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न्यूज क्लिपिंग्स् | कानून, कारागार और कैदी- केपी सिंह

कानून, कारागार और कैदी- केपी सिंह

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published Published on Sep 22, 2014   modified Modified on Sep 22, 2014
जनसत्ता 19 सितंबर, 2014: उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में व्यवस्था दी है कि उन विचाराधीन आरोपियों को तुरंत जमानत पर रिहा किया जाए जिन्होंने अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा का आधा समय बतौर आरोपी जेल में व्यतीत कर लिया है। न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया है कि जिला न्यायिक सेवा प्राधिकरण से संबंधित न्यायिक अधिकारी अपने अधिकार-क्षेत्र में प्रत्येक कारावास पर जाकर इस प्रकार के कैदियों की रिहाई के लिए आवश्यक प्रक्रिया की निगरानी करेंगे। इन आदेशों के बाद लंबी अवधि से जेलों में बंद विचाराधीन कैदी रिहा हो सकेंगे। पर उनका क्या होगा, जो थोड़े समय के लिए विचाराधीन कैदी के रूप में जेल भेज दिए जाते हैं। विचाराधीन कैदियों का जेलों में क्या काम?

यह पहली बार नहीं है कि लंबे समय से जेलों में बंद आरोपियों के प्रति चिंता व्यक्त की गई हो। वर्ष 2010 में राष्ट्रीय विधिक अभियान के तहत भी विचाराधीन कैदियों की संख्या कम करने का बीड़ा उठाया गया था। पर धरातल पर स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। देश की 1353 जेलों में बंद कुल तीन लाख पचासी हजार कैदियों में दो लाख चौवन हजार विचाराधीन कैदी हैं। यानी लगभग दो तिहाई कैदी ऐसे हैं, जो बिना सजा के जेलों में बंद हैं। इस परिप्रेक्ष्य में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला स्वागत-योग्य है।

विचाराधीन कैदियों की इतनी अधिक संख्या के पीछे मूलत: पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के अधिकार का दुरुपयोग है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग पचहत्तर लाख व्यक्ति गिरफ्तार किए जाते हैं। इनमें लगभग अस्सी प्रतिशत व्यक्ति छोटे-मोटे अपराधों में संलिप्त होते हैं जिनमें सात साल तक की सजा का प्रावधान है। ऐसे अपराधियों के भाग जाने, अदालत में हाजिर न होने या गवाहों को डराने-धमकाने की आशंका लगभग न के बराबर होती है। इसलिए उन्हें विचाराधीन कैदी के रूप में जेल भेजने का पर्याप्त कानूनी आधार पुलिस के पास नहीं होता। फिर भी पुलिस इस प्रकार के सभी आरोपियों को जेल भेजती रहती है। पुलिस ऐसा क्यों करती है?

आपातकाल के बाद पुलिस सुधारों के लिए गठित धर्मवीर आयोग ने कहा था कि लगभग इकसठ प्रतिशत गिरफ्तारियां जरूरी नहीं होतीं। वर्ष 1994 में जोगेंद्र सिंह प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि पुलिस को केवल उन्हीं मामलों में आरोपियों को गिरफ्तार करना चाहिए जहां इसकी जरूरत हो; जिन मामलों में गिरफ्तारी किए बिना तफतीश पूरी हो सकती हो वहां आरोपी की गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए। वर्ष 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की तरफ से जारी दिशा-निर्देशों में भी यही हिदायत दी गई थी। आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार के उद्देश्य से बनाई गई मलीमथ कमेटी ने भी वर्ष 2000 में अपनी रिपोर्ट में अनावश्यक गिरफ्तारियों पर चिंता व्यक्त करते हुए कुछ सुझाव दिए थे। इस सबके बावजूद गिरफ्तारियों की संख्या साल-दर-साल बढ़ती रही। संभवत: पुलिस अपने सबसे प्रमुख अधिकार यानी गिरफ्तारी के अधिकार में किसी प्रकार की कटौती के सुझाव को मानने के लिए तैयार नहीं थी।

