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न्यूज क्लिपिंग्स् | कर ढांचे की कमजोर कड़ियां- अभिनव श्रीवास्तव

कर ढांचे की कमजोर कड़ियां- अभिनव श्रीवास्तव

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published Published on Feb 8, 2013   modified Modified on Feb 8, 2013
जनसत्ता 8 फरवरी, 2013: बीते दिनों जब प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार सी रंगराजन ने सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले कर-अनुपात बढ़ाने के लिए अमीरों पर ऊंची दर से कर लगाए जाने की बात कही तो उनका यह बयान सीधे तौर पर दो घटनाओं से प्रभावित रहा होगा। पहली घटना का संबंध अमेरिका से है, जहां पिछले बीस सालों में पहली बार अमेरिकी सीनेट ने अमीरों पर कर बढ़ाने के प्रस्ताव को भारी बहुमत से पास कर दिया। दूसरी घटना का संबंध संसद की वित्त मामलों की स्थायी समिति की प्रत्यक्ष कर संहिता विधेयक-2010 पर आई उस उनचासवीं रिपोर्ट से था, जिसमें ये तथ्य सामने आए कि वित्त वर्ष 2011-12 में दस से बीस लाख आय वर्ग और बीस लाख से अधिक आय वर्ग के करदाताओं की संख्या कुल करदाताओं की संख्या का महज 4.3 प्रतिशत और 1.3 प्रतिशत थी।
जहां कुछ अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों ने इन तथ्यों के आधार पर अमीर वर्ग की औसत आमदनी और उन पर लगने वाले प्रभावी कर दर के अनुपात को दुरुस्त करने की वकालत की, वहीं कुछ ने अमीरों पर ऊंची दर से कर लगाने का कोई प्रभावी नतीजा न निकलने की दलील देकर कर वृद्धि की मांग को खारिज किया। भले ही इन आर्थिक विश्लेषकों के बीच इस रिपोर्ट में आए तथ्यों की व्याख्या और उनके संप्रेषण में भिन्नताएं रही हों, लेकिन इन दोनों घटनाओं के बाद यूपीए सरकार ने जिस सक्रियता का परिचय दिया उसे अमीरों पर ऊंची दर से कर लगाए जाने की दिशा में एक निर्णायक पहल का संकेत माना जा सकता है।
गौर करने वाली बात रही कि रंगराजन के इस बयान के तुरंत बाद वित्तमंत्री और कुछ अर्थशास्त्रियों के बीच अमीरों पर कर बढ़ाने के लिए ऊंचे न्यूनतम कर और उत्तराधिकार कर लगाने तक की चर्चा आगे बढ़ती नजर आई। यूपीए सरकार की इस पहलकदमी पर देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों के बीच विचारों की कई धुरियां सक्रिय हैं। क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि यूपीए सरकार ने अपने राजकोषीय घाटे को पाटने और उसकी भरपाई करने के लिए देश के अमीर वर्ग पर जिम्मेदारी डालने का मन बना लिया है?
दरअसल, मनमोहन सिंह और उनकी आर्थिक सलाहकार परिषद के अधिकतर सदस्य जिन आर्थिक नीतियों और व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं, वहां राजकोषीय असंतुलन का पैदा होना एक अनिवार्य स्थिति है। अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के अनुभव ये बताते हैं कि अक्सर संतुलित और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर को बरकरार रखने की कोशिश में अर्थव्यवस्थाएं एक सीमा के बाद राजकोषीय घाटे की भरपाई के लिए ऐसे समाधानों के आधार ढूंढ़ती और मजबूत बनाती हुई नजर आती हैं, जिनमें देश के अमीर वर्ग की जवाबदेही तय करने का आग्रह छिपा होता है।
