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न्यूज क्लिपिंग्स् | कहां खो जाते हैं महिलाओं के मुद्दे - रंजना कुमारी

कहां खो जाते हैं महिलाओं के मुद्दे - रंजना कुमारी

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published Published on Apr 25, 2014   modified Modified on Apr 25, 2014
मैं दिल्ली से उत्तर प्रदेश के अपने एक गांव में वोट डालने गई थी। वहां अब भी बहुत ज्यादा विकास नहीं हुआ है। मगर एक अच्छी बात जरूर दिखी कि घरों से महिलाएं वोट डालने के लिए अकेली निकल रही थीं। पहले ज्यादातर वे परिवार की भीड़ का हिस्सा बनकर पोलिंग बूथों तक पहुंचती थीं, लेकिन इस बार वे अपने बच्चे का हाथ थामकर मतदान की कतारों में खड़ी थीं। यह उपलब्धि चमत्कृत करती है। वैसे इसका सारा श्रेय किसी अन्य को नहीं, बल्कि चुनाव आयोग को जाता है, जिसने शांतिपूर्ण मतदान की व्यवस्था सुनिश्चित की है। चुनाव आयोग के मतदाता जागरूकता अभियानों और स्वच्छ व निष्पक्ष मतदान की व्यवस्थाओं से महिलाएं पुरुषों की भीड़ से काफी हद तक अलग दिखने लगी हैं तथा बतौर मतदाता उनकी भागीदारी बढ़ी है। लेकिन भीड़ से अलग होने की यह उपलब्धि क्या राजनीतिक दलों के भीतरी ढांचे और भारतीय राजनीति में विशेष प्रभाव डालती है?

बात राजनीतिक दलों, विशेषकर बड़े दलों के घोषणापत्र से शुरू करती हूं, जिनमें महिलाओं के मूल मुद्दों को छुआ तक नहीं गया है। राजनीतिक भागीदारी तो दूर, स्त्री-शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे सामाजिक विकास के मुद्दे भी लगभग गौण हैं। आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी देश की 48 फीसदी जनसंख्या अगर राजनीति में महत्वहीन साबित होती है, तो यह महिला अस्मिता पर चोट से कहीं अधिक, देश के पिछड़ेपन का मामला है। एक पल सोचिए कि घोषणापत्रों में अलग से महिलाओं के मुद्दे को समेटा जाता, तो उन राजनीतिक पार्टियों का क्या जाता? शायद कुछ भी नहीं और शायद बहुत कुछ। ‘बहुत कुछ’ इस अर्थ में कि ये घोषणापत्र इसकी स्वीकृति देते कि देश में महिलाओं की अलग से राजनीतिक हैसियत है। ये घोषणापत्र दशकों की इस धारणा को मिटा देते कि मर्द जहां कहेंगे, वहीं महिलाएं वोट डालेंगी। यही नहीं, भारतीय राजनीति जो अब तक पुरुष प्रधान समाज का प्रतिनिधित्व करती आ रही है, उसका यह मिथक टूटता।

पुरुषवादी सोच का राजनीतिक हथियार बन चुकी सियासी पार्टियों की वह व्यवस्था हिल जाती, जिसके तहत महिला नेताओं की कुल मौजूदगी चार से पांच फीसदी में सिमटी हुई है। इन चार से पांच फीसदी की मौजूदगी भी अब तक ‘सजावटी’ है, उनके ‘सशक्तीकरण’ के रास्ते बनाने पड़ते। सचमुच, लोकतंत्र के समक्ष आधी आबादी के मुद्दे कहां और किस तरह गौण रह जाते हैं, राजनीतिक दलों के घोषणापत्र इनकी बानगी हैं। कुछ घोषणापत्रों में संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा से पारित करने का वादा है, लेकिन अगर राजनीतिक पार्टियां महिला आरक्षण विधेयक के प्रति इतनी ही गंभीर थीं, तो 15वीं लोकसभा में ही इसकी त्रुटियों और संभावनाओं पर व्यापक बहस क्यों नहीं हो पाई? यह लंबित विधेयक अपने पारित होने का बाट जोहता रहा और भविष्य की लोकसभा भी इसे लेकर अधिक आशा उत्पन्न नहीं कर पाती है।

