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न्यूज क्लिपिंग्स् | कैसे करें सूखे का सामना-- बाबा मायाराम

कैसे करें सूखे का सामना-- बाबा मायाराम

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published Published on Oct 31, 2015   modified Modified on Oct 31, 2015
पिछले साल किसान सूखे की मार झेल चुके हैं। इस साल फिर सूखा पड़ गया। जबकि कुछ वर्षों से किसान निरंतर संकट में हैं। उनकी हालत पहले से ही खराब है। इस वर्ष सूखे ने उन्हें गहरे संकट में डाल दिया है। भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकली है। खुद कृषि मंत्रालय ने स्वीकार कर लिया है कि सामान्य से पंद्रह-सोलह फीसद कम बारिश हुई। इससे खरीफ की फसल बुरी तरह प्रभावित हुई है। सबसे ज्यादा असर चावल, दलहन और मोटे अनाजों की पैदावार पर पड़ा है। सबसे बुरी हालत महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में है। मध्यप्रदेश में सोयाबीन और मूंग की फसल को काफी नुकसान हो चुका है। धान की फसल भी काफी हद तक मार खा गई है। पिछले कुछ सालों से किसानों को बार-बार सूखे से जूझना पड़ रहा है। वर्ष 2009 में सबसे बुरी स्थिति रही। पहले से ही खेती-किसानी बड़े संकट के दौर से गुजर रही है। कुछ सालों से किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला रुक नहीं रहा है। इस साल भी सूखे ने असर दिखाया है, एक के बाद एक किसान अपनी जान दे रहे हैं। सूखा यानी पानी की कमी। हमारे यहां ही नहीं, बल्कि दुनिया में नदियों के किनारे ही बसाहट हुई, बस्तियां आबाद हुर्इं, सभ्यताएं पनपीं। कला, संस्कृति का विकास हुआ और जीवन उत्तरोत्तर उन्नत हुआ। आज बड़ी नदियों को बांध दिया गया है। औद्योगीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा दिया गया। पहाड़ों पर खनन किया जा रहा है, जो नदी-नालों के स्रोत हैं। नदियों में प्रदूषण बढ़ रहा है। बड़े बांधों के पानी का किसानों को फायदा नहीं हुआ है, उनके खेत प्यासे के प्यासे रह गए। जबकि विस्थापन उनको ही झेलना पड़ा है। शहरीकरण का विस्तार होता जा रहा है। पर शहरों में पानी का स्रोत नहीं है। बाहर के नदी-नालों का पानी लाकर शहरों को पिलाया जा रहा है। फिर शहरी आधुनिक जीवनशैली में पानी की खपत बहुत ज्यादा होती है। शौच जाने पर ही फ्लश का बटन दबाते ही बीस लीटर पानी चला जाता है। पढ़ा-लिखा तबका बागवानी का शौकीन होता है। घर में ही जंगल उगाना चाहता है। इसमें पानी की खपत ज्यादा होती है। दूसरी तरफ शहर के गरीब तबके को पानी के लिए लड़ते-झगड़ते देखा जा सकता है। अब तो मारपीट और हत्याएं होने लगी हैं। सवाल उठता है कि आखिर पानी गया कहां? धरती पी गई या आसमान निगल गया? नहीं। लगातार जंगल कटते जा रहे हैं। ये जंगल पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखते थे। वे नहीं रहे तो पानी कम हो गया। मध्यप्रदेश में मालवा के इंदौर से लेकर जबलपुर तक बहुत अच्छा जंगल हुआ करता था, अब सफाचट हो गया है। मालवा के पहाड़ इस तरह हो गए हैं जैसे सिर पर उस्तरा फेर दिया गया हो। यह तो हुई भूपृष्ठ की बात। जमीन के नीचे का पानी हमने अंधाधुंध तरीके से नलकूपों, मोटर पंपों के जरिए उलीच कर खाली कर दिया। हरित क्रांति के प्यासे