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न्यूज क्लिपिंग्स् | कृषि उत्पादन नहीं, मूल्य बढ़ायें- भरत झुनझुनवाला

कृषि उत्पादन नहीं, मूल्य बढ़ायें- भरत झुनझुनवाला

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published Published on Dec 28, 2011   modified Modified on Dec 28, 2011

अर्थव्यवस्था में तीव्र विकास के बावजूद कृषि और किसानों की स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है. पिछले साठ वर्षो में प्रत्येक सरकार ने कृषि में सुधार का संकल्प लिया है, किंतु स्थिति बिगड़ती गयी है, जैसा कि आत्महत्या की बढ़ती संख्या से अनुमान लगता है. मूल कारण यह है कि सरकार का ध्यान कृषि उत्पादन में वृद्धि की ओर ज्यादा रहा है, मूल्यों में वृद्धि की ओर कम.

मान्यता है कि किसान 10 के स्थान पर 20 क्विंटल उगायेगा तो उसकी स्थिति सुधरेगी, पर हकीकत इसके विपरीत है. विश्व जनसंख्या में अब विशेष वृद्धि नहीं हो रही है. अमीर देशों में जनसंख्या लगभग स्थिर है. विश्व बाजार में गेहूं, चीनी, चाय और कॉफ़ी की सप्लाई निरंतर बढ़ रही है, परंतु मांग पूर्ववत है. इससे मूल्यों में गिरावट आ रही है. हमारा किसान उत्पादन अधिक करता है, फ़िर भी उसकी आय घटती है. अधिक उत्पादन में खाद-पानी की लागत बढ़ जाती है. अंतत अधिक उत्पादन किसानों के गले की घंटी बन जाता है. इस पृष्ठभूमि में कृषि नीति को समझना होगा.

किसानों के लिए सरकार की सफ़ल नीति समर्थन मूल्य की है. कृषि में गेहूं, धान एवं गन्ने की प्रमुखता है. इन फ़सलों के लिए सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य देती है. किसान आश्वस्त रहता है. वह अरबी, लोबिया, जीरा, सौंफ़, हल्दी, अदरक, गुलाब आदि कम उगाना चाहता है. चूंकि इन फ़सलों के मूल्यों में अनिश्चतता रहती है. पर अधिक आय की संभावना इन्हीं फ़सलों में है. लकड़ी के फ़र्नीचर और गुलाब के फ़ूलों की मांग गेहूं की तरह सीमित नहीं है. अत सरकार को चाहिए कि उन तमाम फ़सलों के मूल्यों को समर्थन दे, जिनमें मांग के उत्तरोत्तर बढ़ने की संभावना है.

सरकार की दूसरी नीति कृषि क्षेत्र में वैश्विक मुक्त बाजार को अपनाने की है. मान्यता है कि अमीर देशों के बाजार खुलने से हमारे उत्पादों की मांग बढ़ेगी. यह बात सही है, किंतु इससे कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि होना जरूरी नहीं है. कारण यह कि विश्व बाजार दूसरे देशों के लिए भी खुल जाता है. जैसे वियतनाम ने कॉफ़ी और काली मिर्च के बाजार में प्रवेश कर लिया है. ऐसे में सरकार को कार्टेल बनाने का दूसरा रास्ता अपनाना चाहिए. अनेक कृषि उत्पादों में भारत प्रमुख खिलाड़ी है. दूसरे चुनिंदा देशों के साथ मिलकर हम उत्पादों के मूल्य को विश्व बाजार में कृत्रिम रूप से बढ़ा सकते हैं. जैसे तेल उत्पादक देशों ने ’ओपेक’ बनाकर किया है. भारत और मलेशिया मिलकर विश्व में रबर का मूल्य बढ़ा सकते हैं. इसी प्रकार बांग्लादेश के साथ जूट, श्रीलंका के साथ चाय एवं वियतनाम व ब्राजील के साथ मिलकर कॉफ़ी के मूल्य बढ़ाये जा सकते हैं.

