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न्यूज क्लिपिंग्स् | करावलनगर की वॉकर फ़ैक्ट्रियों में मज़दूरों के हालात

करावलनगर की वॉकर फ़ैक्ट्रियों में मज़दूरों के हालात

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published Published on Jun 22, 2012   modified Modified on Jun 22, 2012

उत्तरी-पूर्वी दिल्ली में करावलनगर के औद्योगिक इलाके और उससे लगे क्षेत्र में वॉकर (छोटे बच्चों को चलने में मदद करने वाली साइकिल) और पालना बनाने वाली 14-15 छोटी-छोटी फ़ैक्ट्रियाँ हैं। ज़्यादातर फ़ैक्ट्रियों में 10-15 मज़दूर और कुछ में 30-40 मज़दूर काम करते हैं। ज़्यादातर फ़ैक्ट्रियाँ दलित बस्ती में हैं, कुछ करावलनगर गाँव, पंचाल विहार और दयालपुर में स्थित हैं। इनमें काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूर झारखण्ड, बिहार और उत्तर प्रदेश से आये प्रवासी हैं। झारखण्ड के गिरिडीह ज़िले के मुस्लिम मज़दूरों एवं स्थानीय महिलाओं की बड़ी तादाद इस उद्योग में लगी हुई है। ज़्यादातर मज़दूर फ़ैक्ट्रियों के आस-पास बने लॉज में या नज़दीक की बस्तियों में रहते हैं।

इन सभी फ़ैक्ट्रियों के पास न तो कोई रजिस्ट्रेशन है न ही कार्य स्थल पर मज़दूरों की सुरक्षा का कोई पुख्ता इन्तजाम है। ज़्यादातर में न साफ़ पीने के पानी की व्यवस्था है, न साफ़ टॉयलेट की जबकि इन फ़ैक्ट्रियों में महिलाओं की एक बड़ी संख्या भी काम करती है। श्रम क़ानून या सामाजिक सुरक्षा की बात करने का मतलब है काम से हाथ धोना। श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन पुलिस-प्रशासन के आँखों के सामने और श्रम विभाग की जानकारी में चल रहा है। वॉकर बनाने का सामान जैसे पहिया, कपड़े की सीट, फ्रेम आदि करावलनगर की दूसरी फ़ैक्ट्रियों या बवाना, गाज़ियाबाद, आदि की फ़ैक्ट्रियों से बनकर आता है। इन सभी पुर्जों को जोड़कर वॉकर और पालना तैयार किया जाता है। वॉकर बेचने वाली अलग-अलग कम्पनियाँ यहाँ वॉकर बनाने का आर्डर देती हैं और अपने ब्राण्ड का स्टिकर लगाकर भारत के कोने-कोने और विदेशों में भी बेचती हैं। कुछ बड़े मैन्यूफैक्चरर्स के पास अपना ही ब्राण्ड है और वह ख़ुद अपना माल बनाकर बेचते हैं। करावल नगर के अलावा गीता कॉलोनी, पटपड़गंज और दिल्ली के कुछ अन्य इलाकों में भी वॉकर बनाने का काम होता है।

मज़दूरों में ठेकेदारी मानसिकता मालिक की चाँदी

ज़्यादातर फ़ैक्ट्रियों में पीस रेट पर काम होता है लेकिन कुछ में मासिक वेतन पर भी होता है। एक वॉकर की पूरी फिटिंग, पैकिंग के लिए केवल 6 रुपये दिये जाते हैं। एक कुशल मज़दूर 7 से 8 घण्टे में लगातार काम करके भी 30 से 35 वॉकर ही बना पाता है। इस तरह 8 घण्टे लगातार काम करके भी वह 180 रुपये से 200 रुपये तक ही कमा सकता है। मालिक यह पूरा काम ठेके पर करवाता है। मज़दूरों के बीच से ही कुछ कुशल मज़दूरों को इसका ठेका दे दिया जाता है। ठेका लेने वाला मज़दूर स्वयं और कुछ हेल्परों को साथ में रखकर इस पूरे काम को करता है। ठेका लेने वाला मज़दूर अपने हेल्पर से 2500 से लेकर 3000 रुपये तक में 8-10 घण्टे काम लेता है। हेल्पर के रूप में काम करने वाली ज़्यादातर महिलाएँ हैं या फिर अर्द्धकुशल मज़दूर।  मज़दूरों के सभी सुरक्षा उपायों की गारण्टी मालिक ‘मज़दूर ठेकेदार’ पर डाल देता है और चालाकी से एक पैसा ख़र्च किये बिना अपना काम निकालता है। हेल्पर के रूप में काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूरों को उसके ही साथ काम करने वाले ‘मज़दूर ठेकेदारों’ से पैसा मिलता है।