प्रख्यात अर्थशास्त्री पाल क्रूगमैन अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी को इसी सोच का प्रतिनिधि मानते हैं। दो साल पहले, फरवरी 2010 में, ‘द न्यूयार्क टाइम्स’ के अपने स्तंभ में उन्होंने लिखा- ‘‘अमेरिका के आधे से अधिक बजट घाटे का मुख्य कारण आर्थिक महामंदी ही है। यह बजट घाटा एक ओर अमेरिकी सरकार के लगातार सिकुड़ते राजस्व को दिखाता है, तो दूसरी तरफ नुकसान की भरपाई के लिए अस्थायी रूप से खर्चों को बढ़ाने की जरूरत पर भी बल देता है। लेकिन अगर महामंदी का दौर बीत जाता है तो भी जॉर्ज बुश के शासनकाल में की गई करों में कटौती के चलते बजट खतरे में ही रहेगा। अगर जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो 2020 तक अमेरिका का बजट घाटा ऐसी स्थिति में पहुंच जाएगा, जहां से उसकी भरपाई करना संभव नहीं होगा।’’
भारतीय अर्थव्यवस्था भी बीते एक दशक में निश्चय ही इसी राह पर चलती हुई एक ऐसी स्थिति में आ पहुंची है जहां राजस्व और राजकोषीय खर्चों के बीच का फासला बढ़ कर एक निर्णायक सीमा पर पहुंच गया है। ऐसे में अमीरों पर ऊंची दर से कर लगा कर राजकोषीय घाटे की भरपाई करने की मांग भारतीय संदर्भों में भी जायज और व्यावहारिक दिखाई दे रही है, तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सवाल है कि राजकोषीय असंतुलन की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार वजहें और उनके समाधान क्या वैसे ही हैं जैसे खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी आर्थिक सलाहकार परिषद में शामिल नीति-निर्माता बताते रहे हैं या फिर राजस्व बढ़ाने के लिए अमीरों पर ऊंची दर से कर लगाए जाने को एक समाधान के रूप में पेश कर वे राजकोषीय असंतुलन की असल वजहों पर परदा डालना चाहते हैं?
मनमोहन सिंह और उनके द्वारा गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अधिकतर सदस्यों ने बीते वर्षों में कई सार्वजनिक मंचों से भोजन, रोजगार और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की संवैधानिक बाध्यता को राजकोष पर बढ़ते बोझ और सरकार के बढ़ते खर्चों की मुख्य वजह बताया है। इसी आधार पर वे यह दिखाने की कोशिश करते रहे हैं कि राजकोषीय असंतुलन की स्थिति संवैधानिक बाध्यताओं का नतीजा है। हालांकि जब-जब खर्चों को नियंत्रित करने की दिशा में उन्होंने कोई पहल की है तो उनके निशाने पर बुनियादी जरूरतों को पूरा करने वाली लोक-कल्याणकारी योजनाएं ही रही हैं।
एक तरफ तो परिषद ने इन अति महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की रीढ़ तोड़ने में कोई कोताही नहीं बरती है, दूसरी ओर वह इसका श्रेय लेने का लोभ भी नहीं छोड़ पाई है। वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था में बीते एक दशक में पैदा हुए राजकोषीय असंतुलन की वजहें क्रोनी पूंजीवाद के चलते लगातार व्यवस्थागत रूप हासिल करते गए भ्रष्टाचार और अवैध रूप से मुनाफा कमाने वाली नई-नई संरचनाओं के केंद्र बन जाने से जुड़ी हुई हैं।
कुछ महीने पहले वाशिंगटन स्थित शोध संस्थान ‘ग्लोबल फाइनेंस इंटीग्रिटी’ ने 2001-2010 के बीच विकासशील देशों द्वारा काले धन के रूप में विदेशों में जाने वाली रकम का आकलन करते हुए बताया था कि वर्ष 2001-2010 के बीच करीब एक सौ तेईस अरब डॉलर की रकम विदेशों में काले धन के रूप में बाहर गई है।
अमीरों और कॉरपोरेट वर्ग की जवाबदेही तय करने की दिशा में ज्यादा प्रभावी और ठोस पहल यह होती कि सरकार इस तरह के संस्थागत सुधारों को अंजाम देने के लिए ठोस कार्य-योजना के साथ सामने आती। लेकिन ऐसी किसी भी कार्य-योजना और दृष्टि का निरंतर अभाव यूपीए सरकार के नीति-निर्माताओं में दिखाई पड़ रहा है। साल-दर-साल बड़े पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के लिए कॉरपोरेट टैक्स में भारी छूट प्रदान करने वाली सरकार अगर इसी वर्ग पर ऊंची दर से कर लगाने की हिमायती बन जाए, तो यह अंतर्विरोध क्या संकेत करता है?
