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न्यूज क्लिपिंग्स् | कहां है सुधारों की अगली खेप-- रामचंद्र गुहा

कहां है सुधारों की अगली खेप-- रामचंद्र गुहा

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published Published on Jul 12, 2015   modified Modified on Jul 12, 2015
सन 2009 के आम चुनाव के ठीक बाद मैंने बेंगलुरु में एक भाषण सुना, जो नई सरकार के लिए नीतियों के नए रोडमैप पर था। वक्ता थे राकेश मोहन, जो उद्योग व वित्त मंत्रालय में वरिष्ठ पदों पर रह चुके थे और उस वक्त रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर थे। राकेश मोहन का कहना था कि आर्थिक सुधारों की पहली लहर ने व्यापार को सरकारी नियंत्रण से बाहर निकाला और इससे विकास की गति बहुत तेज हो गई। अब जरूरत है सार्वजनिक संस्थानों की गुणवत्ता और क्षमता बेहतर करने की। राकेश मोहन के भाषण ने मुझे बहुत प्रभावित किया, क्योंकि मैं सरकारी अफसरों के परिवार से हूं। हालांकि मैंने सरकारी नौकरी नहीं की, लेकिन एक नागरिक व अध्येता की तरह मेरा कई सरकारों व उनके विभागों के अधिकारियों से संवाद रहा है। मैं सार्वजनिक सेवाओं और सरकारी कर्मचारियों के तेजी से गिरते स्तर का गवाह और कभी-कभी शिकार भी रहा हूं।

सन 2009 में जब संप्रग की सरकार फिर से चुनी गई, तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सुधारों की दूसरी लहर की काफी चर्चा हो रही थी। यह तर्क दिया जा रहा था कि विकास को और तेज करने के लिए उन क्षेत्रों में विदेशी निवेश लाना जरूरी है, जो पहले इसके लिए बंद थे। इसके अलावा श्रम कानूनों को उदार बनाना और जीएसटी के जरिए एकीकृत राष्ट्रीय बाजार बनाना जरूरी है। पर ये उम्मीदें बेकार साबित हुईं। संप्रग सरकार ने नीतिगत सुधारों को सक्रि यता से लागू नहीं किया। पिछले साल जब राजग सरकार सत्ता में आई, तो फिर उम्मीदें बनीं। गुजरात में लालफीताशाही को कम करने वाले और केंद्र में भी वैसा ही करने का वादा करने वाले ताकतवर नरेंद्र मोदी सत्ता में आए। औद्योगिक समुदाय ने तब आशा की और शायद अब भी करता है कि जो काम संप्रग सरकार नहीं कर पाई, वह राजग की सरकार करेगी।

सन 2009 की तरह ही 2015 में भी सुधारों की दूसरी लहर को अर्थ व्यापार करने की सुविधा से ही जोड़ा गया। तब भी और अब भी भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के सुधारों पर बहुत कम ध्यान दिया गया। राकेश मोहन का भाषण इस नजरिये से बहुत दूरदर्शी था। वह मानते हैं कि सुधारों की पहली लहर की उपलब्धियां काफी प्रभावशाली हैं। इनकी वजह से अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ी है, गरीबी भी काफी हद तक कम हुई है और विदेशी मुद्रा की कमी जैसी समस्याएं भी अतीत की बात हो गई हैं। इसके आगे वह कहते हैं कि विकास दर तेज करने व विकास को व्यापक बनाने के लिए हमें सार्वजनिक क्षेत्र को बेहतर करना होगा, खासकर उन सार्वजनिक सेवाओं को विश्वसनीय बनाना होगा, जो निजी क्षेत्र नहीं दे सकता। वह उन चार क्षेत्रों का जिक्र करते हैं, जिनमें सार्वजनिक सेवाएं बुरी हालत में हैं और जिनकी बेहतरी से अर्थव्यवस्था और समाज का भला जुड़ा है।

पहला क्षेत्र खेती है। राकेश मोहन मनरेगा जैसी गरीबी कम करने वाली योजनाओं की उपयोगिता स्वीकार करते हैं, लेकिन कहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र को एक दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है। इसमें दूध, फल उत्पादन, मुर्गी-पालन और मछली-पालन जैसे क्षेत्रों में उत्पादकता व आय बढ़ाने की कोशिशें होनी चाहिए। यहां वैज्ञानिक शोध को बाजार और कर्ज की सहज उपलब्धता से जोड़ा जाना जरूरी है।

