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न्यूज क्लिपिंग्स् | किराए की कोख और कानून-- सुधा सिंह

किराए की कोख और कानून-- सुधा सिंह

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published Published on Aug 31, 2016   modified Modified on Aug 31, 2016
सरोगेसी विधेयक पर हर तरह की राय आ रही है। अन्य देशों का हवाला दिया जा रहा है जहां सरोगेसी पर पाबंदी है, विशेषकर यूरोपीय देशों का। मोटे तौर पर सरोगेसी दरअसल ऐसे दंपति को संतान का सुख देने का जरिया है जहां स्त्री किसी कारण से गर्भधारण नहीं कर सकती, लेकिन जिन्हें अपनी जैविक संतान, कुछ समान जिनेटिक गुणों के साथ, चाहिए। ऐसे में महिला का अंडा और पुरुष का वीर्य, निषेचन के बाद किसी अन्य स्त्री के गर्भ में चिकित्सकीय सहायता से रखा जाता है, और गर्भ के परिपक्व होने तक दूसरी स्त्री की कोख को किराए पर लिया जाता है। इसमें तमाम मेडिकल जटिलताएं शामिल हैं। पर यह धड़ल्ले से विभिन्न देशों में चल रहा है, जिसे नियंत्रित करने के लिए कई यूरोपीय देशों ने कानून बना लिए और भारत बनाने की प्रक्रिया में है।
सरोगेसी विधेयक को लेकर जितनी बातें आ रही हैं, उन सबमें फोकस इसके दुरुपयोग, वैधता, अवैधता, चिकित्सकीय सफलता का प्रतिशत, शारीरिक और भावनात्मक पक्ष आदि पर है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि सरोगेसी की तकनीक का चिकित्सकीय आविष्कार हुआ होगा, तब इसके पीछे की आवश्यकता और सोच क्या थी? क्या स्त्री को मातृत्व के झंझट से मुक्त कर स्वायत्तता देना इसका उद््देश्य था? नहीं, सरोगेसी के द्वारा स्त्री की स्वायत्तता का भ्रम नहीं पाला जा सकता। इससे कोई स्त्री स्वायत्त नहीं होती, न कोख भाड़े पर लेने वाली न ही कोख को पैसे के लिए भाड़े पर देने वाली। एक भावनात्मक और सामाजिक संबंध को बनाए रखने के लिए बंधती है और दूसरी घोर आर्थिक अभाव के कारण शारीरिक रूप से उत्पीड़क बंधन में बंधती है। शरीर का कष्ट आइवीएफ और इसमें प्रयुक्त अन्य प्रणालियों में, कोख भाड़े पर लेने वाली स्त्री भी कम नहीं भोगती, पर गर्भधारण के दौरान उत्पन्न होने वाली जटिलताओं और कई बार गर्भ नष्ट होने के भीषण शारीरिक आघात से बच जाती है।
सरोगेसी की तकनीक का आविष्कार निश्चित रूप से स्त्री को स्वतंत्र-स्वायत्त बनाने के लिए नहीं हुआ। अपनी जिंदगी के महत्त्वपूर्ण वर्षों को जो वह कई-कई बार मां बनकर सीधे रूप में और बाद में शिशु को बड़ा कर पांवों पर चलने लायक बनाने में खर्च करती है, उससे उसे बचाने के लिए नहीं हुआ। औसतन एक स्त्री अपनी प्रजनन क्षमता के वर्षों में बारह बार गर्भ धारण कर सकती है। और एक मनुष्य शिशु को दो से ढाई साल में पैरों पर सीधे चलने की ताकत आती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहले की स्त्रियों का कितना बहुमूल्य समय शिशु को स्तनपान और उसे पैरों पर चलाने में मोटे तौर पर जाता होगा। लेकिन चिकित्साशास्त्र का कोई आविष्कार स्त्री को, उसकी इस जैविक भूमिका से मुक्ति या उसे किसी तरह से स्वायत्त बनाने की दृष्टि से नहीं हुआ, इसके प्रमाण हैं।

