुओं का समर्थन नहीं हासिल होता। अंग्रेज हुक्मरां हमारे सामाजिक अंतरविरोधों को समझते थे। वे हर उस काम में रुचि रखते थे, जो भारतीयों को जाति, संप्रदाय अथवा क्षेत्रों में बांट सके। 1857 में चोट खाने के बाद महारानी विक्टोरिया के चाकरों ने यह कटु सबक ग्रहण किया था कि हिन्दुस्तानियों को एकजुट होने देना उनके लिए आत्मघात से बदतर है। इसके बावजूद उन्होंने सती-प्रथा पर कानून इसलिए बनाया, क्योंकि वे समझ गए थे कि आज नहीं तो कल, इस देश के बहुसंख्यक इसका बहिष्कार कर देंगे। 
सवाल उठता है, क्या कानून बनाने से समस्याओं का समाधान हो जाता है?

 

 


नहीं, दहेज-प्रथा इसका जीता-जागता उदाहरण है। इस पर कानून तो बहुत पहले बन गया था, मगर यह कुरीति आज तक जारी है। इस मुद्दे पर सार्थक लड़ाई संविधान के रखवाले नहीं, बल्कि आम महिलाएं लड़ रही हैं। आप अक्सर खबरें पढ़ते होंगे कि दहेज मांगने पर बहुत-सी बेटियों ने अपने परिवार के प्रतिरोध के बावजूद घर आई बारात लौटा दी। इधर कुछ महीनों में ऐसे समाचार भी देखने में आए कि तमाम कन्याओं ने उन घरों में शादी करने से इनकार कर दिया, जहां टॉयलेट नहीं थे। आप इसे हिन्दुस्तानी महिलाओं की सतत परिवर्तनकामना नहीं, तो और क्या मानेंगे?

 

 


एक साथ तीन तलाक पर अदालती फैसला आने के बाद जिस तरह मुस्लिम महिलाओं के बडे़ वर्ग ने सार्वजनिक तौर पर खुशी मनाई, वह इसी मानसिक बदलाव की प्रतीक है। इस दौरान ऐसे तमाम पुरुष भी सामने आए, जो इस प्रथा के खिलाफ थे। टेलीविजन पर तो मैं एक दुखी पिता का बयान देखकर काफी द्रवित हो गया था। उनकी पांच बेटियां हैं। दो तलाक के बाद घर बैठी हैं, बाकी तीन का विवाह इसलिए नहीं हो पा रहा, क्योंकि बड़ी बहनें तलाकशुदा हैं। बरसों से इस्मत चुगताई या परवीन शाकिर जैसी जागृत मुस्लिम महिलाएं लेखन के जरिए इसका विरोध करती रही हैं। जो लोग साहित्य को निरर्थक मानते हैं, वे जान लें कि आम आदमी साहित्य और साहित्यकारों का अनुसरण अवश्य करता है, बशर्ते वे उनकी आवाज बुलंद कर रहे हों। शायरा बानो इसका प्रतीक हैं। वह कोई आलिम-फाजिल नहीं, पर अपने हक-हुकूक के लिए देश की सर्वोच्च अदालत तक लड़ी और जीतीं। उनकी जंग से देश की करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को जो फायदा हुआ, वह अपने आप में बेमिसाल है।

 

 


कुछ कट्टरपंथी इसका विरोध कर रहे हैं। संविधान ने उन्हें पूरा हक दिया है कि वे समीक्षा याचिका दायर करें। अगर वह अस्वीकार हो जाती है, तब भी वे आला अदालत में उपचारात्मक याचिका दाखिल कर सकते हैं। मुझे नहीं मालूम कि अदालत इस पर क्या रुख अपनाएगी, मगर यह सच है कि परिवर्तन एक ऐसे सैलाब की तरह होते हैं, जो एक बार आकार लेने लगें, तो उन्हें थामना नामुमकिन हो जाता है।

 

 


कानपुर और पटना के मामले बतौर उदाहरण पेश हैं। अदालती फैसला आने के कुछ ही घंटे के भीतर कानपुर में सपा की एक पूर्व महिला विधायक समेत पांच लोगों के खिलाफ दहेज की मांग पूरी न हो पाने पर तलाक-तलाक-तलाक कहकर रुखसत कर देने का मुकदमा दर्ज हो गया। इसी तरह, पटना सिटी की अतिया फातिमा को उनके डॉक्टर पति ने 18 जून को फोन पर ही तलाक दे दिया था, उन्होंने भी पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। ध्यान रहे, ये दोनों मामले अनपढ़ों के नहीं हैं। एकबारगी तलाक देने की प्रथा का दुरुपयोग पढ़े अथवा अनपढ़ का मामला न होकर जेहनियत का मसला है।

 

 


समाज विज्ञानी मानते हैं, महिला-पुरुष का विवाह सिर्फ समझौता भर नहीं है। विवाह के पश्चात महिलाएं समाज को संतान देती हैं। आने वाली नस्लों को पालती-पोसती हैं। इंसानियत इसी प्रक्रिया के जरिए आगे बढ़ती आई है। ऐसे में, उन्हें फोन, खत, वाट्सएप अथवा संदेश के किसी और माध्यम का उपयोग कर महज तीन शब्दों के जरिए अपने हक से वंचित कैसे किया जा सकता है? शुक्र है, भारत के समझदार मुस्लिम इस सच से वाकिफ हैं। तभी पेशेवर हल्ला-गुल्ला ब्रिगेड की आवाज असरकारी नहीं हो पा रही। मुझे याद है, 1985 में शाहबानो मसले पर फैसले के बाद कैसी हाय-तौबा मची थी। तब से अब तक मुस्लिम मानस ने बेहतरी की अच्छी-खासी यात्रा तय की है। वे मुबारकबाद के हकदार हैं।

 

 


जो चंद लोग अदालती फैसले पर अशोभनीय टिप्पणियां कर रहे हैं, वे पाकिस्तान और बांग्लादेश पर नजर क्यों नहीं डालते? ये तो इस्लामी राष्ट्र हैं। पाकिस्तान ने तो 1961 में ही तीन तलाक को ‘तलाक' बोल दिया था। बांग्लादेश ने अपने उदय के बाद इसे अपनाया ही नहीं। जाहिर है, भारत में राजनीति जनित असुरक्षा बोध के जरिए तमाम ऐसी कुरीतियां अब तक पोसी गईं। धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों ने मलाई काटने के लिए उनका साथ दिया, मगर हिन्दुस्तानी महिलाओं ने अदालत से लड़ाई जीतकर उन्हें आईना दिखा दिया है। यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि एकबारगी तीन तलाक को रुखसत कर देने वाला पहला देश मिस्र था। 1929 में ही वहां कुछ संशोधनों के साथ इसे ‘बाय-बाय' बोल दिया गया था। जिन 22 देशों में इस पर मुमानियत लागू है, उनमें तुर्की, ईरान, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया जैसे मुस्लिम बहुल देश शामिल हैं। हमारे यहां देर से सही, पर सटीक फैसला हुआ।

 

शायरा, अतिया, वर्तिका कुंडू, गुरमेहर कौर और उन जैसी परिवर्तनकामी महिलाओं को मेरा सलाम। उनका कारवां अब रुकने वाला नहीं।


http://www.livehindustan.com/blog/editorial-news/story-shashi-shekhar-blog-on-triple-talaq-1379294.html


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