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न्यूज क्लिपिंग्स् | कभी अबरख से चमकता था, अब ढीबरा तले दबा कोडरमा-- जीवेश

कभी अबरख से चमकता था, अब ढीबरा तले दबा कोडरमा-- जीवेश

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published Published on Jul 10, 2016   modified Modified on Jul 10, 2016
कोडरमा शहर व मुख्य पथ से महज छह किलोमीटर हट कर है छतरबर का इलाका. इस घनी बस्ती से सट कर शुरू होता है जंगली क्षेत्र. झाड़ियोंवाले इस जंगल में थोड़ी दूर जाने पर ही सड़क के किनारे सुरंगें दिखनी शुरू हो जाती हैं. इन सुरंगों से जमीन के अंदर घुस ढीबरा (अबरख का स्क्रैप) चुनते हैं गांववाले.

झाड़ियों के बीच स्थित पगडंडी पर तीर का लाल (रात में रास्ता भटक न जायें, इसलिए खनन करनेवाले निशान लगाते हैं) निशान देख आगे बढ़ने पर कुछ दूरी पर दिखती है अवैध खदान. दलदली और खतरनाक इस खदान से जान जोखिम में डाल अबरख व ढीबरा निकाला जाता है.

साथी बताते हैं कि कुछ दिन पहले इसी खदान में दब कर दो लोगों की मौत हो गयी थी. घटना के बाद कुछ दिनों तक संबंधित विभाग व पुलिस की आवाजाही थी, तो खनन कार्य बंद था, अब फिर आबाद हो गया है. कुछ यही स्थिति है जंगली इलाके की. अवैध खनन पर वर्चस्व की लड़ाई को लेकर खूनी संघर्ष भी हुआ है. दो माह पूर्व भी कोडरमा से सटे मानेखाप में दो दलों के बीच गोलीबारी हुई थी. हंगामा भी हुआ, फिर बात आयी गयी हो गयी. जानकार बताते हैं कि पुलिस-प्रशासन, वन विभाग व खनन विभाग के लोग नक्सली इलाका होने के नाम पर जंगल में जाते नहीं और शहरी इलाके में सब कुछ मैनेज होने के कारण कुछ करते नहीं.

कभी कुछ किया भी, तो ग्रामीण या मजदूर पकड़े जाते हैं, मुख्य आरोपी का नाम तक नहीं आता. वन विभाग ने 2015 में अवैध उत्खनन और बेचने को लेकर 32 लोगों पर 15 केस किये. इनमें आठ लोगों को गिरफ्तार किया गया, 16 गाड़ियां पकड़ी गयी.
कोई ठोस कार्रवाई नहीं होने के कारण ही जिले में खनन कार्य का लाइसेंस सिर्फ एक व्यक्ति के पास होने के बाद भी कोडरमा व बॉर्डर के प्रभावित इलाकों में 100 से ज्यादा अवैध खदानें हैं.

दुर्घटना की आशंका के बाद भी रोज हजारों लोग (बिहार, कोडरमा व गिरिडीह जिले के) इस काम में लगे रहते हैं. सिर्फ पिछले छह माह का आंकड़ा देखें, तो लगभग दर्जन भर लोग इन खदानों में दब कर मरे हैं. बावजूद इसके इनसे रोज 20 से 30 ट्रक (शक्तिमान) से लाखों रुपये का ढीबरा व अबरख, जिसमें सबसे कीमती रूबी अबरख भी शामिल है, निकाला जा रहा. वहीं दूसरी ओर झारखंड खनिज विकास निगम की कोडरमा इकाई के नौ कर्मी व 18 मजदूर पिछले 13 साल से बिना किसी काम के प्रतिमाह तीन लाख रुपये दरमाहा (अन्य सुविधाएं इसमें शामिल नहीं) के रूप में ले रहे हैं.

सनद रहे वन संरक्षण अधिनियम 1980 व इलाके के वन्य प्राणी आश्रयणी क्षेत्र घोषित होने के बाद 2003 तक यहां की सभी सरकारी व गैर सरकारी अबरख खदानें बंद हो गयीं. इनके बंद होने के बाद कमोबेश सभी खदानों में भारी मात्रा में अबरख बचा रहा. कई में करोड़ों की मशीनें भी पड़ी हुई हैं. ऐसे खदानों को ही अवैध धंधेबाजों ने निशाना बनाया. बिहार की सीमा व एनएच पर होने के साथ-साथ नक्सली इलाका होने का लाभ भी उनको मिला.