प्रजनन नियंत्रण संबंधी सुरक्षा के साधनों को स्त्री की मुक्ति का बड़ा कारण माना जाता है। लेकिन इस तरह के आविष्कार का दबाव तब महसूस किया गया जब मनुष्य ने कृषि संस्कृति से बाहर निकल कर शहरों का रुख किया। अब शहरों में नियंत्रित जनसंख्या की जरूरत थी। यह भी पाया गया कि मजदूरों और गरीब तबकों में सेक्स जनसंख्या वृद्धि का बड़ा कारण है। लेकिन सेक्स उनके मनोरंजन का एक बड़ा साधन भी है। सेक्स संबंध न रहने पर दांपत्य जीवन नष्ट हो सकता था। गर्भनिरोधकों की खोज ऐसे समय पर की गई। पुरुष गर्भनिरोधक के रूप में ‘कंडोम' का प्रचलन हुआ। इसमें सुरक्षा की आवश्यकता प्राथमिक रूप से स्त्री की होने पर भी आविष्कारों का ढर्रा सुविधा और नियंत्रण की दृष्टि से पुरुषकेंद्रित रहा।
विवाह संबंध की दूसरी बड़ी अनिवार्यता संतानोत्पत्ति थी। यूरोप में सरोगेसी का संकट तब विकराल रूप में उठ खड़ा हुआ जब स्त्रियों ने कम उम्र में विवाह करने के बजाय कैरियर पर जोर दिया। स्त्रियां अपने प्रजनन का आदर्श समय, उच्चशिक्षा, नौकरी और रोजगार को देने लगीं।

बड़ी उम्र में विवाह के बाद संतानोत्पत्ति में जटिलताएं होती हैं, यह स्पष्ट था। फिर भी बहुत बड़ी संख्या में स्त्रियों ने कैरियर पर जोर दिया। जाहिर है, कैरियर में जम चुके और विवाहित स्त्री-पुरुष के पास पैसों का संकट नहीं था। सरोगेसी ऐसे दंपति के लिए आशा की किरण बनी। जैसे-जैसे स्त्री-पुरुष के बीच विवाह के अलावा अन्य सह-संबंधों को स्वीकृति मिलती गई वैसे-वैसे उन दंपतियों के लिए भी यह बेहतर विकल्प बना। कुछ जगहों पर अकेली मां या अकेले पिता को भी सरोगेसी के जरिए संतान प्राप्त करने का अधिकार मिला। इसी तरह से जिन समाजों में यौन संबंधों के अन्य रूपों को भी सामान्य माना गया, वहां समलैंगिक दंपति को भी यह अधिकार मिला।

प्रस्तावित विधेयक में व्यवसाय के रूप में सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाया गया है। उल्लेखनीय है कि भारत में विभिन्न शहरों में जगह-जगह फर्टिलिटी सेंटर कुकुरमुत्ते की तरह उगे हुए हैं। पच्चीस हजार करोड़ का कोख का व्यापार चल रहा है। जिस तरह बच्चा गोद लेने के कानून में पहले झोलझाल था, वैसे ही सरोगेसी के संबंध में भारत में कोई कड़ा कानून न होने के कारण इसमें तमाम तरह के अवैध, आधे-अधूरे, खानापूर्ति करने वाले केंद्रों का और बिचौलियों का बोलबाला है। सरोगेसी के लिए देशी-विदेशी मध्यवर्ग के आकर्षण का बड़ा कारण, यहां का इस संबंध में लचीला कानून है। दूसरा बड़ा कारण यहां की आम जनता का मेडिकल अज्ञान है, जो अब भी मरीज के अधिकारों तथा अस्पतालों, डॉक्टरों, दवा कंपनियों और बीमा कंपनियों की जवाबदेही और जिम्मेदारी को लेकर सजग नहीं है। इसमें भारतीय मध्यवर्ग के शिक्षित तथा निम्न मध्यवर्ग व गरीब तबके के बीच ज्यादा फर्क नहीं।

ऐसे गिनती के उदाहरण मिलेंगे जिनमें दवा कंपनियों, बीमा कंपनियों, अस्पताल और संबंधित डॉक्टर को उनकी लापरवाही के लिए बड़ी सजा मिली हो। नागरिक अधिकारों के प्रति लापरवाही भारत में आम है। ऐसे में यहां सरोगेसी के बाजार का फलना-फूलना तय है।