सरकार की कृषि नीति का तीसरा स्तंभ ऋण का है. मान्यता है कि किसानों को सस्ता ऋण उपलब्ध होने से उनकी लागत घटेगी. परंतु गांवों में प्रचुर मात्रा में पैसा पहले ही उपलब्ध है. हर ग्रामीण बैंक में जमा की तुलना में एडवांस मात्र 15 फ़ीसदी के करीब रहती है. किसान के पास पैसा पड़ा है, परंतु लगाने के लिए अवसर नहीं है. अत 5-6 फ़ीसदी की दर पर वह बैंक में फ़िक्स डिपॉजिट करा देता है. ऐसे में ऋण में विस्तार निर्थक है. इससे हमारी अर्थव्यवस्था पर अनावश्यक बोझ बढ़ रहा है. किसानों को सस्ता ऋण उपलब्ध कराने के कारण उद्योगों को दिये जाने वाले ऋण पर ब्याज दर में वृद्धि की जाती है. इससे देश की अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती है.

कृषि ऋण के विस्तार के लिए अइआरडीपी जैसी योजनाओं में सब्सिडी दी जाती है, जिससे भ्रष्टाचार पनपता है. सब्सिडी के लालच में किसान ऋण से दब जाता है और नुकसान खाता है. सरकार को उन चुनिंदा क्षेत्रों में ऋण में विस्तार करना चाहिए जिनमें आय की संभावना अधिक है, जैसे कोल्ड स्टोरेज अथवा ग्रीन हाउस के लिए.सरकार की नीति का चौथा बिंदु कृषि में निजी एवं सरकारी निवेश बढ़ाने का है.

यद्यपि मूल सोच सही है, फ़िर भी संभल कर चलना पड़ेगा. गलत निवेश साधारण किसान के लिए हानिकारक हो जाता है, जैसे हार्वेस्टर में निवेश करना खेत मजदूरों के लिए अभिशाप बन गया है. उसे सर्वाधिक आय कटाई के समय मिलती है. हार्वेस्टर ने उससे रोजगार छीन लिया है. हार्वेस्टर का चरित्र ट्रैक्टर और ट्यूबवेल से भिन्न है. ट्यूबवेल से खेत मजदूर का सीधे रोजगार कम होता है, पर सिंचित खेती होने से जुताई, रोपाई, निराई आदि में रोजगार में वृद्धि होती है. वर्षा होने पर अधिक क्षेत्रफ़ल में ट्रैक्टर से जुताई-बुआई संभव हो जाती है, जिससे श्रम की मांग का विस्तार होता है.

हार्वेस्टर से ऐसे रोजगार की वृद्धि नहीं होती. अत: हार्वेस्टर जैसे निवेश से किसान को लाभ नहीं होगा. उन्हीं क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना चाहिए, जिनसे कृषि में श्रम की मांग बढ़े.सरकार की नीति का एक बिंदु कृषि सब्सिडी में कटौती है. आर्थिक सुधारों के अंतर्गत वित्तीय घाटे पर नियंत्रण जरूरी है, जिसके लिए सरकार के खर्चे को कम किया जा रहा है. छूरी कृषि सब्सिडी पर चल रही है. खाद एवं बिजली की दरों में सरकार लगातार वृद्धि के प्रयास कर रही है.

राजनीतिक दबाव के कारण सरकार ने इस दिशा में विशेष सफ़लता नहीं हासिल की है, परंतु मंशा स्पष्ट है. यहां प्रश्न सब्सिडी की दिशा का है. तालाब, चैक डैम, कोल्ड स्टोरेज और छोटी फ़सलों को मूल्य समर्थन में सब्सिडी सार्थक है, क्योंकि इनकी मदद से किसान उंचे मूल्य वाली फ़सलों की ओर उन्मुख होता है. इसके विपरीत बिजली पर सब्सिडी से भूजल का अति दोहन होता है. हार्वेस्टर पर सब्सिडी देने से गरीब खेत मजदूरों का रोजगार छिन जाता है.

सरकार की नीतियों में उपरोक्त सुधार से किसान को कुछ राहत अवश्य मिलेगी. फ़िर भी यात्रा कठिन रहेगी, क्योंकि मूल समस्या कृषि उत्पादों की मांग में शिथिलता एवं सप्लाई में वृद्धि से उत्पन्न हो रही है. संभवतया इस समस्या का समाधान बायोडीजल से निकले. इसके उत्पादन के लिए गन्ने और जटरोपा की खेती में वृद्धि से शेष कृषि उत्पादन में गिरावट आयेगी, जिससे कृषि उत्पादों के मूल्य बढ़ेंगे और किसानों को राहत मिलने की संभावना बन सकती है.

(लेखक अर्थशास्त्री हैं)


http://www.prabhatkhabar.com/node/103679?page=show


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