शुरुआती दौर में ढीबरा (अबरख का स्क्रैप) चुनने के नाम पर शुरू हुआ यह धंधा धीरे-धीरे सघन खनन में तब्दील हो गया. खदान में मौजूद मशीनों के लाखों-करोड़ों के स्क्रैप भी चोरी हो रहे हैं.

कैसे होता है व्यवसाय

अधिकतर अवैध खदानें किसी न किसी प्रभावशाली व्यक्ति की हैं, पर उनका नाम कहीं नहीं होता. इस कारण वे कभी फंसते नहीं. ये लोग उत्खनन स्थल तय करने के बाद किसी स्थानीय आदमी को अपना मुंशी बनाते हैं. मुंशी का काम होता है इलाके से काम करने के लिए लोगों को लाना और काम कराना. मजदूरों को प्रतिदिन की मजदूरी दी जाती है.

खदान से ढीबरा व अबरख निकलने के बाद उसे इससे संबंधित व्यवसायी तक ले जाने व विभाग से तालमेल बैठाने का काम खदान के मालिक का होता है. अगर खदान में दब कर किसी की मौत हो जाये, तो किसी को कानोकान खबर नहीं की जाती. पीड़ित परिवार भी पकड़े जाने के डर से कुछ नहीं बोलता. खदान का मालिक प्रतिदिन निकलनेवाले ढीबरा व अबरख को कोलकाता व स्थानीय संबंधित व्यवसायियों को बेचता है. इसके लिए जो औसत कीमत तय की जाती है, उसके अनुसार लाल ढीबरा 10 से 12 रुपये प्रति किलो, हरा सात से आठ रुपये, सफेद पांच से छह अौर फ्लेग तीन से चार रुपये प्रति किलो. इसके अलावा अबरख एक लाख से लेकर 50 हजार रुपये प्रति किलो के हिसाब से तय होता है. इसे स्थानीय स्तर पर या कोलकाता में साफ किया जाता है. इसके बाद इसकी कीमत काफी हो जाती है. सड़क मार्ग से अबरख कोडरमा से कोलकाता भेजा जाता है. इसके अलावा कुछ लोग खुद ढीबरा चुनते और बेचते हैं. कभी कोई कार्रवाई भी हुई, तो रोज कमाने-खानेवाले पकड़े जाते हैं. दूसरी ओर रोजगार के साधन की कमी के कारण ग्रामीण इस धंधे में शामिल होने को बाध्य होते हैं.

पीएम मोदी ने किया निराश

लोकसभा चुनाव के दौरान दो अप्रैल 2014 को नरेंद्र मोदी की सभा कोडरमा में हुई थी. उन्होंने यहां के माइका की चर्चा करते हुए कहा था कि गलत सरकारी नीतियों के कारण यहां की चमक मंद पड़ गयी है. ढीबरा चुननेवाले जेल भेजे जा रहे और बिचौलिये लाल हो रहे. बाद में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लोगों में आस जगी थी कि कोडरमा में अबरख के दिन फिरेंगे, पर केंद्र सरकार के दो वर्ष पूरे होने के बाद भी कुछ नहीं होने पर लोगों में निराशा है.

कोशिशें जो व्यर्थ गयीं

यहां की अबरख खदानों व मशीनों को बचाने की कोशिश विभाग के कुछ स्थानीय अधिकारियों ने की, पर सरकार व विभाग के बड़े अधिकारियों ने इस पर ध्यान नहीं दिया. कोडरमा माइका यूनिट के तत्कालीन परियोजना पदाधिकारी आरपी सिंह ने 28 जनवरी 2005 को वन्य प्राणी आश्रयणी, हजारीबाग को प्रस्ताव भेजा कि कोडरमा के चिह्नित वन्य प्राणी आश्रयणी क्षेत्र में से 31 एकड़ जमीन बाहर कर दी जाये, ताकि खदानें बंद नहीं करनी पड़े, पर इस पर कोई जवाब नहीं आया. इसी प्रकार 2010 से 2014 के बीच तत्कालीन परियोजना पदाधिकारी जयप्रकाश राम ने विभाग व सरकार को कई प्रस्ताव भेजे कि खदान से सामान उठा लिये जाये व कर्मियों का पदस्थापन दूसरी जगह की जाये, पर इस पर भी कुछ नहीं हुआ. नतीजतन लाखों रुपये के जेनसेट और अन्य महत्वपूर्ण मशीनें जंग खाकर बरबाद हो गयी या चोरी चली गयीं.

