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न्यूज क्लिपिंग्स् | कठमुल्ली सोच को तलाक दो!

कठमुल्ली सोच को तलाक दो!

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published Published on Oct 17, 2016   modified Modified on Oct 17, 2016
मानो देश में बहस व विवादों की कमी थी कि ‘तीन तलाक' की अमानवीय प्रथा को लेकर लोग मैदान में उतर अाये हैं! अॉल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड तथा अन्य मुसलिम संगठन व मुल्ला-मौलवी हर तरफ चीख-चिल्ला रहे हैं कि ‘तीन तलाक' शरिया कानून का हिस्सा है अौर हम इससे किसी को खेलने की इजाजत नहीं दे सकते! सब ऐसे बात कर रहे हैं, मानो देश में न कोई सरकार है, न कानून, न अदालत अौर न समाज! जो कुछ भी है, वह मुसलमान होने का दावा करनेवाले मुट्ठी भर मौलवी-मौलाना हैं, जो यह तय करेंगे कि इस मुल्क में क्या होगा, क्या नहीं होगा!

‘तीन तलाक' के बारे में सरकार ने अदालत में अपनी राय रखी है, तो कुछ भी असंगत नहीं किया है. लेकिन, जब अाप यह कहते हुए सड़कों पर उतरते हैं कि राम जन्मभूमि हमारी अास्था का मामला है अौर इसमें किसी अदालत को बोलने का अधिकार नहीं है, तो मुल्ला-मौलवियों को अाप कुछ कहने से कैसे रोकेंगे? लोकतंत्र में हर सवाल पर बात हो सकती है अौर किसी भी विवाद में सरकार या अदालत हस्तक्षेप कर सकती है. हां, इनमें से कोई भी गलत हस्तक्षेप करेगा, तो संविधान ही हमें यह अधिकार देता है कि हम उसके खिलाफ अदालत में या संसद में जा सकते हैं.

अॉल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मूर्खतापूर्ण बात की है कि तीन तलाक पर जनमत संग्रह करवाया जाये! वे चुनौती दे रहे हैं कि 90 फीसदी महिलाएं शरिया कानून के पक्ष में होंगी! हो सकती हैं, लेकिन इससे तीन तलाक सही कैसे साबित होता है? क्या बोर्ड वालों को इस बात का इल्म है कि अगर इस सवाल पर जनमत संग्रह हो कि मुसलमानों को हिंदुस्तान में रहने देना चाहिए या नहीं, तो कौन कहां खड़ा होगा?
जाति, छुअाछूत, अॉनर किलिंग जैसी सामाजिक कुरीतियों पर अगर जनमत संग्रह करवाया जाये, तो देश का अाईन बदलना पड़ेगा! रूहानी अौर जेहनी तौर पर उलझे हुए समाजों का मन बहुत धीरे-धीरे बदलता है, बड़ी मुश्किल से नयी बातों के लिए वह तैयार होता है. उसे लगातार प्रगतिशील कानूनों की मदद देनी पड़ती है. समाज पर नैतिक असर रखनेवालों को बार-बार रास्ता बताना पड़ता है, जनमत बनाने की मुहिम चलानी पड़ती है.

तलाक एक जरूरी सामाजिक व्यवस्था है. स्त्री-पुरुष के बीच के संबंध जब अर्थहीन हो जायें अौर हिंसा का शिकार बनाने तक पहुंचें, इससे पहले ही वैसे संबंध से मुक्ति, मनुष्यता के विकास में अगला कदम है. यह अाधुनिक समझ है, जो यह मानती है कि स्त्री अौर पुरुष दोनों ही एक-सी संवेदना से जीनेवाले अौर एक-दूसरे की बेपनाह जरूरत महसूस करनेवाले प्राणी हैं, लेकिन उनका साथ अाना हर बार श्रेयस्कर नहीं होता है, नहीं हो सकता है.

इसलिए विफल साथ से निकल कर, जिंदगी के नये मुकाम खोजने की सहज अाजादी मनुष्य को होनी ही चाहिए. लेकिन, वह व्यवस्था ऐसी नहीं बनायी जा सकती, जिसका पलड़ा किसी एक के पक्ष में इतना झुका रहे कि वह उसे दमन के हथियार के रूप में इस्तेमाल करे. इसलिए जरूरी है कि तलाक के लिए पारिवारिक स्वीकृति हो, अगर बच्चे हैं, तो उनके भावी की फिक्र हो, रिश्ते टूटने को सामाजिक मान्यता हो, एक अवधि विशेष तक दोनों को अपने संबंधों पर पुनर्विचार की बाध्यता हो, फिर अदालत में विचार हो अौर फिर वे तलाक तक पहुंचें. निजी धािर्मक मान्यता नहीं, राष्ट्रीय सवाल की तरह इसे देखें हम. अपने हर नागरिक के स्वाभिमान की रक्षा में राज्य या अदालत को सामने अाना ही चाहिए. ऐसे मामले में हम किसी धार्मिक कानून को नहीं, संविधान को ही देखेंगे.

तीन तलाक की व्यवस्था अाज के भारतीय समाज के साथ कदमताल नहीं कर सकती है, जैसे सैकड़ों शादियां करनेवाला राजवंश अाज के समाज में जी नहीं सकता. जागरूक मुसलिम महिलाएं इसका मुखर विरोध करती हैं. क्या उनसे हम कहना चाहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र के पास उनके लिए कोई जगह नहीं है?

ऐसा जवाब देनेवाला संविधान, ऐसा जवाब देनेवाली सरकार अौर ऐसा जवाब स्वीकार करनेवाला समाज एक साथ ही पतन की राह जायेंगे. इसका एक ही जवाब है, अौर हो सकता है, कि संविधान, सरकार अौर समाज कहे कि हमारे धार्मिक विश्वास, हमारे सामाजिक रीति-रिवाज चाहे जितने अलग हों, जब सवाल नागरिक की हैसियत का उठेगा, तब न कोई धर्म, न कोई जाति, न कोई संप्रदाय अौर न लिंग का भेद होगा. नागरिकता के संदर्भ में सारे देश में सबको शरीक करनेवाला एक ही संविधान चलेगा.

​केंद्र सरकार को सबका भरोसा जीतना होगा, सामाजिक परिवर्तन के हर सवाल पर वातावरण बनाने की पुरजोर कोशिश करनी होगी. ऐसा वातावरण नहीं बनेगा, तो अापका बनाया कोई भी कानून नहीं चल पायेगा.

दूसरी ओर, मुसलिम समाज के रहनुमाअों के अागे अाने की यह एक अच्छी घड़ी है. उन्हें यह कहना ही होगा कि तलाक दो, अभी दो; अौर तीन नहीं, एक ही दो : हर कठमुल्ली सोच को तलाक दो!

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/877762.html


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