बीजों की फसलों ने हमारा काफी पानी पी लिया। पर अब तक हमारे नीति निर्धारकों ने इससे कोई सबक नहीं लिया। उलटे गन्ना जैसी नकदी फसलें जो ज्यादा पानी मांगती हैं, उन्हें लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। आज दाल का संकट दरअसल हरित क्रांति का नतीजा है। हरित क्रांति के प्यासे बीजों ने हमारे कम पानी में होने वाले देसी बीजों की जगह ले ली। हमने हरित क्रांति से गेहंू और चावल की पैदावार बढ़ा ली, जो ज्यादा पानी मांगते हैं, लेकिन दालों के मामले में फिसड्डी हो गए, जो लगभग असिंचित जमीन और कम पानी में होती थी। हरित क्रांति के पहले हमारे देश में कई तरह की दालें हुआ करती थीं। देसी बीजों वाली दलहन फसलों में ज्यादा लागत भी नहीं लगती थी। तुअर, चना, मूंग, उड़द, मसूर, तिवड़ा (खेसारी), कुलथी आदि कई प्रकार की दालें हुआ करती थीं। हम दाल के प्रमुख उत्पादक देश थे। उन्हें बोना छोड़ कर ज्यादा पानी वाली फसलों की ओर हमने रुख किया। सूखे का पहला लक्षण पलायन होता है। इसके बाद उन इलाकों में भोन की कमी हो जाती है। मध्यप्रदेश के पहाड़ी और ग्रामीण इलाके के लोग दूर-दूर के शहरों और मैदानी क्षेत्रों में चले जा रहे हैं। गांवों से शहरों की ओर जनधारा बह रही है। और आखिरकार इसकी परिणति भुखमरी में होती है। भुखमरी के लिए अब कई इलाके मशहूर हो रहे हैं। ओड़िशा का कालाहांडी उनमें से एक है, जहां भूख से मरने और बच्चों को बेचने की खबरें आती रही हैं। सूखे से यह सिलसिला बढ़ जाता है। लोग अपने बाल-बच्चों समेत बड़े-बड़े शहरों में पलायन करते हैं। पशुओं पर भी सूखे की मार पड़ती है। चारे-पानी के अभाव में लोगों ने या तो मवेशी बेच दिए या फिर खुला छोड़ दिए। बुंदेलखंड के महोबा इलाके में लोगों ने मवेशियों को घर पर रखना छोड़ दिया है जिससे सड़क आवागमन भी बाधित होता है, क्योंकि शाम के समय मवेशी सड़कों पर बैठते हैं। कई बार दुर्घटनाओं के शिकार भी हो जाते हैं। सवाल है कि हम सूखे से कैसे बचें? यहां दो ऐसे उदाहरण रखना मौजूं होगा, जो मिट््टी-पानी केसंरक्षण से संबंधित हैं। देश में ‘जीरो बजट' प्राकृतिक खेती के प्रणेता सुभाष पालेकर रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर टिकी आधुनिक कृषि पद्धति का विकल्प पेश कर रहे हैं, जिससे पानी का संकट भी खत्म हो सकता है और किसान आत्मनिर्भर भी बन सकते हैं। पिछले कुछ सालों से पालेकर ने एक अनूठा अभियान चलाया हुआ है- जीरो बजट प्राकृतिक खेती का। पालेकर कहते हैं कि धरती माता से लेने के बाद उसके स्वास्थ्य के बारे में भी हमें सोचना होगा। यानी बंजर होती जमीन को कैसे उर्वर बनाएं, इस पर ध्यान देना जरूरी है। उपज के लिए मित्र-जीवाणुओं की संख्या बढ़ानी चाहिए। खेतों में नमी बनी रहे, इसके लिए ही सिंचाई करें। हरी खाद लगाएं। देसी बीजों से ही खेती करें। इसके लिए बीजोपचार विधि अपनाएं। फसलों में विविधता जरूरी है। मिश्रित खेती करें। द्विदली फसलों के साथ एकदली फसलें लगाएं। खेत में आच्छादन करें, यानी खेत को ढंक कर रखें। खेत को कृषि अवशेष ठंडल और खरपतवार से ढंक देना चाहिए। खेत को ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। इससे नमी भी बनी रहती है। खेत का ढकाव एक ओर जहां जमीन में जल