13 साल से बैठ कर समय काट रहे कर्मी

खदानों के बंद होने के बाद झारखंड खनिज विकास निगम की कोडरमा शाखा के कुछ कर्मचारियों को दूसरी जगह पदस्थापित कर दिया गया, पर आज भी यहां नौ कर्मचारी और 18 मजदूर पदस्थापित हैं. इन 18 मजदूरों के जिम्मे बंद खदानों की निगरानी का काम है, पर अॉफिस के सभी नौ कर्मचारियों के पास कोई काम नहीं. वे बैठ कर समय बिताते हैं. प्रति माह उन्हें वेतन के मद में लगभग तीन लाख रुपये तो मिल जाते हैं, पर काम नहीं मिलता. इसको लेकर कर्मचारियों ने विधानसभा याचिका समिति, मुख्यमंत्री सहित सभी संबंधित लोगों तक गुहार लगायी, पर हुआ कुछ नहीं. तत्कालीन मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के समक्ष इस मुद्दे पर बैठक भी हुई थी, पर उसका भी रिजल्ट कुछ नहीं हुआ. कर्मचारियों के अनुसार निगम उन्हें वेतन तो दे देता है, पर न तो अपना कर्मचारी मानता है और न ही कोई काम देता है. कर्मचारियों का आग्रह है कि उन्हें काम दिया जाये.

एक को उत्खनन का लीज, 163 को डीलर लाइसेंस

जिले में एकमात्र व्यवसायी दुर्गा प्रसाद सिंह के नाम पर अबरख उत्खनन का लीज है, लेकिन 163 लोगों को इसके डीलरशिप का लाइसेंस दिया गया है. इससे वे माइका की खरीद-बिक्री व भंडारण कर सकते हैं. जानकारों के अनुसार, इसी की आड़ में कई व्यवसायी अवैध उत्खनन कर लाये जा रहे ढीबरा व अबरख का व्यवसाय कर रहे. कभी जांच होती है तो ये खरीद का चालान और कागजात राजस्थान, चेन्नई सहित अन्य जगहों का दिखा देते हैं. दूसरी ओर स्थानीय लोग ढीबरा पर अपना हक मानते हैं और इसको अपने रोजगार से जोड़ कर देखते हैं. राजनीतिज्ञ भी यदा-कदा इसे उद्योग का दरजा दिलाने का आश्वासन देते रहते हैं. इससे भी दिक्कत हुई है.

(साथ में कोडरमा से विकास, गौतम व तसवीर विजय की)
जान जोखिम में डाल अवैध खनन में लगे हैं हजारों लोग
नहीं मिलती पूरी मजदूरी, दलाल और व्यवसायी हो रहे मालामाल
रोज लाखों के अबरख, ढीबरा का अवैध उत्खनन
वर्चस्व की लड़ाई में चली है एक-47 भी
खदानों से मशीनें भी हो रही चोरी
निगम के कर्मी 13 साल से बैठ कर उठा रहे पैसे
गरीबी व रोजगार की कमी सबसे बड़ी बाधा

जहां होता है

अवैध उत्खनन

जानकारी के अनुसार टेकवा, बसरौन, चटकारी, ढोढकोला, सपही, सिरसियाटांड़, लोकाई, लोमचांची (यहां हाल में ही दो मजदूर दब कर मरे हैं), सेटवा, छतरबर के खैराटांड़, विशनपुर, अंगुरतुतवा, खलगतंबी, दिबौर, लठवाहिया, ताराघाटी, मसनोडीह (यहां हाल ही में वन विभाग ने डोजरिंग कर खनन बंद कराया है), ढाब, गझंडी व पैसरा भानेखाप (यह क्षेत्र बिहार में है, पर जाने का रास्ता कोडरमा से है) के अलावा अन्य कई छोटे-छोटे इलाकों में खनन होता है.

http://www.prabhatkhabar.com/news/ranchi/story/827135.html


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