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न्यूज क्लिपिंग्स् | कितना काला है काला धन?- प्रीतीश नंदी

कितना काला है काला धन?- प्रीतीश नंदी

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published Published on Jul 15, 2015   modified Modified on Jul 15, 2015
आखिरकार कोई तो बुद्धिमानी से बोला। अब तक तो हमने काले धन को लेकर हर किसी को आक्रोश व्यक्त करते हुए ही देखा, लेकिन किसी ने व्यावहारिक समाधान नहीं सुझाया। बोफोर्स घोटाले से इसकी शुरुआत हुई थी और उसके कारण राजीव सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। फिर तो हर किसी को यह समझ में आ गया कि काला धन राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की प्रतिष्ठा को खत्म करने का एकदम कारगर उपाय है। काले धन को लेकर शेखी बघारी जानेे लगी। एनडीए सरकार तो एक कदम आगे जाकर काले धन पर लगाम लगाने के लिए सच में काले कानून ही ले आई।

ऐसे समय में मुख्य आर्थिक सलाहकार का कॉमन सेन्स की भाषा में बोलना सराहनीय है। अरविंद सुब्रह्मण्यम ने साफ कहा कि ऐसे किसी विषय के बारे में इतना बोलना ठीक नहीं है, जिसके बारे में हम ज्यादा कुछ कर नहीं सकते। हर बार जब हम छाती कूटते हैं और अपने सात्विक क्रोध में चीख-पुकार मचाते हैं तो हम अपने देश को ही बदनाम करते हैं। दुनिया में सिर्फ भारत ही ऐसा देश नहीं है, जहां लोग कर चोरी करने अथवा अवैध रूप से मुनाफा कमाने के बाद उस धन को विदेशी बैकों में रख देते हैं। हां, सिर्फ हम ही ऐसे राष्ट्र हैं, जो इसे लेकर इतना शोर मचाते हैं। वह भी इस स्थिति को सुधारने के लिए कुछ किए बगैर।

एक तरफ तो हमारे नेता शेखी बघारते हैं और दूसरी तरफ हमारा मीडिया इस शेखी को बड़े गर्व के साथ ठुकराकर बताता है कि कैसे और अधिक भारतीय लंदन व न्यूयॉर्क में लग्ज़री अपार्टमेंट खरीद रहे हैं, दुबई के मॉल व बॉन्ड स्ट्रीट में खरीदी कर रहे हैं, लेक कोमो व मोंटेनेग्रो के नज़दीक दूसरा घर बसा रहे हैं और वेगस तथा मकाऊ में पोकर के ऊंचे दांव लगा रहे हैं। जहां रुपया लगातार नीचे गिर रहा है वहीं, हर कोई छुटि्टयां बिताने विदेश जा रहा है। हर कोई बच्चों को विदेशी स्कूलों में पढ़ने भेज रहा है, लेकिन साथ में अर्थव्यवस्था के धीमे पड़ने और वादे के मुताबिक तेजी से आर्थिक सुधार न होने का रोना भी रो रहा है।

तो आइए यह सब छोड़ें और अपने आप से सवाल करें : असली समस्या है क्या? काला धन भारतीय व्यवस्था को अच्छी तरह चलाने में मददगार है और वह इसे दोहरे अंक के जीडीपी लक्ष्य की ओर ले जा रहा है। क्या वाकई यह इतना बड़ा मुद्‌दा है? या हम हमेशा की तरह निरर्थक शोर मचा रहे हैं? ज्यादातर अर्थशास्त्री आपको बताएंगे कि हमारी काली अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा है, लेकिन शायद उतना बड़ा नहीं, जितना हम दावा करते हैं। इसके होने का कारण भी सरल-सा है। हमारी कर प्रणाली अत्यधिक दोषपूर्ण है। सामाजिक न्याय लाने के हमारे प्रयासों के तहत हम परंपरागत रूप से छोटे से समुदाय पर जरूरत से ज्यादा टैक्स लगाते रहे हैं। वह इससे कुढ़ता रहता है और पैसा इकट्‌ठा करने वाले तंत्र ने उसकी कुढ़न का फायदा उठाया और अपना निजी रैकेट चलाने लगा।