यदि हम यह मानकर चलें कि ‘सत्ता परिवर्तन की लहर’ है और शायद भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार आए, तब भी गुजरात का विकास मॉडल महिलाओं के लिए कोई उम्मीद नहीं जगाता। कैग की रिपोर्ट ने गुजरात में समेकित बाल विकास योजना के कामकाज की आलोचना की थी। इसमें बताया गया कि गुजरात का हर तीसरा बच्चा कुपोषित है। महिलाओं की सुरक्षा और नौकरी, दोनों के मामले में गुजरात कई राज्यों से काफी पीछे है। ऐसी स्थिति में, गुजरात का विकास मॉडल महिलाओं के लिए भी छलावा ही होगा।

ऐसे समय में, जब महिलाओं से जुड़े मूल मुद्दे उपेक्षित हैं और उनके बहाने बड़े सतही ढंग से एक-दूसरे के चरित्र पर सवाल उठाए जा रहे हैं, तब पार्टियों के इस भौंडे स्तर से यह साफ हो जाता है कि समाज और राजनीति में महिला और महिला मुद्दों को लेकर संजीदगी नहीं है। यहां वैश्विक राजनीतिक घटनाक्रम से भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। जब अमेरिका में जॉर्ज बुश दूसरी बार राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे थे, तब पूर्व उप-राष्ट्रपति अल गोर के सामने राष्ट्रपति पद के चुनाव लड़ने का एक और मौका था, लेकिन उनकी यह दावेदारी इसलिए पार्टी ने खारिज कर दी, क्योंकि उन पर अपनी पत्नी के साथ धोखाधड़ी का मामला था, वह किसी अन्य महिला के साथ समुद्र तट पर देखे गए थे।

दूसरा मामला फ्रांस के डॉमिनिक स्ट्रॉस कान का लिया जा सकता है, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रबंध निदेशक थे और फ्रांस की राजनीति में उनकी गहरी पकड़ बताई जा रही थी। लेकिन उन्हें यह पद इसलिए छोड़ना पड़ा और नेपथ्य में जाना पड़ा कि एक वेश्या ने उन पर शोषण का आरोप लगाया था। क्या इस तरह की कार्रवाई भारतीय राजनीति में दिखती है? ऐसे मामलों में एक-दूसरे पर टीका-टिप्पणी होती है, टीवी शो में हल्की-फुल्की बहस का आयोजन हो जाता है और अखबारों के जरिये खबरें उछाल दी जाती हैं। लेकिन कोई आदर्श स्थापित नहीं किया जाता, जो दुखद है। महिला का फोन टैप कराने का मामला हो या शादी संस्था का सम्मान न करने की बात, क्या भारतीय राजनीति ने उन महिलाओं के सामाजिक कद को अलग करके देखा है?

भाषण में देश के एक बड़े नेता सीधे-सीधे कह देते हैं कि ‘लड़कों से गलती हो जाती है।’ इस तरह की सोच बताती है कि ऐसे लोग और उनके इर्द-गिर्द की जमात महिलाओं की राजनीतिक हिस्सेदारी के पक्षधर नहीं हैं। इसे दूसरे रूप में देखें, तो क्या उस पार्टी की किसी महिला नेता की हिम्मत या हैसियत हुई कि वह इस बयान का विरोध करती? हैरत तो तब होती है, जब अन्य राजनीतिक पार्टियों की बड़ी महिला नेता भी औरतों से जुड़े मुद्दों और स्त्री अस्मिता पर जोर नहीं डालतीं, बल्कि यह मानकर चलती हैं कि इन मुद्दों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने से उनकी छवि एक ‘सॉफ्ट लीडर’ की बनकर रह जाएगी।

अगर वाकई भारतीय राजनीति को अपने पिछड़ेपन से बाहर निकलना है और उसे एक लोकतांत्रिक आदर्श स्थापित करना है, तो न केवल महिलाओं के लिए उसे जगह बनानी होगी, बल्कि स्त्री अस्मिता का भी खयाल करना होगा। यह काम चुनाव आयोग नहीं कर सकता, बल्कि कुछ कदम महिलाओं को उठाने होंगे और अधिक फासले राजनीतिक दलों को पाटने होंगे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

http://www.livehindustan.com/news/business/businessnews/article1-india-natural-gas-demond-per-day-45-45-420040.html


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