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न्यूज क्लिपिंग्स् | कन्हैया नहीं, जॉब की कमी खतरा-- गुरुचरण दास

कन्हैया नहीं, जॉब की कमी खतरा-- गुरुचरण दास

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published Published on Apr 8, 2016   modified Modified on Apr 8, 2016
भारतीय राजनीतिक जीवन अजीब और विडंबनाअों से भरा है। छात्र नेता कन्हैया कुमार को राजद्रोह और राष्ट्र-विरोधी आचरण के आरोप में गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी ने उन्हें हीरो बना दिया। इसे असहमति व्यक्त करने की स्वतंत्रता का प्रतीक माना गया। गृह मंत्री ने गिरफ्तारी का यह गलत तर्क देकर बचाव किया कि असाधारण लोकतांत्रिक देश अमेरिका भी राष्ट्र विरोध को सहन नहीं करता। गिरफ्तारी पर लगातार विरोध ने मीडिया का ध्यान सरकार के शानदार बजट से हटा लिया। एक अद्‌भुत भाषण में ‘स्वतंत्रता के प्रतीक' ने अपना असली रंग दिखाया और एक ऐसी यथास्थितिवादी विचारधारा की तारीफ की, जिसमें आर्थिक स्वतंत्रता की गुंजाइश नहीं है और जिसने 20वीं सदी में असहमति प्रकट करने पर लाखों लोगों की हत्या की है।

बड़ी संख्या में महत्वाकांक्षी भारतीयों के बीच भाजपा का विस्तार वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। ये वे भारतीय हैं, जो कांग्रेस के भ्रष्ट तरीकों और खैरात बांटने की नीतियों से ऊब गए थे, जिनके कारण देश गरीब ही बना हुआ है। मैं भी उन्हीं में से एक था। मैंने कभी भाजपा को वोट नहीं दिया, लेकिन मैं नौकरियों, आर्थिक तरक्की और विकास की मोदी की बातों से अभिभूत था। मोदी के 2014 के आम चुनाव में दिए भाषणों के कंप्यूटर विश्लेषण से पता चला कि उन्होंने एक बार हिंदुत्व का नाम लिया तो 500 बार विकास का उल्लेख किया। इसी वजह से लाखों महत्वाकांक्षी युवाओं ने उन्हें वोट दिए। इस तरह मोदी ने आर्थिक व सांस्कृतिक दक्षिण पंथ वाली विशुद्ध कंज़र्वेटिव पार्टी तैयार की। यह अमेरिका की रिपब्लिकन और ब्रिटेन की टोरी पार्टी से मिलती है।

किंतु भाजपा की नई अार्थिक शाखा का हिस्सा बनने वाले मेरे जैसे लोगों के मन में सांस्कृतिक दक्षिणपंथ और हिंदुत्व की विचारधारा के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। हमने इस उम्मीद में सोचा-समझा जोखिम लिया कि गुजरात की तरह यहां भी मोदी आरएसएस और पार्टी की सांस्कृतिक शाखा को काबू कर पाएंगे। यदि वे यह कर सकें तो वे दक्षिणपंथ की ओर झुकाव वाले रोनाल्ड रेगन और मार्गरेट थैचर जैसे सफल नेता हो जाएंगे। ये दोनों नेता पार्टी के सांस्कृतिक अतिवादियों को काबू में रखते हुए पार्टी की दो शाखाओं में संतुलन कायम रख पाए थे। मोदी ऐसा करने में नाकाम रहे। फरवरी अंत में सरकार ने एक दूरदर्शी, नौकरियां पैदा करने वाला बजट पेश किया, जो उचित ही ग्रामीण भारत के लिए नई पेशकश लेकर आया है। मैं बहुत खुश हुआ। गांवों में महिलाओं को रसोई गैस देकर उन्हें धुएं वाले चूल्हे से मुक्ति के मिशन की घोषणा खासतौर पर प्रेरित करने वाली थी। इससे एक झटके में ही प्रदूषण के उस घातक स्वरूप को हटाने की संभावना पैदा हुई, जो भारतीय महिलाओं की जिंदगी के लिए अभिशाप की तरह है। इसने देश को संदेश दिया कि ग्रामीण भारत भी शहरी भारत जैसी जीवनशैली की कामना कर सकता है।