सरोगेसी की प्रक्रिया में दो महत्त्वपूर्ण पक्ष शामिल हैं- एक तो पैसा, और दूसरा, स्त्री की देह। स्त्री की देह के बल पर अगर घर में पैसा आता हो तो इससे उत्तम, मनमाफिक क्या हो सकता है! सरोगेसी के लिए कोख को भाड़े पर देने का काम अमीर वर्ग की स्त्रियां नहीं करतीं। वे कोख भाड़े पर लेती हैं। गरीबी के कारण स्त्री का दैहिक श्रम घर में काम करने के अलावा छोटी-छोटी फैक्टरियों और घरेलू नौकरियों में बिकता ही है। यहां तक कि अवैध तरीके से देह-व्यापार में भी शामिल होकर वे पैसा कमाती हैं। इन सबमें स्त्री की देह के शोषण का भयानक चक्र शामिल है। पिछले कुछ दशकों में भारत में भी यूरोप के जैसी शहरी जीवनशैली का विकास और रोजगार करने वाली स्त्रियों की संख्या में इजाफा हुआ। परिणामत: सरोगेसी के व्यापार को भी चमक मिली।

प्रस्तावित सरोगेसी विधेयक में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हैं, जिनके पीछे तर्क है कि वे भारत के सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रख कर शामिल की गई हैं। इसमें एक बहुत अच्छी बात है कि सरोगेसी को पैसे के एवज में प्रतिबंधित किया गया है। उन दंपतियों को कोख भाड़े पर लेने से प्रतिबंधित किया गया है जिनके पास अपनी या गोद ली हुई संतान है। लेकिन इसमें विवाह के अतिरिक्त भारतीय समाज में मान्यता-प्राप्त स्त्री-पुरुष के लिव-इन-रिलेशनशिप, एकल अभिभावकत्व वाले स्त्री-पुरुष को इस सुविधा से बाहर रखा गया है। यही नहीं, विदेशियों और समलैंगिकों को भी प्रतिबंधित किया गया है।

विवाह के पांच वर्षों के बाद ही सरोगेसी की सुविधा देने का प्रावधान किया गया है। ये दंपति भी अपने निकट या दूर के संबंधी से ही कोख भाड़े पर ले सकते हैं। इसका एक नतीजा तो यह है कि अब कुल और गोत्र को भुला कर जो व्यक्तिवादी-पूंजीवाद परवान चढ़ा था, वह अब संबंधों में दूर-पास का कुल-गोत्र तलाशेगा और उनके अपेक्षाकृत धनाढ्य रिश्तेदार भी परिवार का भला करने का सुख लेंगे। एक तरह से रक्त संबंधों का दायरा मजबूत होगा। हम फिर से आदिम कबीलाई समाज की ‘यौनिक' तो नहीं कह सकते पर ‘कोखीय' उदारता की तरफ मुड़ने को तैयार होंगे। परिवार के मूल के रूप में परिवार की इज्जत घर में रहेगी! इसमें धन या संपत्ति का चल या अचल रूप में आदान-प्रदान नहीं होगा, यह सरकार कैसे सुनिश्चित करेगी, विधेयक में यह स्पष्ट नहीं है।

दूसरी चीज कि केवल स्त्री-पुरुष के बीच संपन्न, पांच साल चल चुके विवाह में ही इसे स्वीकृति देना और स्वयं विवाह संस्था के भीतर जगह बना रहे स्त्री-पुरुष के साहचर्य जनित संबंधों के लिए इसे स्वीकृति न देना, जिसे गंभीर सामाजिक दबाव में कानूनी मान्यता भी हासिल हुई, स्वयं आगे बढ़े हुए कदम को पीछे खींच लेना नहीं है? मूल्य स्थायी नहीं होते, उनका निर्माण सामाजिक दबाव की प्रक्रिया में ही होता है। समलैंगिकों को यह अधिकार न देना, यौन संबंध के अन्य रूपों के प्रति निषेधात्मक रवैया है। तीसरी चीज, कि ऐसे भी लोग हो सकते हैं जिनके परिवार ने बहिष्कार किया हुआ हो। वे कहां से परिवारी जन लाएंगे और दूरदराज का कोई मिल भी गया तो क्या केवल मदद की दृष्टि से इस स्थिति में अपनी स्त्री को जाने देगा? एक अन्य चीज कि इस विधेयक पर चिकित्सा विज्ञान की तरक्की और विकास के परिप्रेक्ष्य से भी विचार किया जाना चाहिए। इस तरह के प्रतिबंधों से इस क्षेत्र में आगे के शोधकार्यों के लिए प्रोत्साहन की स्थिति बनेगी या नहीं, यह सोचा जाना चाहिए।


http://www.jansatta.com/politics/jansatta-editorial-about-surrogacy-laws/137429/


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