संज्ञेय अपराधों में संलिप्त व्यक्तियों को गिरफ्तार करने के लिए कानून पुलिस को अधिकृत करता है। पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि प्रत्येक संज्ञेय अपराध में गिरफ्तारी जरूरी है। कानून की इस निहित भावना को वर्ष 2010 में पुन: दंड प्रक्रिया संहिता में एक नई धारा 41-ए जोड़ कर स्पष्ट रूप से स्थापित कर दिया गया था। इस नए प्रावधान के अनुसार, सात वर्ष से कम सजा वाले मामलों में अगर पुलिस किसी को गिरफ्तार करना चाहती है तो उसे गिरफ्तारी की जरूरत को कारण बता कर स्पष्ट करना होगा।

इसके बावजूद स्थिति में सुधार नहीं हुआ। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2010 के बाद दो वर्षों में ही देश में गिरफ्तार कुल व्यक्तियों की संख्या लगभग चौहत्तर लाख से बढ़ कर उनासी लाख हो गई।

पुलिस द्वारा कानून के साथ लुका-छिपी का खेल कुछ हद तक माना जा सकता है। पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यक्तियों को अदालतों द्वारा जमानत पर छोड़ने के बजाय विचाराधीन कैदी के रूप में जेल भेज देने की मानसिकता एक विचारणीय विषय है। कानून की भावना यह है कि सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधों से संबंधित मुकदमों में आमतौर पर आरोपियों को जमानत पर छोड़ दिया जाना चाहिए। पर ऐसा नहीं हो रहा है। अधिकतर आरोपियों को कुछ समय के लिए विचाराधीन कैदी के रूप में जेल जरूर भेजा जाता है। इस मानसिकता को समझने और बदलने की जरूरत है।

आंकड़े जाहिर करते हैं कि लगभग अड़तीस प्रतिशत विचाराधीन कैदियों को पहले तीन महीने के भीतर जेल से जमानत पर रिहा कर दिया जाता है। लगभग साठ प्रतिशत विचाराधीन कैदियों को एक वर्ष के अंदर जमानत मिल जाती है। यह समझ से परे है कि जब साठ प्रतिशत विचाराधीन कैदियों को साल भर के भीतर जमानत पर छोड़ दिया जाता है, तो फिर उन्हें जेल भेजा ही क्यों गया था? उन्हें विचाराधीन कैदी के रूप में कुछ दिनों के लिए जेल भेज कर सबक सिखाना इस प्रकार के कारावास का एकमात्र तर्क दिखाई देता है। पर यह कानून की मूल भावना के विरुद्ध है।

उच्चतम न्यायालय ने पुलिस और अदालतों की मानसिकता को बखूबी समझते हुए हाल में अरनेश कुमार बनाम बिहार सरकार प्रकरण में पुलिस और अदालतों के लिए स्पष्ट आदेश जारी किए हैं। इनमें कहा गया है कि पुलिस गिरफ्तारी करते समय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41ए के प्रावधानों का सम्मान करते हुए जरूरत के आधार पर ही आरोपियों को गिरफ्तार करेगी। अदालतों पर भी यह जिम्मेदारी डाली गई है कि जब उनके समक्ष किसी गिरफ्तार व्यक्ति को पेश किया जाता है तो इस बात की समीक्षा की जाए कि क्या गिरफ्तारी जरूरी थी? अगर नहीं, तो व्यक्ति को जमानत पर छोड़ने पर विचार किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि इन दिशा-निर्देशों की अवहेलना करने वाले पुलिस और न्यायिक अधिकारी अदालत की अवमानना के पात्र माने जाएंगे।

काफी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी भी हैं जो कानून की अनभिज्ञता के चलते या उचित पैरवी के अभाव में जेलों में बंद हैं। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436ए उन विचाराधीन कैदियों को जमानत पर छोड़ने का प्रावधान करती है जिन्होंने अपने अभियोग के लिए संभावित अधिकतम सजा का आधा समय जेल में गुजार लिया हो। धारा 436 यह प्रावधान भी करती है कि जमानतीय मामलों में बंद उन आरोपियों को एक सप्ताह के बाद उनके निजी मुचलके पर रिहा कर दिया जाए जिनके लिए कोई जमानत देने के लिए तैयार नहीं है। इसके अलावा, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) और धारा 437(6) में भी तफतीश और न्यायिक कार्यवाही में होने वाली देरी की वजह से विचाराधीन कैदियों को जमानत पर छोड़ने के प्रावधान हैं, जिनका प्रयोग उतना नहीं हो रहा है जितना होना चाहिए।

