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न्यूज क्लिपिंग्स् | कर्जमाफी नहीं है समाधान -- देविंदर शर्मा

कर्जमाफी नहीं है समाधान -- देविंदर शर्मा

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published Published on Jun 16, 2017   modified Modified on Jun 16, 2017
इस हफ्ते की शुरुआत मध्य प्रदेश के 42 वर्षीय किसान रमेश बसेने की आत्महत्या के साथ हुई। हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी खबर में बताया गया था कि उस पर 25,000 रुपये का कर्ज था। कुछ ही हफ्ते पहले महाराष्ट्र के एक किसान की 21 वर्षीया बेटी शीतल व्यंकट की आत्महत्या की भी दुखद खबर आई थी। अपनी शादी के लिए पैसे के इंतजाम को लेकर पिता की परेशानी उससे देखी न गई और उसने कुएं में कूदकर जान दे दी। सुसाइड नोट में उसने लिखा, ‘पिछले पांच वर्षों से लगातार फसल खराब होने के कारण हमारे परिवार की आर्थिक हालत काफी खराब हो गई है। मैं अपनी जान दे रही हूं, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि मेरी शादी को लेकर पिता पर कर्ज का बोझ और ज्यादा बढे़।'


देश में खाद्यान्न का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब में भी जिस तरह बड़ी संख्या में किसानों की खुदकुशी की खबरें आई हैं, उससे हर कोई हतप्रभ है। कुछ महीने पहले ही वहां एक युवा किसान ने अपनी जान दे दी। नहर में मौत की छलांग लगाने से पहले उसने अपने पांच साल के बेटे को भी कमर में बांध लिया था। अपने आखिरी खत में उसने लिखा कि आखिर वह मासूम बेटे के साथ क्यों जान दे रहा है? दरअसल, उस पर दस लाख रुपये का कर्ज था और वह जानता था कि पूरी उम्र मेहनत-मजूरी करके भी उसका बेटा यह कर्ज नहीं चुका सकेगा।


ये तीन घटनाएं देश के तमाम किसान परिवारों की त्रासदी बताने को काफी हैं। पिछले 21 वर्षों में 3.18 लाख से अधिक किसानों ने हालात से हारकर आत्महत्या की है। मध्य प्रदेश के मालवा में हुआ किसानों का हिंसक आंदोलन वास्तव में इसी आर्थिक अभाव का नतीजा है, जो हमारे अन्नदाताओं में चौतरफा पसर चुका है। यह आंदोलन भी छह किसानों को लील चुका है और अब इसके पांव पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरफ बढ़ चुके हैं। मेरा मानना है कि किसान-आत्महत्या तो उस गंभीर गड़बड़ी का एक संकेत मात्र है, जिसने पूरी खेती-किसानी को ही बदहाल कर रखा है। दरअसल, ऐसे वक्त में, जब शहरी भारत में आमदनी का स्तर बढ़ रहा है, 2016 का आर्थिक सर्वे बताता है कि देश के 17 राज्यों, यानी लगभग आधे भारत में कृषि परिवारों की सालाना औसत आमदनी महज 20,000 रुपये है। समझा जा सकता है कि ये परिवार जीने के लिए कैसी जद्दोजहद करते होंगे? जबकि एक गाय को पालने में ही हर महीना कम से कम 1,700 रुपये का खर्च आता है।


इस सबके बावजूद संदेह होता है कि मुख्यधारा के अर्थशा्त्रिरयों और नीति-नियंताओं के लिए मानव त्रासदी की ये मार्मिक कहानियां कोई मायने रखती हैं। हर फसल के बाद बाजार लुढ़कता है, और सरकार यह सुनिश्चित करने में ही दुबली हुई जाती है कि किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिल रहा है अथवा नहीं। नतीजतन, किसान कर्ज के अंतहीन चक्र में उलझता जाता है। एमएसपी भी आमतौर पर लागत से कम ही तय किया जाता है। जैसे, महाराष्ट्र में अरहर दाल की उत्पादन लागत 6,240 रुपये प्रति क्विंटल आंकी गई, मगर न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया गया 5,050 रुपये प्रति क्विंटल। दुखद सच यह भी है कि किसानों ने जिन कीमतों पर दाल बेची, वह 3,500 से 4,200 रुपये प्रति क्विंटल के बीच थी। और इसके लिए भी उन्हें हफ्तों तक मंडियों में इंतजार करना पड़ा।


