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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसानों की झोली भरने में सक्षम है बेबी कॉर्न

किसानों की झोली भरने में सक्षम है बेबी कॉर्न

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published Published on Sep 23, 2009   modified Modified on Sep 23, 2009

विशिष्ट तरह के मक्के 'बेबी कॉर्न' में किसानों के लिए मुनाफे का सौदा साबित होने की पूरी क्षमता है। इसके पीछे ऊंची कीमत और घरेलू व निर्यात बाजार में बेबी कॉर्न की तेजी से बढ़ रही मांग के अलावा और भी कई वजहें हैं।

बेबी कॉर्न की फसल काफी कम समय में तैयार हो जाती है और इस तरह एक ही जमीन में तीन से चार फसल आसानी से उगाई जा सकती है। इस पौधे की डंठल और पत्ते जानवरों के लिए पोषक तत्त्वों से भरपूर होते हैं और अगर इसकी खेती की जाए तो सालभर जानवरों को चारा उपलब्ध हो सकता है।

इसके साथ ही अतिरिक्त आय की खातिर बेबी कॉर्न के पौधों की पंक्तियों के बीच कई सब्जियां, दलहन और यहां तक कि फूल भी उगाए जा सकते हैं। प्रसंस्करण व परीक्षण के जरिए बेबी कॉर्न में वैल्यू एडिशन यानी मूल्य संवर्ध्दन की भी गुंजाइश बन सकती है।

मक्के से जुड़े भारतीय वैज्ञानिकों ने पौधों की किस्म और इसकी संकर किस्म की पहचान की है जो कि बेबी कॉर्न के उत्पादन के लिए उपयुक्त हैं। इन वैज्ञानिकों ने इसे उगाने के लिए कृषि पध्दतियों का एक पैकेज तैयार किया है।

बेबी कॉर्न आवश्यक रूप से सुडौल आकार का मक्का होता है, जिसे कच्चा भी खाया जा सकता है और पकाकर भी उसका भक्षण किया जा सकता है। इसके अलावा इसे बाद में खाने के लिए भी संरक्षित रखा जा सकता है। मक्के के पौधे में जब यह लगता है तो इसके दो-तीन दिन के भीतर इसे तोड़ा जा सकता है। बेबी कॉर्न की फसल 50 से 55 दिन में तैयार हो जाती है।

दिल्ली स्थित मक्का शोध निदेशालय के प्रमुख डॉ. साईं दास का मानना है कि भारत बेबी कॉर्न का प्रमुख उत्पादक ही नहीं बल्कि इसका निर्यातक भी हो सकता है क्योंकि इसकी उत्पादन लागत कम होती है और इस देश की अवस्थिति ऐसी है कि यूरोप व खाड़ी देशों में स्थित निर्यात बाजार में आसानी से पहुंच भी सकता है।

वर्तमान में थाईलैंड इसका सबसे बड़ा उत्पादक व निर्यातक है। वैसे भारत में उससे प्रतिस्पर्धा  करने की पूरी क्षमता है। साल 2008 में भारत ने 267 टन से अधिक बेबी कॉर्न का निर्यात किया जो 10 लाख डॉलर का था। साल 2009 में इसके750 टन पर पहुंचने की उम्मीद है जो 30 लाख डॉलर का होगा।

मक्का शोध निदेशालय ने बेबी कॉर्न की उत्पादन तकनीक व वैल्यू एडिशन की बाबत एक बुकलेट तैयार की है। इसमें बताया गया है कि बेबी कॉर्न की इकलौती फसल पर 15420 रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है और इसका कुल प्रतिफल 67500 रुपये प्रति हेक्टेयर हो सकता है। इस रकम में चारे की कीमत भी शामिल है।

यह आकलन इस मान्यता पर आधारित है कि एक हेक्टेयर जमीन पर करीब 12 क्विंटल बेबी कॉर्न का उत्पादन होता है और इसे 60 हजार रुपये में बेचा जा सकता है यानी 5000 रुपये प्रति क्विंटल (50 रुपये प्रति किलो) के हिसाब से।

इसके साथ ही इससे 150 क्विंटल का चारा भी मिलेगा और उसे 50 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बेचकर 7500 रुपये बनाए जा सकते हैं। बेबी कॉर्न का तीन से चार फसल उगाने वाला किसान आसानी से एक से दो लाख रुपये सालाना कमा सकता है।

देश में बेबी कॉर्न का बाजार हालांकि अभी काफी छोटा है और यह बड़े शहरों तक ही सीमित है। बदलते स्वाद और अच्छा खाने की चाह की बदौलत भविष्य में इसकी मांग में तेजी से बढ़ोतरी हो सकती है। इसकी पोषक गुणवत्ता कई मौसमी सब्जियों से बेहतर मानी जाती है क्योंकि इसमें विटामिन की अच्छी मात्रा, आयरन और खास तौर से फॉस्फोरस पाया जाता है।

इसके अलावा रेशेदार प्रोटीन आहार का यह अच्छा स्रोत है और पचने में भी आसान है। साथ ही, अगर बेबी कॉर्न के पौधों पर कीटनाशक का छिड़काव होता है, तब भी यह प्राकृतिक वनस्पति के अंदर नहीं समा पाता, लिहाजा खाने के लिए सुरक्षित होता है।

करनाल स्थित हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के शोध संस्थान में मक्का की संकर किस्म एचएम-4 विकसित की गई है। उत्तरी भारत खास तौर से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बेबी कॉर्न उगाने के लिए यह सबसे अच्छी किस्म मानी जाती है।

इसकी फसल का आकार ठीक होता है, इसके रंग भी आकर्षक होते हैं और स्वाद भी मीठा होता है। साथ ही एक हेक्टेयर में 12015 क्विंटल की उपज होती है। देश के दूसरे इलाकों में बेबी कॉर्न उगाने के लिए भी ज्यादा उत्पादकता वाले बेबी कॉर्न की किस्म उपलब्ध है। हालांकि, बड़े शहरों से अलग इलाकों में बेबी कॉर्न का विपणन अभी भी मुश्किल है।

बेबी कॉर्न पर आधारित उद्योग का आना अभी बाकी है जो कि वैल्यू एडेड प्रॉडक्ट ला सके। फिलहाल हरियाणा के पानीपत में दो इकाइयां हैं जो निर्यात के लिए बेबी कॉर्न का अचार बनाते हैं। इसकी प्रोसेसिंग के लिए जब और औद्योगिक इकाइयां सामने आएंगी तब इस लाभकारी फसल में निश्चित रूप से बढ़ोतरी होगी।


सुरिंदर सूद, बिजनेस स्टैंडर्ड, २२ सितंबर, २००९
 

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