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न्यूज क्लिपिंग्स् | कर्ज माफी अंतिम उपाय नहीं-- आर. सुकुमार

कर्ज माफी अंतिम उपाय नहीं-- आर. सुकुमार

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published Published on Apr 11, 2017   modified Modified on Apr 11, 2017
देश के कई हिस्से इन दिनों कृषि संकट से गुजर रहे हैं।काफी हद तक इसकी वजह खराब मानसून है। ज्यादातर इलाकों में किसान आज भी सालाना बारिश पर निर्भर हैं, लेकिन कम बारिश के चलते साल 2014 और 2015 उनके लिए अच्छे नहीं रहे, हालांकि 2016 में अच्छी बारिश हुई थी।


इस संकट की एक वजह कमोडिटी साइकिल (उत्पादों का चक्र) भी है, जिसके कारण खाद्य उत्पादों की वैश्विक कीमतें चक्रानुक्रम में बढ़ती और घटती हैं। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक, 2016 के अंत में खाद्य उत्पादों के दाम मौटे तौर पर उतने ही थे, जितना कि 2006 में थे। इस एक दशक में कीमतें तेजी से चढ़ीं और फिर नीचे उतरीं।


असल में समस्या यह है कि अपने देश में खेती-किसानी आज भी पूरी तरह बाजार से नहीं जुड़ सकी है। कीमतें तय करने का फॉर्मूला भी अपारदर्शी व अवैज्ञानिक है। इतना ही नहीं, हमारा किसान आज भी जोखिम प्रबंधन के उन तौर-तरीकों से काफी हद तक महरूम है, जो उसे मौसमी और बाजार की मार से लड़ने में मदद कर सकते हैं। मिंट में नियमित तौर पर लिखने वाले हिमांशु की मानें, तो देश में लंबे समय से खेती-किसानी में आ रही कमी ने ही जाट और पटेल जैसे प्रभावी व समृद्ध खेतिहर समुदायों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए आंदोलन करने को मजबूर किया है।

जाहिर है, नाखुश किसान राजनेताओं की चिंता ही बढ़ाएंगे। 1994 से 2004 तक देश पर शासन करने वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार का हश्र देख लीजिए। 2004 के लोकसभा चुनावों में उसे अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा। वजह थी, 2002 के सूखे पर सरकार का देर से चेतना। उस साल देश में सिर्फ 80 फीसदी बारिश हुई थी।


हालांकि किसानों को लुभाने वाले फैसले सियासी लाभ भी देते हैं। साल 2009 के लोकसभा चुनाव में ही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की वापसी खुद गठबंधन और दूसरे तमाम लोगों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं थी। यह जीत मूल रूप से 2008 में किसानों के लिए की गई 70,000 करोड़ रुपये की कर्ज-माफी का नतीजा थी। कर्ज-माफी और गांवों के हर गरीब परिवार से एक वयस्क को 100 दिन के काम की गारंटी देती मनरेगा योजना ने 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी से लड़ने में भी देश की मदद की थी। उस दौरान हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की चमक बनी रही और पर्याप्त वित्तीय प्रोत्साहन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था गोता लगाने के बाद फिर अपने पुराने मुकाम पर पहुंच गई।


अभी महाराष्ट्र में बुलंद हो रही कृषि-कर्ज में छूट की मांग और तमिलनाडु व उत्तर प्रदेश में कर्ज-माफी की हालिया घोषणाओं को इन्हीं संदर्भों में देखने की जरूरत है। तमिलनाडु में 8,000 करोड़ रुपये की कर्ज-माफी की घोषणा हुई है, तो उत्तर प्रदेश में लगभग 37,000 करोड़ की। महाराष्ट्र में समृद्ध खेतिहर मानी जाने वाली जाति मराठा ने छात्रों के लिए सब्सिडी और नौकरियों में कोटे की पुरजोर मांग की है।


