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न्यूज क्लिपिंग्स् | किस दिशा में जा रहा समाज-- महेश तिवारी

किस दिशा में जा रहा समाज-- महेश तिवारी

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published Published on Jul 11, 2017   modified Modified on Jul 11, 2017
इस सभ्यता को हुआ क्या है। कहीं हिंसात्मक माहौल है, कहीं बर्बरता की सीमा लांघी जा रही है। क्या यही लोकतांत्रिक व्यवस्था है? जिस समाज की सभ्यता और संस्कृति के रग-रग में आपसी भाईचारा और वसुुधैव कुटुम्बकम की भावना समाहित है, अगर उस समाज में बर्बरता की प्रवृत्ति बढ़ रही है और सारा परिवेश हिंसा से आक्रांत नजर आ रहा है तो फिर इसके कारणों पर विचार करना बहुत जरूरी हो गया है। हम देख रहे हैं कि हमारा लोकतंत्र भीड़तंत्र में बदलता जा रहा है। हर तरफ उग्र भीड़ का खौफ है, और भीड़ का व्यवहार लगातार हिंसात्मक होता जा रहा है। जिस देश के लिए कहा गया हो कि हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं उस देश में सांप्रदायिक भेदभाव और धर्म-जाति के आधार पर वैमनस्य का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अगर देश में धर्म-जाति के ठेकेदारों की बदौलत उग्रवाद की भावना प्रबल हो रही है तो फिर देश के रहनुमाओं के साथ समाज को भी प्राथमिकता के साथ इस विषय पर गौर करना होगा कि विश्व को सभ्यता की सीख देने वाले देश का नागरिक आदमखोर भेड़िया क्यों बनता जा रहा है! समय हमें अगाह कर रहा है कि हम अपनी सभ्यता को इक्कीसवीं सदी में प्राप्त उपलब्ध्यिों पर गुमान करने से पूर्व विचार करें, कि क्यों हमारा देश- जो जगतगुरु होने का दम भरता है, जो मानता है कि आपसी भाईचारा उसकी परंपरा का हिस्सा रहा है, क्यों आपसी क्लेश और बेकार के टकरावों व झगड़ों में पड़ कर मानवता को शर्मसार कर रहा है। यह हमारे उस समाज के लिए खतरे की घंटी है जिस समाज में कबीर, तुलसीदास जैसे महापुरुष हुए और जो धर्म के सारतत्त्व को समझ कर आपसी सौहार्द बनाए रखने का संदेश
दे गए हैं। भारत की बुनियाद विविधता के बीच एकता में है, उसे धर्म और अन्य आधारों पर विभाजित करने वाले समूहों से बचाना होगा।


आज देश की स्थिति यह हो चली है कि पुलिस और प्रशासनिक अमला भी इन घटनाओं का मूकदर्शक बन चुका है, या फिर वह खुद इस भीड़तंत्र का निशाना बन रहा है। ऐसे में हमारा देश किस राह पर जा रहा है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। यह हमारे लोकतंत्र की रस्म बन गई है कि कुछ गिनी-चुनी घटनाओं का मुकदमा दर्ज कर लिया जाता है, और कुछ पर तो सरकारें और सियासतदां महज निंदा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। फिर सब कुछ पहले की तरह चलता रहता है। इस भीड़तंत्र से कैसे निपटा जाए, आज यह एक अहम सवाल बन गया है।भीड़ के वहशियाना व्यवहार की एक वजह भीड़ की बनावट होती है। भीड़ में कोई जवाबदेह नहीं होता। फिर, भीड़ नकल की प्रवृत्ति से संचालित होती है। भीड़ में शामिल लोग व्यक्ति के रूप में नहीं सोचते, और देखादेखी व्यवहार करते हैं। इस तरह वे कई बार सही-गलत का विवेक खो बैठते हैं। दूसरी वजह यह धारणा होती है कि भीड़ में रह कर कुछ भी करो, पकड़ में नहीं आएंगे, पहचाने ही नहीं जाएंगे, भीड़ चेहरा-विहीन होती है। यह धारणा असामाजिक तत्त्वों का हौसला बढ़ाती है। लेकिन जो नई परिघटना हुई है, वह यह कि कुछ अपराधों पर समाज का रुख नरम रहता है। कुछ लोग निहित स्वार्थों से प्रेरित होकर इन अपराधों को लगातार महिमामंडित करने की कोशिश करते रहते हैं। इस दुष्प्रचार का असर समाज में भी दिखाई देता है। पर इसके पहले कि सामाजिक चेतना का अपराधीकरण हो जाए, हमें समाज की मानवीयता को बचाने की मुहिम छेड़नी होगी।