आधार को संवैधानिकता देना इस बजट का दूसरा मूल्यवान तथ्य था। इससे मोबाइल बैंकिंग के जरिये गरीब लोगों के खातों में पैसा जमा करने का रास्ता साफ हुआ (इनमें वे महिलाएं भी शामिल हैं, जो अब धुएं वाले चूल्हे से मुक्ति पाकर रसोई गैस का इस्तेमाल करेंगी)। यह अद्‌भुत तथ्य है कि 98 करोड़ भारतीयों के पास पहले ही आधार नंबर है। यह लगभग मोबाइल धारी भारतीयों जितना ही आंकड़ा है और 22 करोड़ भारतीयों के अब बैंक खाते हो गए हैं। राष्ट्रीय पहचान कार्यक्रम में निजता को लेकर हमेशा ही कुछ चिंताएं रहेंगी, लेकिन मुझे लगता है कि आधार बिल में इन आशंकाओं पर ध्यान दिया गया है। सब्सिडी को उपभोक्ता के खाते में पहुंचाने और आधार से गरीबों को मिलने वाले फायदे, निजता की संभावित जोखिम पर कहीं ज्यादा भारी पड़ते हैं। आधार बिल अत्यधिक रूपांतरकारी है, लेकिन मीडिया ने अपने नए गढ़े हीरो को प्राथमिकता दी, जो 15 मिनट की प्रसिद्धि का एक और उदाहरण है। जेटली के बजट में कई अन्य मूल्यवान बातें थीं, लेकिन कन्हैया की ओर से हो रहे विरोध के आगे उन्हें भुला दिया गया। इस बीच, कोई एक बात महत्वाकांक्षी भारतीयों के लिए अर्थ रखती है तो वह है जॉब और अब तक तो मोदी यह वादा निभाने में विफल रहे हैं। अर्थव्यवस्था की हालत अब भी खस्ता है और मोदी ने फर्जी तथा ‘बनावटी काम' वाले कार्यक्रम मनरेगा को भी खत्म नहीं किया है। राजद्रोह वाला विवाद इस तथ्य का ताजा उदाहरण है कि भाजपा की सांस्कृतिक इकाई और विध्वंसक विपक्ष किस तरह भारतीय युवाअों के सपने बर्बाद कर रहे हैं। मोदी बीच में असहाय खड़े हैं। वे वैसे निर्णायक नेता की भूमिका नहीं निभा रहे हैं, जैसी उनसे उम्मीद थी।

राजद्रोह के विवाद के साथ अमेरिका से तुलना भी टालनी थी। वहां राष्ट्र-विरोधी प्रदर्शन व राष्ट्रध्वज जलाने की घटनाएं असामान्य नहीं हैं। 1977 में अमेरिका की नाज़ी पार्टी ने इलिनॉय प्रांत के स्कोकी में हिटलर का जन्मदिन मनाकर स्वास्तिक के साथ प्रदर्शन मार्च निकालने का निर्णय लिया। वहां भारी संख्या में हिटलर के अत्याचार भुगतने वाले यहूदी रहते थे, जो इस दलील के साथ अदालत में गए कि इससे उनकी भावनाओं को जान-बूझकर चोट पहुंचाई जा रही है और यह राष्ट्र विरोधी भी है, क्योंकि नाज़ियों ने अमेरिका के खिलाफ द्वितीय विश्वयुद्ध लड़ा, इसलिए वे शत्रु हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व नाज़ियों के पक्ष में फैसला देते हुए कहा कि आहत होने से बचने के लिए यहूदी अपनी खिड़कियां बंद कर लें। अमेरिका में स्वतंत्रता का अर्थ जानने के लिए हर भारतीय को ‘स्कोकी' फिल्म देखनी चाहिए। आज भारत में बेरोजगारी से बड़ी कोई समस्या नहीं है। इससे बेहतर जीवन की हसरत रखने वाले युवाओं में हताशा पैदा होती है। 1991 में लाइसेंस राज के खात्मे के बाद आए आर्थिक उछाल के साक्षी जानते हैं कि तब कैसा उत्साह महसूस होता था। आज वह उत्साह नदारद है। इससे वामपंथियों में जोश पैदा हुआ है, जो लंबे समय से गायब था। गृह मंत्रालय ने छात्र नेता पर राजद्रोह का मुकदमा कायम कर गलती की। उसने कन्हैया को शहीद का दर्जा दे दिया। यदि अर्थव्यवस्था में उछाल नहीं आता तो पूरी संभावना है कि यह बेचैनी अन्य शिक्षा परिसरों में भी फैलेगी।

 

कन्हैया भारत के लिए खतरा नहीं है। असली खतरा तो नौकरियां पैदा करने में नाकामी से है। मोदी को अपनी पार्टी के महत्वाकांक्षी आर्थिक दक्षिणपंथियों में भरोसा कायम करना होगा। वे याद रखें कि हिंदुत्व के शुद्ध संदेश से उन्हें लोकसभा में 282 सीटें नहीं मिलतीं। उन्हें सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों को काबू में रख, अपने शानदार बजट के पालन पर पूरा ध्यान केंद्रित कर नौकरियां पैदा करने का अपना वादा पूरा करना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

 


http://www.bhaskar.com/news/ABH-gurucharan-das-column-5293737-NOR.html


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