Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | कठोरतम कानून न्याय का पर्याय नहीं--- निशा नाग

कठोरतम कानून न्याय का पर्याय नहीं--- निशा नाग

Share this article Share this article
published Published on May 1, 2018   modified Modified on May 1, 2018
कठुआ और उन्नाव की बलात्कार की घटनाओं को लेकर फैले जन-आक्रोश के बीच ऐसे मामलों में फांसी की सजा दिए जाने की मांग को एक लोकप्रिय मांग बना दिया गया। इस दबाव का नतीजा यह हुआ कि बारह वर्ष से कम उम्र के बच्चियों के साथ बलात्कार पर फांसी के प्रावधान वाला अध्यादेश केंद्र सरकार ने जारी कर दिया। यह अध्यादेश राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद लागू हो चुका है। दुर्भाग्यवश, बलात्कार पर कठोर से कठोर कानून बनाने के शोर-शराबे ने महिला आंदोलन की ठोस समझदारी को दरकिनार किया है जो महिलाओं और बच्चों पर बढ़ती यौनहिंसा को रोकने में व्यवस्थागत विफलता को एक बड़ा कारण मानती है। कड़वे अनुभवों के आधार पर महिला आंदोलन का मानना रहा है कि बलात्कार के लिए मृत्युदंड का प्रावधान बलात्कार पीड़िताओं के लिए सबसे ज्यादा नुकसानदेह।इस बेहद चिंताजनक विषय पर दूरदृष्टि दिखाते हुए, महिला आंदोलन ने इस बात पर जोर दिया है कि बलात्कार पीड़िता का जीवित रहना इसलिए भी अत्यंत जरूरी है, ताकि वह अपराधी को सजा दिला सके। आज जब ज्यादातर घटनाओं में बलात्कारियों द्वारा पीड़ितों की हत्या की जा रही है, तब कठोरतम कानून बलात्कार रोकने का काम नहीं बल्कि बलात्कारियों को पीड़ितों को जान से मार देने के लिए भड़काने का ही काम करेंगे। वास्तव में यह धारणा कि कठोरतम कानून पर्याप्त रूप से अपराध को रोकने का काम करेगा, अत्यंत विवादित है, क्योंकि आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013- जिसमें पीड़ित की बलात्कार के बाद हत्या करने या उसे मानसिक रूप से मृत स्थिति में डाल देने पर उम्रकैद और मृत्युदंड का प्रावधान है- के लागू होने के बावजूद भारत में बर्बर बलात्कार के मामलों में वृद्धि ही हुई है। इसी तरह से, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2016 की रिपोर्ट में यह साफ चिह्नित किया गया है कि हत्या के मामलों में मृत्युदंड दिए जाने के बाद भी हत्या जैसे अपराधों में कमी नहीं आई है।


विश्वभर में महिला आंदोलन ने हमेशा यौन-हिंसा के बिना सोचे-समझे, लोकलुभावन ‘समाधानों' की आलोचना की है, जो ‘समाधान' पितृसत्तात्मक तरीके से हमले के यौनिक पहलू पर अत्यधिक बल देते हैं और बलात्कार के साथ जुड़ी कलंक की धारणा को मजबूत करते हैं। सामान्यत: बलात्कार के लिए मृत्युदंड की मांग में पितृसत्तात्मक नजरिया अंतर्निहित होता है जो हमले को उसकी अनैतिकता के अनुसार आंकता है। अनैतिकता की यह अवधारणा बलात्कार को मृत्यु के समान मानती है, जिसके अनुसार बलात्कार एक प्रकार से आत्मा की हत्या है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि पीड़िता का शरीर तो स्वस्थ हो सकता है लेकिन उसका मन-मस्तिष्क और उसका भविष्य नहीं। परिणामस्वरूप, लोकलुभावन प्रतिक्रियावादी ‘समाधान' बलात्कार पीड़ित के अस्तित्व और उसके पुनर्वास संबंधी जरूरी प्रश्नों का सामना नहीं करते, और साथ ही, वे बलात्कार पीड़ितों को न्याय न मिलने में राजकीय संस्थानों की संलिप्तता के प्रश्न को भी नजरअंदाज करते हैं। बलात्कार के लिए मृत्युदंड की मांग की यह आलोचना- पुलिस की घटिया जांच-पड़ताल, दोषसिद्धि की कम दर, न्यायपालिका के भीतर कड़े दंड को लेकर हिचकिचाहट और बलात्कार-विरोधी कठोरतम कानून से पीड़ितों की हत्या में बढ़ोतरी होने- के ठोस मूल्यांकन से उत्पन्न होती है।

