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न्यूज क्लिपिंग्स् | कर्जमाफी से परे जाकर भी सोचें-- देविन्दर शर्मा

कर्जमाफी से परे जाकर भी सोचें-- देविन्दर शर्मा

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published Published on Jul 12, 2017   modified Modified on Jul 12, 2017

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बार-बार दोहराया है कि उनकी सरकार छोटे किसानों के दो लाख रुपये तक के कर्ज माफ कर देगी। इससे राज्य सरकार के खजाने पर करीब 9,500 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा, जबकि 10.25 लाख किसानों को लाभ होगा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि उनके 34,000 करोड़ रुपये की कर्जमाफी से 89 लाख छोटे किसानों को फायदा होगा। इसके बावजूद किसान आत्महत्याओं में तेजी आई है। पंजाब में पिछले बीस दिनों में 21 किसानों ने खुदकुशी की है। मुख्यमंत्री ने खुद कहा कि उन्हें समझ में नहीं आता कि कर्जमाफी की घोषणा के बाद आत्महत्या की घटनाओं में तेजी क्यों आई है। महाराष्ट्र में पिछले दो हफ्तों में 42 किसानों ने खुदकुशी की। अकेले मराठवाड़ा क्षेत्र में 19 से 25 जून के बीच 19 किसानों ने आत्महत्या की। मध्य प्रदेश में पुलिस फायरिंग में पांच किसानों की मौत के बाद से 38 किसानों ने खुदकुशी की।

 

आदर्श रूप से कर्जमाफी की घोषणा के बाद किसान आत्महत्याओं में कमी आनी चाहिए थी। सभी किसानों को कर्जमाफी से लाभ भले न हो, पर छोटे और सीमांत किसानों के एक तबके को इससे फायदा होगा। इसलिए कर्जमाफी के बावजूद आत्महत्या की घटनाओं में बढ़ोतरी होने से साफ है कि कृषि संकट की हमारी समझ में ही कुछ बहुत ही गलत है। या तो कर्जमाफी मौजूदा कृषि संकट को हल करने का सही तरीका नहीं है या जिस तरह से कर्जमाफी की योजना तैयार और कार्यान्वित की जाती है, उससे छोटे किसानों को भी बहुत फायदा नहीं मिल रहा।

 

फसलों के लाभकारी मूल्य मिलने की उम्मीद के बिना किसानों की समस्या यह है कि अगली फसल के लिए वह जो ऋण लेने की योजना बना रहा है, उसे कैसे चुकाएगा। किसानों के बकाये कर्ज का एक हिस्सा भले माफ कर दिया गया हो, पर अगली फसल बोने के लिए उसे कर्ज लेना ही पड़ेगा। किसानों को उनकी फसल के उचित मूल्य से वर्षों से वंचित किया गया है, इसलिए कर्जमाफी को उनकी कृतज्ञता वापस पाने के एक अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए। पर किसानों के संकट को कर्जमाफी से अलग करके भी देखा जाना चाहिए। अर्थशास्त्री और नीति-निर्माताओं को थोड़ा कल्पनाशील होकर सोचना चाहिए और ऐसे उपाय सुझाने चाहिए, जो दीर्घकालीन अर्थों में किसानों के हाथ में वास्तविक आय प्रदान कर सकें।

 