एक तस्वीर और है। हरियाणा के एक किसान ने तीन महीने की हाड़तोड़ मेहनत के बाद आलू की अच्छी फसल उगाई, मगर कीमतें कम हो जाने की वजह से वह अपना 40 क्विंटल आलू महज नौ पैसे प्रति किलो की दर से बेचने को मजबूर हुआ। जब कीमतें इस कदर गोते लगाने लगें, तो स्वाभाविक रूप से वह किसानों के लिए प्राणघातक साबित होंगी। मगर आज तक सरकार कभी भी किसानों के इससे बचाने के लिए आगे नहीं आई। अब इसकी तुलना शेयर बाजार से करें। बाजार के लुढ़कते ही फौरन हमारे वित्त मंत्री घंटे-दर-घंटे आर्थिक संकट पर नजर रखने का वादा करते हैं और निवेशकों को धैर्य बंधाने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं। लेकिन हमने कभी यह तो नहीं देखा कि वित्त मंत्री या कृषि मंत्री फसलों की कीमत गिरने पर इस कदर परेशान हुए हों? किसानों को ढाढस बंधाते दिखाई दिए हों?


सच यही है कि दीन-हीन किसान कर्ज में जीने को मजबूर कर दिए गए हैं। यह कर्ज हर बीतते वर्ष के साथ बढ़ता जा रहा है। हमारे अन्नदाता जिस आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, दरअसल वह फसल की उचित कीमत न मिलने के कारण और गहरा रहा है। खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने की कीमत हमेशा इसी समुदाय ने चुकाई है। बीते तीन दशकों में एक-एक कर आई तमाम सरकारों ने जान-बूझकर कृषि-व्यवस्था को चौपट किया है। अनुमान है कि हर रात देश के 58 फीसदी किसान भूखे पेट सोने को मजबूर होते हैं। मैं हमेशा यह कहता रहा हूं कि ये किसान ही हैं, जो इन तमाम वर्षों में देश को सब्सिडी देते रहे हैं।


बहरहाल, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में 36,359 करोड़ रुपये की कर्ज-माफी की घोषणा की, जिसके लागू होने के बाद प्रदेश के 92 लाख लघु और सीमांत किसानों को फायदा होगा, तो महाराष्ट्र सरकार ने भी 30,500 करोड़ रुपये की कर्ज-माफी की घोषणा की है। उम्मीद है कि पंजाब में भी कम से कम 30,000 करोड़ के कर्ज माफ किए जाएंगे। कर्ज-माफी की यह मांग अब हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश तक पहुंच गई है। वैसे मेरा मानना यही है कि कर्ज-माफी राज्य सरकारों की बेहतर सियासत तो है ही, अच्छा अर्थशास्त्र भी है। इन तमाम कर्ज-माफी को जोड़ दें, तब भी वे चार लाख करोड़ रुपये तक नहीं पहुंचेंगे, जिस राहत पैकेज की मांग दूरसंचार उद्योग कर रहा है।
हालांकि मैं इससे सहमत हूं कि कर्ज-माफी महज तात्कालिक उपाय है। हमें ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिससे भविष्य में किसान कर्जदार ही न होने पाएं। स्पष्ट है कि किसानों को आर्थिक सुरक्षा मिलनी चाहिए, जिसके लिए कुछ कदम उठाने जरूरी हैं। मसलन, फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की सिफारिश करने वाले कृषि लागत और मूल्य आयोग को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते वक्त आवास भत्ता, स्वास्थ्य भत्ता, शैक्षणिक भत्ता और यात्रा भत्ता पर भी गौर करे। अब तक एमएसपी में उत्पादन-लागत ही शामिल की जाती रही है।


इसी तरह, यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि चूंकि एमएसपी का फायदा देश के महज छह फीसदी किसानों को होता है, इसलिए एमएसपी पर 50 फीसदी लाभ देने की मांग भी सिर्फ इन्हीं किसानों को राहत देगी। बाकी 94 फीसदी किसानों के लिए, जो दोहन करने वाले बाजार के भरोसे हैं, एक राष्ट्रीय किसान आय आयोग बनाने की जरूरत है, जिसमें किसानों के लिए 18,000 रुपये प्रति परिवार की न्यूनतम मासिक आय भी तय होनी चाहिए। साफ है कि ऐसा कोई कदम ही हमारे अन्नदाताओं को कर्ज के मकड़जाल से बाहर निकल पाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


http://www.livehindustan.com/blog/latest-blog/story-debt-relief-is-not-solution-1140507.html


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