भारत में बच्चों से बलात्कार और महिलाओं पर यौन हमलों में भयंकर बढ़ोतरी हुई है। यह एक व्यवस्थागत विफलता है, जिस पर चिंता करना ज्यादा जरूरी है। यह सर्वविदित तथ्य है कि लचर पुलिस कार्रवाई के कारण न्यायिक प्रणाली शुरुआत से ही ठीक तरीके से काम नहीं कर पाती है। पुलिस द्वारा लापता-रिपोर्ट लिखने और यौन-पीड़ितों की लिखित शिकायतों को दर्ज करने में अनुचित देरी एक गहरी समस्या है। अधिकतर इस तरह की उदासीनता वर्ग, जाति, धर्म और लिंग संबंधी भेदभावों से जुड़ी होती है। यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि पुलिस जांच में देरी पक्षपातपूर्ण होती है और न्याय में अवरोध पैदा करती है, क्योंकि जांच में देरी अपराधियों को निर्णायक सबूत नष्ट करने और गवाह को प्रभावित करके, या कभी खुद पीड़ित को प्रभावित करके अपने अपराध को छुपाने में मदद करती है। वास्तव में, बलात्कार के मुकदमों में गवाहों का पुलिस जांच या न्यायिक प्रक्रिया के दौरान पलट जाना बहुत आम है, जिसका सीधा कारण गवाह-सुरक्षा संबंधी प्रावधानों का पूर्णत: अभाव है। बलात्कार पीड़ितों का पुलिस थाने और अस्पताल में चिकित्सीय जांच के दौरान उत्पीड़न होता है। यह एक बेहद प्रासंगिक मुद््दा है जिसकी लगातार अनदेखी की जाती है। हमें इस तरह के उत्पीड़न का तभी पता चलता है जब कोई असाधारण घटना घटती है। जैसे, इस वर्ष मार्च महीने में जब एक बलात्कार की शिकार और खून से लथपथ छोटी बच्ची को इलाज के लिए गुरुग्राम के सिविल अस्पताल में घंटों इंतजार करना पड़ा। इसी तरह पुलिस की असंवेदनशील जांच-विधि, आरोपपत्र दाखिल करने में देरी, फोरेंसिक रिपोर्ट में देरी, पीड़ितों को दिखावे-मात्र की काउंसलिंग, बलात्कार पीड़ितों को मुआवजे का अपर्याप्त भुगतान, पीड़िता और उसके गवाहों से बचाव पक्ष द्वारा आक्रामक जिरह करना, गवाहों को पर्याप्त सुरक्षा न देना और न्यायालय की जटिल व लंबी प्रक्रिया, इन सब कारणों ने लगातार बलात्कार पीड़िताओं को असहाय बनाया है। अगर दिन-प्रतिदिन न्याय के लिए संघर्ष ही अपने आप में एक बहुत कठिन और असहाय करने वाली प्रक्रिया है तो कितना भी कठोर दंडात्मक प्रावधान बलात्कार-पीड़िताओं को, विशेष रूप से उन बच्चियों को जो अपनी पीड़ा को समझ पाने में असमर्थ हैं, जीवन में आगे बढ़ने में मदद नहीं कर सकता।

सजा की कठोरता या परिमाण के बजाय हमें बलात्कार के मामलों में दोषसिद्धि की अत्यंत कम दर के मुद्दे को सबसे प्रमुखता से रखना होगा। एनसीआरबी की रिपोर्ट से यह साफ जाहिर होता है कि 2007 से 2016 के बीच बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। यह रिपोर्ट महिला-विरोधी अपराधों खासकर बलात्कार के मामलों में दोषसिद्धि की अत्यंत कम दर को भी रेखांकित करती है। 2016 तक दोषसिद्धि की दर केवल 18.9 फीसद थी। भारत में बलात्कार के मामलों में खराब दोषसिद्धि दर राजकीय संस्थाओं की मिलीभगत का नतीजा है, और यही मिलीभगत बलात्कारी की मदद करती है और बेखौफ यौन-अपराधों को अंजाम देने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देती है। इस सच्चाई को एनसीआरबी के आंकड़ों में बखूबी दर्शाया गया है जो यौन-अपराधियों के बार-बार अपराध करने की ऊंची दर को चिह्नित करते हैं। यह जरूरी है कि पुलिस और न्यायिक संस्थाओं में सुधार कर दोषसिद्धि दर में बढ़ोतरी की जाए, और बलात्कार पीड़ितों के पुनर्वास तथा उन्हें सशक्तबनाने के बेहतर तरीके अपनाएं जाएं।

जमीनी स्तर पर सुधार के लिए, हमें राज्य के द्वारा संसाधनों के और भी आबंटन की आवश्यकता होगी, जिससे अधिक संख्या में फास्ट-ट्रैक कोर्ट और निर्भया सेंटर (वन-स्टॉप क्राइसिस सेंटर) बनाए जा सकें, गवाहों को पर्याप्त सुरक्षा दी जा सके, बलात्कार पीड़ितों को ज्यादा मुआवजा दिया जा सके और मौजूदा शिशु सुरक्षा सेवाओं को दुरुस्त किया जा सके। जब तक इन मसलों को हल नहीं किया जाता, तब तक बलात्कार पीड़ितों को राहत मिलना संभव नहीं है। हमें राज्यतंत्र को बलात्कार के लिए मृत्युदंड जैसे सरलीकृत और नुकसानदेहकदम उठाने से रोकना होगा। एक लोकलुभावन दिखती मांग की आड़ में वे खुद की जवाबदेही और न्यायिक प्रणाली में मौजूद कमियों को बनाए रखने के आरोप से बच नहीं सकते। राज्य को महिला सुरक्षा के लिए सही मायने में जिम्मेदार बनाने के लिए जरूरी है कि विमर्श को कठोरतम कानून की जरूरत से हटा कर, बलात्कार के मामलों में दोषसिद्धि की दर और पीड़ितों के पुनर्वास आदि मुद्दों पर लाया जाए।


https://www.jansatta.com/politics/jansatta-column-politics-opinion-artical-hardest-law-is-not-synonymous-with-justice/645177/


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close