सच तो यह है कि गलत नीतियों के कारण काला धन पैदा होता है। पहली बात तो यही है कि कोई नागरिक गुनाह नहीं करना चाहता, चाहे वह कर चोरी के रूप में ही क्यों न हो। हम गलत काम तब करते हैं, जब सही काम करना हमारे बस में नहीं होता। भारत में कर अधिकारियों का पूरा ध्यान उन 2 से 3 फीसदी लोगों पर होता है, जो अपनी आमदनी पर वास्तव में कर चुकाते हैं। हर साल उन्हें और अधिक वसूली के लिए निचोड़ा जाता है। शेष लोगों का क्या? अास-पास निगाह डालें तो आप देखेंगे कि सर्वाधिक नकदी कहीं नजर आ रही है तो वे हैं ग्रामीण क्षेत्र, जहां धनी लोग कोई कर नहीं चुकाते। वे अपनी मोहक एसयूवी नगदी देकर खरीदते हैं। मोटेतौर पर वे जमीन व मकान की खरीदी भी नगद ही करते हैं। अपना सारा व्यापार वे नगद ही करते हैं। क्या आप उन्हें इसके लिए दंडित करेंगे? या इस तथ्य को कबूल करेंगे कि बड़ी संख्या में भारतीय, खासतौर पर वे, जो टैक्स-नेट के बाहर हैं, अब भी नगदी में ही सारा व्यवहार करते हैं। क्या यह कोई जघन्य अपराध है या इसका केवल इतना अर्थ है कि जहां भारत बदल रहा है और ग्रामीण भारत में हर किसी के पास सेल फोन या बैंक खाता है, लेकिन वह इतनी तेजी से नहीं बदल रहा है कि सारे लोग नगद व्यवहार छोड़कर प्लास्टिक मनी यानी बैंक कार्ड अपना लें। नहीं, असल में यह मामला काले धन का है ही नहीं। यह ऐसी अर्थव्यवस्था का मामला है, जो अपनी गति से आगे बढ़ रही है और तेजी से बढ़ने के प्रयासों का विरोध कर रही है। भाजपा अध्यक्ष ने उचित ही जिसे जुमला भर बताया है, काले धन के पीछे जाने का वह पूरा एजेंडा सिर्फ एक चुनावी नारा है। असलियत तो यह है कि काला धन हमारी अर्थव्यवस्था का मूलभूत और वास्तविक अंग है। यह हमारे अपने अतार्किक और सनक भरे कर कानूनों के कारण पैदा हुआ है। नागरिकों को दोष देने की बजाय हम उन लोगों को दोष क्यों नहीं देते, जिन्होंने वे कानून बनाए हैं? उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी के मातहत सबसे अधिक टैक्स चुकाने वालों को अपनी आय का 97 फीसदी हिस्सा आयकर के रूप में देने को कहा गया था। इसमें संपत्ति कर और जोड़ लें तो एक ऐसी कर व्यवस्था सामने आती है, जो आपसे कमाई से ज्यादा वसूली करती नज़र आती है। इस तरह काला धन बढ़ता गया।

बेशक, रिश्वतखोरी गलत है। जबरन वसूली तो इससे भी खराब है। हालांकि, जैसा हम सब जानते हैं, यह सब काला धन पैदा किए बिना हो सकता है। ऐसे रचनात्मक अकाउंटेंट हैं, जो आपको बताएंगे कि काला धन पैदा किए बिना रिश्वत कैसे दी या ली जा सकती है। यह सोचना भी गलत है कि सारी नगदी अवैध व्यवसाय से ही पैदा होती है। यह तो प्राय: बिकाऊ राजनेताओं और लालची सरकारी अधिकारियों को बही-खातों के बाहर सौदेबाजी में किए भुगतान के जरिये बिल्कुल वैध व्यवसाय से ही पैदा होता है। मुंबई में फ्लैट खरीदने वाले साधारण व्यक्ति को ऐसा करने के लिए नगदी पाने हेतु गिड़गिड़ाना पड़ सकता, उधार लेना होगा या चोरी करनी पड़ेगी। कोई यदि अपनी संपत्ति बेच रहा है और पूरा पैसा चेक से चाहता है तो 30 फीसदी कम राशि स्वीकार करनी होगी। व्यवस्था इस तरह काम करती है। इसके पहले कि हम लोगों को उन पर थोपे गए अपराध के लिए दंडित करें, हमें यह व्यवस्था सुधारनी होगी। हमारे कानून ऐसे होने चाहिए कि वे लोगों को (धीरे-धीरे, न कि एक झटके में) ऐसी अर्थव्यवस्था अपनाने के लिए प्रेरित करें कि कम से कम सौदे नगदी में करने पड़ें। इस बदलाव को पुरस्कृत कीजिए। छड़ी से काम नहीं बनेगा, कभी बनता भी नहीं है। पूरी तरह ईमानदार नागरिकों को गलत काम का दोष देने की बजाय हमें कोई समाधान खोजना होगा। भारत कर चोरों का देश नहीं है। हम ऐसे राष्ट्र जरूर हैं, जहां के कर कानूनों को ठीक करनेे की जरूरत है। और यह तभी होगा जब सत्ता में बैठे लोग यह निर्णय लें कि गलत कानून बनाकर वोट बैंक का पोषण अब हम बर्दाश्त नहीं कर सकते।


http://www.bhaskar.com/news/ABH-bhaskar-editorial-by-pritish-nandi-5052019-NOR.html


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