अगर भारी राजकोषीय संकट के माहौल में यूपीए सरकार यह दिखाने और स्थापित करने में सफल हो जाती है कि वह राजकोषीय घाटे को पाटने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए देश के अमीर और कॉरपोरेट वर्ग की जिम्मेदारी तय करने से भी पीछे नहीं हट रही है, तो उसके लिए अपनी लोककल्याणकारी भूमिका से समझौता करना और आम आदमी को केंद्र में रख कर बनाई गर्इं लोककल्याणकारी योजनाओं के पर कतरना ज्यादा आसान होगा। इस नजरिए से देखा जाए तो यूपीए सरकार के नीति-निर्माताओं ने अमीरों और कॉरपोरेट वर्ग की जवाबदेही तय करने के लिए ऊंची दर से कर लगाने की दिशा में पहलकदमी कर सबसे आसान रास्ते को चुना है।
इस रास्ते पर चल कर वे संस्थागत सुधारों के लिए की जानी वाली बड़ी पहलकदमियों से खुद को बहुत आसानी से बचा लेंगे। मुश्किल यह है कि भारत में मौजूदा कर ढांचा बेहद अधपका है। राजकोषीय ढांचे को दुरुस्त करने के लिए बीते साल सितंबर में बनाई गई केलकर समिति की रिपोर्ट ने भी इस बात की तसदीक करते हुए कहा कि सरकार को प्रत्यक्ष कर संहिता पर पुनर्विचार करते हुए अपने कर ढांचे पर ध्यान देना होगा। क्रोनी पूंजीवाद के निरंतर फैलाव ने ऐसे बहुत-से कारोबारियों और कारोबारों की फौज तैयार कर दी है, जो अवैध और काले धन पर ही पल रही है। इन कारोबारों और कारोबारियों को नियंत्रित करने और इनका नियमन करने की कोई भी गंभीर कोशिश यूपीए सरकार के नीति-निर्माताओं ने नहीं की है। यह समझना इस वक्त की एक बड़ी जरूरत है कि अमीरों पर ऊंची दर से कर लगाए जाने की पहल कर यूपीए सरकार संस्थागत सुधारों के विमर्श को धुंधला बना देना चाहती है।
दुनिया के प्रमुख अर्थशास्त्रियों के बीच और भारत में  यह बहस तेज हो रही है कि अब से लगभग तीन दशक पहले रेगन और थैचर क्रांति के साथ शुरू हुआ ‘निचली कर दर और तेज आर्थिक वृद्धि’ का दौर खत्म हो रहा है। अमेरिका और यूरोपीय देशों में इस दिशा में निर्णायक कदम भी उठाए जा चुके हैं। भारत में भी राजकोषीय घाटे की भरपाई के लिए अमीरों पर कर की दर बढ़ाना एक मुद््दा बन गया है, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के ही हालिया अनुभव हमें बता रहे हैं कि इस कदम को उठाने की बहस में जाने से पहले नीति-निर्माताओं को उन संस्थागत सुधारों की पहल करनी होगी, जिसके बगैर किसी भी तरह के नतीजे की उम्मीद नहीं की जा सकती।
भारत में आर्थिक विश्लेषकों का ऐसा समूह लगातार सक्रिय है जो अमीरों पर ऊंची दर से कर लगाने के बजाय सार्वजनिक वित्त में थोड़े-थोड़े अंतराल पर कटौती को समाधान के रूप प्रस्तुत कर रहा है। यह समूह मानता है कि राज्य लंबे समय तक अपने राजस्व के स्रोतों पर ध्यान न देकर जान-बूझ कर ऐसी स्थितियां पैदा करता है जिनके कारण अमीरों पर ऊंची दरों से कर लगाने जैसे समाधानों को लागू करना अनिवार्य और अपरिहार्य हो जाता है।
इन दलीलों के साथ दिक्कत यह है कि इनमें यह मान लिया जाता है कि राज्य पूरी ईमानदारी से अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धताओं का पालन कर रहा है। जबकि सच यह है कि नियमित अंतराल पर बुनियादी जरूरतों को पूरा करने वाली लोककल्याणकारी योजनाओं का गला घोंटने के बावजूद राजकोषीय असंतुलन की स्थिति कायम है। ये सभी दलीलें सार्वजनिक वित्त और उसके खर्चों के नियंत्रण की वकालत करती हैं, जबकि असल मसला उसके सही प्रबंधन का है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/38471-2013-02-08-05-28-02


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