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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसके सपने-- मुज्तबा मन्नान

किसके सपने-- मुज्तबा मन्नान

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published Published on Oct 31, 2015   modified Modified on Oct 31, 2015
हाल ही में मुझे प्राथमिक शिक्षा से जुड़े एक सर्वेक्षण के दौरान राजस्थान के राजसमंद जिले के एक स्कूल में पांचवीं और छठी कक्षा के बच्चों से बातचीत करने का मौका मिला। कक्षा में पहुंचते ही असमंजस में पड़ गया कि बच्चों से बातचीत की शुरुआत कहां से करूं, पाठ्यपुस्तकों से या किसी और विषय से! दरअसल, इससे पहले मेरा बच्चों को पढ़ाने से संबंधित कोई अनुभव नहीं रहा था। फिर सोचा कि क्यों न पाठ्यपुस्तकों से हट कर बात की जाए। आखिर मैंने पहल की और सभी बच्चों से पूछा- ‘आप सभी के क्या-क्या सपने हैं और आप पढ़-लिख कर क्या बनना चाहते हैं?' सभी बच्चे बड़े उत्साह के साथ बताने लगे कि मैं डॉक्टर, मैं इंजीनियर, मैं अध्यापक और मैं पुलिस आदि बनना चाहता हूं। फिर मैंने बच्चों से पूछा- ‘क्या आपको पता है कि डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक और पुलिस कैसे बनते हैं और उसके लिए क्या-क्या पढ़ना पड़ता है?' मेरा सवाल सुनते ही बच्चों का सारा उत्साह एकदम खत्म हो गया और सब शांत होकर इधर-उधर देखने लगे। पूरी कक्षा में सन्नाटा छा गया। बच्चों की चुप्पी को देख कर मैं उनका उत्तर समझ गया कि उन्हें इस बारे में बहुत कुछ नहीं पता है। फिर अपनी बातचीत को आगे बढ़ाते हुए बच्चों से पूछा- ‘आपका मनपसंद विषय कौन-सा है जो आपको पढ़ने में अच्छा लगता है?' सवाल सुनते ही सभी बच्चे चुप्पी तोड़ कर पूरे उत्साह से बताने लगे- ‘सर, मुझे हिंदी, मुझे इंग्लिश, मुझे गणित...!' सबने अपनी-अपनी पसंद के विषय बताए। बच्चों के जवाब सुन कर मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि जो बच्चा इंजीनियर बनना चाहता है, उसे गणित विषय बिल्कुल पसंद नहीं है और जो छात्रा डॉक्टर बनना चाहती है, उसे हिंदी अच्छी लगती है। अपनी शंका को दूर करने के लिए मैंने बच्चों से दोबारा पूछा कि आप इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक और पुलिस क्यों बनना चाहते हैं! इस पर एक छात्र ने उत्तर देते हुए कहा कि मेरे पापा चाहते हैं कि मैं इंजीनियर बनूं। फिर दूसरी छात्रा बोली कि मेरी मम्मी कहती है कि मैं डॉक्टर बनूं। बाकी बच्चों के जवाब भी अपने माता-पिता की इच्छा के अनुरूप थे। मुझे इतना समझ में आया कि ये सपने बच्चों के अपने नहीं हैं, बल्कि जिसे वे अपना सपना समझ रहे हैं, वे सपने किसी और ने उन्हें दिखाए हैं। इस तरह के सपने हर मां-बाप अपने बच्चे के पैदा होने के साथ ही देखने लगते हैं। इसमें कोई दिक्कत नहीं कि हर मां-बाप का सपना होता है कि वे अपने बच्चे को सुरक्षित, शिक्षित और सुनहरा भविष्य दें। बच्चे के जन्म के साथ ही इसकी शुरुआत हो जाती है। लेकिन अपने इस सपने को पूरा करने के लिए मां-बाप अपनी उम्मीदों के अनुसार बच्चों को ढालना चाहते हैं और अपनी अपेक्षाएं उन पर एक तरह से थोपते हैं। फिर उन सपनों के अनुसार ही बच्चों की जिंदगी ढलती चली जाती है। मसलन, कितनी देर तक खेलना है, कितनी देर तक टीवी देखना है और फिर कब तक पढ़ाई करनी है वगैरह। यहां तक कि बच्चे के लिए खिलौने आदि भी पढ़ाई के आधार पर मिलने लगते हैं और उनकी जिंदगी इन्हीं सपनों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाती है। काफी देर तक उनसे बातचीत करने के बाद यह बात सामने आई कि बच्चों की रुचि उनके बताए गए सपनों से अलग थी। किसी को कंप्यूटर चलाने में तो किसी को चित्रकारी, किसी को खेलना तो किसी को पढ़ना अच्छा लगता है। इस प्रसंग के बाद कम से कम मैं अपनी इस राय पर पक्का हो गया कि हमें अपनी अपेक्षाएं बच्चों पर थोपनी नहीं चाहिए। पढ़ाई-लिखाई के दौरान अगर उनके भीतर कोई रुचि विकसित होती है, जो माता-पिता की इच्छा के अनुरूप है तब बहुत अच्छा। अन्यथा बच्चों को उसके मन के अनुसार पढ़ने और खेलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इंसान के लिए उसका बचपन का समय बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चे का पनचानवे फीसद दिमाग बचपन में ही विकसित हो जाता है। अगर हम उस समय बच्चों को अपने अनुसार ढलते हुए देखना चाहते हैं तो कहीं न कहीं उसके विकास में रुकावट आती है। हो सकता है कि खेलते हुए या फिर किसी काम को करते समय बच्चे की रुचि उसमें बढ़ जाए तो उससे बच्चे को नई दिशा मिल सकती है। आगे चल कर बच्चा उस क्षेत्र में कामयाब हो सकता है। ज्यादातर लोग अपने अनुभव के आधार पर सोचते हैं और उसी के मुताबिक अपने बच्चों को चलते देखना चाहते हैं। लेकिन हमें बच्चों का नजरिया भी देखना चाहिए जो उनके संपूर्ण विकास के लिए बहुत जरूरी है। मुजतबा मन्नान

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