अन्न का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब का ही उदाहरण लीजिए। 98 फीसदी सिंचित कृषि भूमि और दुनिया में सबसे ज्यादा अन्न (गेहूं, धान और मक्का) उत्पादक होने के बावजूद पंजाब के प्रगतिशील किसानों की आत्महत्या का कोई कारण नजर नहीं आता। पर पंजाब किसान आत्महत्या का एक प्रमुख केंद्र बन गया है। इसकी मुख्य वजह यह है कि किसानों को उनकी उचित आय से वंचित किया गया है, जो अनिवार्य रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य से मिलता है। मुझे हमेशा हैरानी होती है कि पंजाब स्वामीनाथन आयोग के अनुसार किसानों को उनकी उत्पादन लागत (सी-2 कॉस्ट) का पचास फीसदी मुनाफा क्यों नहीं दे सकता है, जहां एपीएमसी विनियमित मंडियों का व्यापक नेटवर्क है और जहां के गांव सड़कों से जुड़े हैं। यदि पंजाब यह घोषणा कर दे कि वह किसानों को स्वामीनाथन आयोग के अनुसार मुनाफा देना चाहता है, तो उसे सालाना 8,237 करोड़ रुपये का खर्च वहन करना होगा। मेरी गणना के अनुसार, गेहूं के मामले में प्रति क्विंटल उत्पादन लागत 1,203 रुपये आता है, अब इसमें 50 फीसदी मुनाफा जोड़ लीजिए, तो कुल मूल्य होता है 1,805 रुपये प्रति क्विंटल। चूंकि केंद्र द्वारा 1,625 रुपये प्रति क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है, तो राज्य सरकार को बाकी 180 रुपये प्रति क्विंटल देने की जरूरत है। दूसरे शब्दों में, वर्ष 2016-17 के सीजन में 106.5 लाख टन गेहूं खरीदा गया, तो पंजाब सरकार पर कुल बोझ 1,917 करोड़ रुपये का पड़ेगा। अगर धान की फसल को भी इसमें शामिल कर लिया जाए, तो दोनों को मिलाकर पंजाब सरकार पर 8,237 करोड़ रुपये का कुल वार्षिक बोझ पड़ेगा।

 

यदि आप समझते हैं कि 8,237 करोड़ रुपये एक बड़ी राशि है और पंजाब सरकार के दुर्लभ संसाधनों की बर्बादी होगी, तो एक बार फिर से विचार कीजिए, क्योंकि पंजाब के किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य कभी नहीं दिया गया। पूर्ववर्ती बादल सरकार के समय गठित डॉ आरएस घुमन कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, थोक मूल्य की तुलना में कम न्यूनतम समर्थन मूल्य दिए जाने के कारण 1970 से 2007 के बीच पंजाब के किसानों को 62,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। किसानों को फसलों के उचित मूल्य से वंचित करने की प्रवृत्ति हरित क्रांति के दौर से जारी है। क्या यह किसानों की भरपाई का वक्त नहीं है? जब भी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की बात होती है, तब कहा जाता है कि इसकी जरूरत नहीं है, फसलों का मूल्य कम रखना चाहिए, नहीं तो खुदरा खाद्य कीमतों में वृद्धि होगी। यानी उपभोक्ताओं को सस्ता भोजन उपलब्ध कराने के लिए किसानों को गरीब रखा गया है।

 

पंजाब में नशे की बढ़ती समस्या भी कृषि संकट से जुड़ी है। वर्षों से खेती अलाभप्रद बनती गई है और शहरों में रोजगार की संभावना भी क्षीण है, ऐसे में ग्रामीण युवक नशे के शिकार हो रहे हैं। नीति निर्माताओं के पास खेती को लाभप्रद बनाना आजीविका को बचाने का एकमात्र उपाय है। पंजाब में 18 लाख कृषक परिवार हैं और अगर ये परिवार खेती में आर्थिक देखेंगे, तो पंजाब फिर से कृषि क्षेत्र में गौरव हासिल कर सकता है।

 

पंजाब के लिए ‘उड़ता पंजाब' की छवि को हासिल करने और अपनी गलतियों को सुधारने का यही वक्त है, जिससे वह देश के बाकी राज्यों के लिए फिर से आदर्श बन सकता है। पंजाब सरकार का काम सिर्फ अपने कर्मचारियों की सुध लेना और उनके लिए मासिक आय के साथ ज्यादा भत्ता सुनिश्चित करना ही नहीं है, बल्कि किसानों और कृषि मजदूरों का ख्याल रखना भी है।


http://www.amarujala.com/columns/opinion/think-beyond-debt-waiver


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