जो मज़दूर ठेका लेकर काम करता है उसकी मानसिकता भी रहती है कि हेल्परों को कम से कम देकर ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बना लिया जाये। उसका मज़दूर वर्गीय चरित्र गड़बड़ होने लगता है। एक और मानसिकता यह काम करती है कि यह तो अपना काम है जितना करेंगे उतना मिलेगा, जबकि मालिक पहले से पीस रेट को  न्यूनतम मज़दूरी से भी कम दरों पर तय करता है। ये लोग 12-14 घण्टे भी काम करें तो भी 200-250 रुपये ही कमा पायेंगे। लेकिन स्वरोज़गार और अपना मालिक स्वयं होने के भ्रम में वे अपनी बदहाली और हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद दरिद्रता का जीवन जीने के लिए मालिक को ज़िम्मेदार नहीं समझते। यह वास्तव में मज़दूर वर्गीय चेतना के कुन्द होने के कारण होता है। एक उजरती मज़दूर के तौर पर ‘मज़दूर ठेकेदार’ की पहचान गड़बड़ा जाती है।

मालिक द्वारा गाली-गलौज आम बात है। कभी-कभी तो कुछ मज़दूरों की पिटाई भी मालिकों के हाथों हुई है। आपस में कोई एकता न होने से मज़दूर कुछ कर नहीं पाते हैं। मज़दूरों के बीच से ही कुछ मज़दूरों को नाम भर का ठेकेदार बनाकर और फिर इन ‘मज़दूर ठेकेदारों’ की आपस में होड़ करवाकर मालिक अपनेआप को हर तरह की ज़िम्मेदारी से बरी कर लेता है और फिर बेगारी भी करवाता है। कुशल मज़दूर यह नहीं समझ पाते कि कुशल मज़दूरों को अर्द्धकुशल मज़दूर या अकुशल मज़दूर को साथ में लेकर ही अपना अधिकार मिल सकता है। मालिक जानबूझकर सभी काम ठेके पर करवाना चाहता है ताकि मज़दूरों को ज़्यादा अच्छी तरह निचोड़ सके और उसे कोई दिक्कत भी न हो।

ऐसे में समझा जा सकता है कि वॉकर कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों के संघर्ष का रास्ता क्या होना चाहिए। ठेका लेकर काम करने वाले मज़दूरों के लिए ज़्यादा अच्छा होगा कि वे वेतन पर काम करें और कुशल मज़दूर की मज़दूरी तथा अन्य श्रम कानूनों को लागू करवाने के लिए हेल्परों के साथ मिलकर संघर्ष करें। उन्हें सभी श्रमिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए चाहे वह पहचान कार्ड हो, ई.एस.आई, पी.एपफ., वेतन बढ़ोत्तारी का सवाल हो या ओवरटाइम का डबल रेट से भुगतान करने का सवाल हो।

यह पूरा उद्योग छोटी-छोटी फ़ैक्ट्रियों में बिखरा हुआ है। पहिया, फ्रेम तथा अन्य सामान अलग-अलग जगहों पर बनता है और जोड़ने का काम कहीं और होता है। इन फ़ैक्ट्रियों में ज़्यादातर 10 से 15 मज़दूर काम करते हैं। इस उद्योग की स्थितियाँ साफ़ तौर पर दिखला रही हैं कि सबसे पहले तो इस पूरे पेशे के तमाम कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों को एकता बनानी चाहिए ताकि अपने पेशे की साझा माँगों पर वे मालिकों से एकजुट होकर संघर्ष कर सकें। साथ ही उन्हें अपने इलाके के अन्य पेशों के मज़दूरों से भी इलाकाई यूनियन के बैनर तले एकता कायम करनी चाहिए, क्योंकि यह उद्योग पूरी दिल्ली और दिल्ली के बाहर के कई इलाकों में बिखरा हुआ है। अन्य पेशों के कारख़ाना मज़दूरों और अनौपचारिक मज़दूरों के साथ इलाकाई पैमाने पर वर्ग एकता कायम किये बिना किसी भी एक पेशे के मज़दूर अपने संघर्ष को बहुत आगे ले जाने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।


http://www.mazdoorbigul.net/2012/06/%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B5%E0%A5%89%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%88%E0%A4%9


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