विचाराधीन कैदियों की संख्या कम करने के उद््देश्य से 2006 में दंड प्रक्रिया संहिता में एक महत्त्वपूर्ण संशोधन करके ‘प्ली बार्गेनिंग' का नया अध्याय जोड़ा गया। इसके तहत सात साल तक की सजा के मामलों में आपसी सहमति से मुकदमों का निपटारा करने का विकल्प प्रदान किया गया है। अभियुक्त अपना अपराध स्वीकार करने के एवज में सजा में आधी से अधिक छूट प्राप्त करके रिहा हो सकता है। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में यह सिद्धांत ज्यादातर आरोपियों द्वारा प्रयोग में लाया जा रहा है। पर भारत में यह प्रयोग विफल रहा है।

भारत में ‘प्ली बार्गेनिंग' के प्रावधान व्यावहारिक नहीं हैं, जिसके कारण विचाराधीन कैदी इसका प्रयोग नहीं कर रहे हैं। इन प्रावधानों को व्यावहारिक बना कर विचाराधीन कैदियों की संख्या और कम की जा सकती है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 में उन अपराधों की सूची दी गई है जिनमें पक्षकार आपस में समझौता करके लोक अदालतों के माध्यम से मुकदमों का निपटारा कर सकते हैं। इस सूची में अनेक छोटे अपराधों को जोड़ कर इस प्रावधान का दायरा बढ़ाया जा सकता है।

पर इन सबसे ज्यादा कारगर प्रस्ताव मलीमथ कमेटी का था। उसने सुझाया था कि पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार देने वाले संज्ञेय अपराधों की संख्या कम की जाए। कुछ संगीन अपराधों को छोड़ कर बाकी मामलों को असंज्ञेय अपराध के रूप में पुन: वर्गीकृत किया जाए ताकि पुलिस इन मुकदमों में गिरफ्तारी ही न कर सके। इन अपराधों को इस प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है कि पुलिस बिना अदालत की अनुमति के आरोपियों को गिरफ्तार न कर सके।

दुर्भाग्यवश इस सुझाव पर अभी तक सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान नहीं गया है, जबकि इस पर अमल करने की सबसे अधिक जरूरत है। भारत में न्याय-व्यवस्था का एक पहलू और है। अपराध-पीड़ित व्यक्ति चाहता है कि पुलिस उसकी हिमायती बन कर आरोपी को तुरंत गिरफ्तार करे, चाहे मामला छोटे-मोटे अपराध का ही क्यों न हो। नागरिकों को जागरूक करने की जरूरत है कि पुलिस एक कानूनी तंत्र है, शिकायतकर्ता की पक्षधर एजेंसी नहीं। उन्हें यह भी बताने की जरूरत है कि अब प्रत्येक मुकदमे में आरोपियों को गिरफ्तार करना पुलिस के लिए कानूनन जरूरी नहीं है।

भारत जैसे देश में संगीन अपराधों में शामिल कुछ अपराधियों को तुरंत गिरफ्तार करके कारावास में डालना हमेशा एक जरूरत रहेगी। पर छोटे अपराधों के मामलों में इतनी अधिक संख्या में विचाराधीन कैदियों को जेल में रखना न्याय के मान्य सिद्धांतों के विरुद्ध है। विचाराधीन कैदियों में लगभग पचहत्तर प्रतिशत बाइज्जत बरी हो जाते हैं; उनकी कैद के दिनों की भरपाई कौन करेगा? कारागार सजायाफ्ता कैदियों के ही आवास होने चाहिए।

इस स्थिति को स्थापित करने के लिए कानून में बदलाव के साथ-साथ पुलिस और न्यायिक अधिकारियों की मानसिकता बदलना भी बहुत जरूरी है। इस विषय पर न्याय-व्यवस्था के प्रत्येक अंग को संवेदनशीलता के साथ विचार करना चाहिए। न्याय-व्यवस्था से जुड़े उच्चाधिकारियों को गैर-जरूरी गिरफ्तारियों के लिए व्यक्तिगत रूप से जवाबदेह बना कर विचाराधीन कैदियों की संख्या और भी कम की जा सकती है।


http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=77571:2014-09-19-06-41-13&catid=20:2009-09-11-07-46-16


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