संरक्षण करता है, उथले कुओं का जल-स्तर बढ़ाता है, वहीं फसल को कीट प्रकोप से बचाता है, क्योंकि वहां अनेक फसलों के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं, जिससे रोग लगते ही नहीं। इसी प्रकार रासायनिक खाद की जगह देसी गाय के गोबर-गोमूत्र से बने जीवामृत और अमृतपानी का उपयोग करें। यह उसी प्रकार काम करता है जैसे दूध को जमाने के लिए दही। इससे भूमि में उपज बढ़ाने में सहायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ेगी और उपज बढ़ेगी। एक गाय के गोबर-गोमूत्र से तीस एकड़ तक की खेती हो सकती है। यानी जीरो बजट खेती से भूमि और पर्यावरण का संरक्षण होगा। जैव विविधता बढ़ेगी, पक्षियों की संख्या बढ़ेगी भूमि में उत्तरोत्तर उपजाऊपन बढ़ेगा। किसानों को उपज का ऊंचा दाम मिलेगा। और जो आज ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, जिसमें रासायनिक खेती का योगदान बहुत है, उससे भी निजात मिल सकेगी। इसी प्रकार उत्तराखंड के बीज बचाओ आंदोलन ने बदलते मौसम में किसानों को राह दिखाई है। पिछले कुछ सालों से जलवायु बदलाव की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ रही है। किसानों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह एक बड़ी समस्या है। लेकिन उत्तराखंड के किसानों ने अपनी परंपरागत पहाड़ी खेती और बारहनाजा (मिश्रित) फसलों से यह खतरा काफी हद तक कम कर लिया है। यहां मौसम परिवर्तन से किसान कुछ सीख भी रहे हैं, और उसके हिसाब से वे फसल बोते हैं। जहां जलवायु बदलाव का सबसे ज्यादा असर धान और गेहूं की फसलों पर हुआ है वहीं बारहनाजा की फसलें सबसे कम प्रभावित हुई हैं। मंडुवा, रामदाना, झंगोरा, कौणी की फसलें अच्छी हुर्इं। 2009 में सूखे के बावजूद रामदाना की अच्छी पैदावार हुई और मंडुवा, झंगोरा भी पीछे नहीं रहे। मध्यम सूखा झेलने में धान और गेहूं की अनेक पारंपरिक किस्में भी धोखा नहीं देती हैं। कुल मिला कर, यह कहा जा सकता है कि जलवायु बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियां आएंगी, उनसे निपटने में बारहनाजा खेती और जीरो बजट प्राकृतिक खेती जैसी पारंपरिक पद्धतियां कारगर हैं। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण आदि स्थितियों से निपटने में ये सबसे उपयुक्त हैं। ऐसी खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव और पारिस्थितिकी की प्रतिकूलता को झेलने की क्षमता होती है। इसमें कम खर्च और कम कर्ज होता है। लागत भी कम लगती है। इस प्रकार खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव, सभी दृष्टियों से ये उपयोगी और स्वावलंबी हैं। इसके अलावा, पानी के परंपरागत स्रोतों को फिर से बहाल करना होगा। नदियों के किनारे वृक्षारोपण, छोटे स्टापडेम और पहाड़ियों पर हरियाली वापसी के काम करने होंगे। देसी बीजों वाली, पानी की कम खपत वाली और असिंचित मिलवां (मिश्रित) फसलों की ओर बढ़ना होगा। मिट्टी-पानी और पर्यावरण का संरक्षण करना होगा। तभी हम सूखे का सामना कर सकते हैं। (बाबा मायाराम)

- See more at: http://www.jansatta.com/politics/jansatta-farmers-problem-of-drought/46793/#sthash.DlYI8M2A.dpuf


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