दूसरा क्षेत्र शहरी विकास है। जल्दी ही भारत में दुनिया की सबसे बड़ी शहरी आबादी होगी। इसके बावजूद छोटे-बड़े शहरों में, बल्कि दिल्ली, कोलकाता और मुंबई जैसे महानगरों में ज्यादातर शहरी नागरिकों को अच्छे आवास, सफाई और पानी की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। सार्वजनिक परिवहन की हालत भी बहुत खराब है। राकेश मोहन का कहना है कि भारत के शहरों में सार्वजनिक प्रबंधन की विराट विफलता अपने सभी रूपों में हमें देखने को मिलती है।

तीसरा क्षेत्र मानव संसाधन विकास है। भारत में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की हालत बुरी है, जैसा कि 'असेर रपटों' में साफ तौर पर दिखाई देता है। हमारे विश्वविद्यालयों के पास पैसा कम है और उनमें राजनीति ज्यादा है। राकेश मोहन के मुताबिक, हम किसी भी तरह से लगातार आठ प्रतिशत की विकास दर नहीं बनाए रख सकते, अगर हमारा पूरा शिक्षा तंत्र प्राथमिक, माध्यमिक, तकनीकी और उच्च, हर स्तर पर पूरी तरह से बदल नहीं दिया जाता।

चौथा क्षेत्र सार्वजनिक सेवाओं का प्रबंधन है। शिक्षा, परिवहन, बिजली, कानून और व्यवस्था जैसे कई क्षेत्र सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी हैं। लेकिन बिजली बोर्डों, परिवहन निगमों, हवाई अड्डों, रेलवे बोर्डों, पुलिस और न्यायपालिका में ज्यादातर लोग अकुशल, अक्षम और गैर-जवाबदेह हैं। राकेश मोहन कहते हैं कि भारतीयों में श्रेष्ठ प्रतिभाएं निजी क्षेत्रों में जा रही हैं, लेकिन हमें सार्वजनिक सेवाओं को प्रतिष्ठापूर्ण बनाना होगा। इसलिए नहीं कि सत्ता और ताकत की चाह हो, बल्कि सार्वजनिक सेवाओं को बेहतर बनाने की चुनौतियों से निपटने के लिए।

इस बीच हमें प्रशासन के सर्वोच्च स्तरों पर विशेषज्ञों की सीधी भर्ती करनी चाहिए और सारी ऊंची सरकारी नौकरियां सिविल सेवाओं के लिए नहीं छोड़ देनी चाहिए। संप्रग सरकार ने एक-दो इस तरह की अच्छी नियुक्तियां की थीं- जैसे नंदन नीलेकणि और रघुराम राजन। लेकिन इस सिलसिले को आगे नहीं बढ़ाया गया। मेरी नजर में संयुक्त सचिव के ऊपर के सारे पद खुली प्रतिस्पर्द्धा से भरे जाने चाहिए। आईएएस अफसरों को भी इस स्पर्द्धा में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, लेकिन यह साफ कर दिया जाना चाहिए कि चुनाव योग्यता के आधार पर ही होगा।

राकेश मोहन ने इन चार क्षेत्रों पर विस्तार से लिखा है और पांचवें क्षेत्र का संक्षेप में जिक्र किया है। यह क्षेत्र है स्वास्थ्य, जिसका महत्व वह रेखांकित करते हैं, लेकिन उस पर विस्तार से नहीं लिखते, क्योंकि उनके मुताबिक उन्हें इस क्षेत्र की अच्छी जानकारी नहीं है। एक छठे क्षेत्र का मैं जिक्र करूंगा, और वह है पर्यावरण का संरक्षण। भारत पर्यावरण के लिहाज से बहुत गंभीर स्थिति में है। हमारे यहां हवा और पानी का प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। भूगर्भीय पानी के स्रोत खत्म हो रहे हैं और जमीन रासायनिक प्रदूषण की शिकार है। पर्यावरण के साथ ऐसे खिलवाड़ से अभाव व संघर्ष की स्थितियां पैदा हो रही हैं, रोजगार और स्वास्थ्य पर इसका खराब प्रभाव पड़ रहा है। अगर इसे नहीं रोका गया, तो भारत की समृद्धि, सुरक्षा और स्थिरता पर आंच आ सकती है।

 

जिस भाषण को मैंने सुना था, वह राकेश मोहन की किताब ग्रोथ विद फाइनेंशियल स्टैबिलिटी का अंतिम अध्याय है। मैं वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों, नीति आयोग के सदस्यों और वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों से इसे पढ़ने का आग्रह करूंगा। अगर इनमें से किसी ने इसे पढ़ा है, तो मैं उनसे इसे फिर से पढ़े जाने का दरख्वास्त करूंगा। क्योंकि सरकारी नीतियों में इस तरह के विचारों की कोई झलक अभी नहीं दिख रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-Ramachandra-Guha-after-the-general-election-Bangalore-heard-the-speech-new-government-policies-Roadmap-486298.html


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