वर्तमान दौर में कट््टरता अपनी चरम सीमा की तरफ अग्रसर हो रही है। उस पर लगाम लगानी होगी, नहीं तो आने वाले वक्त में भीड़तंत्र बहुत बड़ा खतरा बन जाएगा। अगर भीड़तंत्र कहीं गोहत्या रोकने के नाम पर हिंसा करने तो कहीं धर्म-संप्रदाय के आधार पर हत्या करने पर बल दे रहा है, तो यह हमारे समाज का अब तक का सबसे विकृत रूप जाहिर हो रहा है। उग्रवाद कभी भी किसी धर्म-संप्रदाय और देश के हित में साधक नहीं हुआ बल्कि बाधक ही बना है। इसलिए उग्र होती भीड़ को काबू में करने की व्यवस्था करनी होगी, वरना यह भीड़तंत्र देश मेंचारों तरफ बड़ी भयावह स्थिति उत्पन्न कर देगा। देश की व्यवस्था को धता बताने का कार्य तब और भी चिंताजनक मालूम पड़ता है, जब इस भीड़तंत्र के गुनाहों पर पर्दा डालने का प्रयास किया जाता है। यह हमारे देश की वर्तमान व्यवस्था की विडंबना ही कही जाएगी कि उग्र भीड़ तंत्र को रोकने की नहीं, बल्कि उकसाने की रवायत बढ़ रही है। यह प्रवृत्ति देश को गर्त की तरफ खींच रही है, और इसके कारण देश में कानून-व्यवस्था और न्याय प्रणाली का भय मिटता जा रहा है।


अगर हरियााणा के असावटी स्टेशन पर खूनी भीड़ के कृत्यों को कोई देख नहीं सका, और जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में पीड़ित अयूब पंडित को कोई पहचान नहीं सका, तो इससे भयावह स्थिति हमारे समाज की और क्या हो सकती है, कि उसकी मानवता घिस चुकी है। दरियादिली और सामाजिक ताने-बाने को बचाने की कोई बड़ी मुहिम फिलहाल नहीं दिख रही है। हमारे समाज की इससे दयनीय स्थिति और क्या होगी! जुनैद और उसका भाई स्टेशन पर लहूलुहान पड़े रहते हैं, और प्रत्यक्षदर्शी नहीं मिलते। इतना ही नहीं, देखने पर समाज में अनियंत्रित भीड़ के शिकार हुए बहुत-से लोग मिल जाएंगे। कई लोग भीड़ के हाथों अपनी जान गंवा चुके हैं। हाल में पश्चिम बंगाल के इस्लामपुर में तीन लोगों को भीड़ ने मार दिया। नौ जून को राजस्थान के बाड़मेर में तमिलनाडु के पशुपालन विभाग के कर्मचारी पचास गाय-बछड़ों को खरीद कर अपने राज्य लौट रहे थे। इनके पास तमाम कागजात होने के बाद भी कोई पचास लोगों की भीड़ टूट पड़ती हैं। ट्रक में आग लगा देती है। ड्राइवरों को मारती है। फिर हम क्या कहें, कि समाज किस दिशा में जा रहा है। क्या समाज ने अपनी सभी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का गला घोंट दिया है!


भीड़ के बेकाबू तथा आपराधिक होने का एक मुख्य कारण हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था भी है, जो अपने निहित स्वार्थों को साधने के लिए संख्या-बल को सर्वोपरि मानने, भीड़ को शक्ति-प्रदर्शन का पर्याय मानने और भीड़ के हर गलत-सही काम को जायज मानने या उस पर चुप्पी साध लेने की मानसिकता को बढ़ावा देती है। अगर समाज को भीड़ की बर्बरता से बचाना है तो राजनीति को अपनी इस कमजोरी से भी उबरना होगा। फिर, उन साजिशों को बेनकाब करना होगा, जो भीड़ की आड़ में रची जाती हैं। बहुत सारे षड्यंत्रों पर परदा इसलिए पड़ा रहता है कि यह मान लिया जाता है जो हुआ उसे अज्ञात लोगों ने अंजाम दिया, उन्हें चिह्नित नहीं किया जा सकता। पर ऐसे मामलों की ठीक से जांच हो तो पता लगेगा कि भीड़ तो बस एक आड़ थी, वारदात को कुछ लोगों ने बड़े सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया। तह में जाने पर ऐसे दूसरे मामलों की भी असलियत सामने आ सकती है। वर्तमान व्यवस्था में जो चल रहा है, उसे मात्र सामाजिक परिघटना का एक अंग मान कर आपराधिक कृत्यों को समाज में आश्रय देना बहुत त्रासद नतीजे लाएगा, जिसके संकेत अब दिख भी रहे हैं। अगर हमारा समाज और प्रशासन भीड़ की हिंसा को देखने के आदी होते गए और मूकदर्शक बने रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब किसी न किसी चीज के बहाने अपराध का ही बोलबाला होगा।


http://www.jansatta.com/politics/jansatta-article-about-communal-violence/371613/


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