बहरहाल, कर्ज माफी एक प्रभावी राजनीतिक हथियार होने के साथ-साथ किसानों को तत्काल राहत देने का वायदा भी है। मगर असल में, यह कवायद उन किसानों के लिए किसी सजा से कम नहीं, जो लोन चुकाने को लेकर ईमानदार रहते हैं। यह उन्हें ढीले ‘क्रेडिट डिसिप्लिन' यानी कर्ज-चुकाने के लिए प्रयास न करने और गैर-कृषिगत कामों के लिए कर्ज लेने को प्रोत्साहित करता है।


मिंट कर्ज-माफी को एक बेहतर आइडिया नहीं मानता है। साल 2008 में भी यह एक गलत विचार था और आज 2017 में भी इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। मेरा मानना है कि मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार अपनी पूर्ववर्ती हुकूमतों की तरह ही मध्यमार्गी (झुकाव वाम की तरफ) है। 2014 में इसके सत्ता में आने से पहले कुछ लोगों का कहना था कि यह अपेक्षाकृत अधिक दक्षिणपंथी सरकार होगी, खासतौर से आर्थिक नीतियों के मामले में। मगर वह आकलन गलत रहा है। यह सही है कि 1999 से 2004 के बीच केंद्र में जब तीसरी बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार (इससे पहले 13 दिन और 13 महीने की सरकार बन चुकी थी) बनी, तो वह सही मायने में एक प्रगतिशील और दक्षिणपंथी हुकूमत थी। मगर 2014 के बाद से, खासकर आर्थिक मोर्चे पर ऐसे कई मौके आए, जो यह साबित करते हैं कि मौजूदा सरकार भी पूर्ववर्ती सरकारों के नक्शेकदम पर ही चल रही है। हालांकि भ्रष्टाचार और सुधारवादी नीतियों को लागू करने के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।


राजनीतिक चश्मे से देखें, तो 2017 की कर्ज-माफी एक समझदारी भरा फैसला लगती है, क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव 2019 में होना है, और अब वह ज्यादा दूर नहीं है। मानवता के लिहाज से भी किसानों की दुर्दशा को नजरअंदाज करना मुश्किल है। मगर आर्थिक नजरिये से देखें, तो कर्ज माफी का कोई मामला ही नहीं बनता है, क्योंकि यह ऐसा मामला ही नहीं है। कुछ पंडितों ने इसे कॉरपोरेट कर्ज में दी जाने वाली रियायतों से भी जोड़ा है। लेकिन पक्षपातपूर्ण कर्ज-राहत का समाधान ऐसी रियायतें बंद करना है, न कि किसानों को भी इसी तरह की छूट देना। यदि हम खेती से जुड़े जोखिम का बेहतर प्रबंधन कर सके और अधिक कुशल बाजार बना सके, तो खेती-किसानी के संकट का काफी हद तक समाधान हो जाएगा।


मौजूदा सरकार ने इस दिशा में कुछ अच्छे इरादे दिखाए भी हैं। उसने नई फसल बीमा योजना की शुरुआत की है और एक राष्ट्रीय कृषि बाजार बनाने की बात भी कही है। हालांकि मिंट पहले यह बता चुका है कि फसल बीमा योजना का झुकाव अब भी किसानों की बजाय बैंकों की सुरक्षा पर है, जबकि राष्ट्रीय कृषि बाजार शैशवावस्था में है। आलम यह है कि चार में से महज एक किसान को ही यह सुरक्षा मिल पाती है और इसे अब तक कई अन्य राष्ट्रीय कृषि बाजारों से जोड़ा भी नहीं जा सका है। ताकतवर कारोबारी लॉबी भी इस बात के लिए जी-जान से जुटी है कि यहां खास उत्पादों का थोक कारोबार न हो सके। बावजूद इसके केंद्र सरकार के ये दोनों फैसले मौजूदा कृषि संकट को आंशिक तौर पर ही सही, जरूर दूर कर सकते हैं। कर्ज से माफी जरूर मिलनी चाहिए। यह कई बड़ी मुश्किलों से राहत देती है। मगर खेती-किसानी के संकट का यह माकूल जवाब नहीं है।


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-debt-forgiveness-is-not-the-last-solution-777155.html


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