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न्यूज क्लिपिंग्स् | क्या कहती है सबरीमाला की राजनीति- एस, श्रीनिवासन

क्या कहती है सबरीमाला की राजनीति- एस, श्रीनिवासन

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published Published on Jan 10, 2019   modified Modified on Jan 10, 2019
आखिरकार नए साल में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं ने सबरीमाला में प्रवेश करके अपने भगवान अयप्पा की पूजा-अर्चना करने में कामयाबी हासिल कर ली। उन्हें यह सफलता सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तीन महीने बाद मिल पाई है। ऐसा लगता है कि केरल की वाम मोर्चा सरकार औरतों को इस मंदिर में प्रवेश दिलाने के लिए माकूल वक्त का इंतजार कर रही थी। जिन दो महिलाओं ने भगवान अयप्पा की पूजा-अर्चना की, वे अब 24 घंटे राज्य पुलिस की सुरक्षा में हैं। इसी से इस मसले की जटिलता का संकेत मिल जाता है।


इस घटना के विरुद्ध दक्षिणपंथी संगठनों की हिंसक प्रतिक्रियाएं पूरे राज्य में दर्ज की जा रही हैं। खासकर कन्नूर जिला इन दिनों उबल रहा है, जो वामपंथी और दक्षिणपंथी संगठनों की हिंंसक टकराव के लिए कुख्यात रहा है। बीते रविवार तक पुलिस ने 3,000 से अधिक लोगों को उपद्रव फैलाने के आरोपों में घेरे में लिया है। दिल्ली स्थित भाजपा प्रवक्ता की धमकियों पर टिप्पणी करते हुए केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन ने केंद्र को चुनौती दे डाली कि वह उनकी सरकार को बर्खास्त करकेे दिखाए। विजयन ने संघ परिवार पर आरोप लगाया कि वह सांप्रदायिकता की लहर पैदा करने की कोशिश कर रहा है और राज्य सरकार ऐसा करने वाले तत्वों से सख्ती ने निपटेगी।


मुख्यमंत्री ने जैसे ही आधिकारिक रूप से दो महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश कर पूजा-अर्चना करने का एलान किया, मंदिर के पुजारियों ने गर्भगृह के द्वार बंद कर दिए, ताकि ‘शुद्धिकरण' के कर्मकांड किए जा सकें। बहरहाल, सड़कों पर हो रही हिंसा और भाजपा व वामपंथी नेताओं में छिड़ी जुबानी जंग के बीच इस महीने के मध्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केरल के दौरे पर जा रहे हैं। जाहिर है, इसके बाद इस सूबे का सियासी पारा और चढे़गा। मुख्यमंत्री का आरोप है कि ‘संघ परिवार' केरल में सांप्रदायिक दंगे भड़काना चाहता है। ‘भाजपा ने उत्तर भारत में सफलता के साथ अपनी इस रणनीति को लागू किया है... लेकिन केरल में उसकी यह चाल सफल नहीं होगी।'


वाम मोर्चा सरकार की दलील है कि उसने सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन किया है, जिसमें महिलाओं के एक खास वर्ग के लिए मंदिर में प्रवेश पर लगी रोक को खत्म करने का आदेश दिया गया है। वाम दलों का सवाल है कि आखिर केंद्र सरकार राज्य सरकार के संविधान-सम्मत कदमों का समर्थन करने की बजाय विरोधी रुख कैसे अपना सकती है?


दरअसल, मासिक धर्म की उम्र अवधि वाली महिलाओं के भगवान अयप्पा के मंदिर में प्रवेश पर पाबंदी थी। दक्षिणपंथी लोग, खासकर संघ-भाजपा समर्थक इन महिलाओं के मंदिर प्रवेश का मुखर विरोध कर रहे हैं कि यह हिंदुओं की आस्था और परंपरा से छेड़छाड़ है। साफ है, भाजपा का इरादा केरल की सियासत में खुद को स्थापित करना है। पिछले विधानसभा चुनाव में उसने केरल में शानदार प्रदर्शन किया था। उसने न सिर्फ विधानसभा में अपना खाता खोला, बल्कि 15 फीसदी से भी ज्यादा वोट हासिल किए थे।

केरल वासियों के अलावा सबरीमाला मंदिर के प्रति पूरे दक्षिण भारत के लोगों में गहरी श्रद्धा है। श्रद्धालु तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के कोने-कोने से यहां भगवान अयप्पा की पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। ऐसे में, अनेक श्रद्धालुओं के लिए यह बेहद कठिन वक्त है, क्योंकि वे परंपरा और स्त्री-उद्धार व स्त्रियों के सांविधानिक हक के बीच संतुलन साधने की दुविधा में फंस गए हैं। भाजपा इसे दक्षिण भारत में अपने प्रभाव के विस्तार के एक मौके के तौर पर देख रही है।


महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में पिछले 400 से भी अधिक वर्षों से महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगी थी, लेकिन दो साल पूर्व जब हाईकोर्ट ने प्रतिबंध हटाने का आदेश दिया था, तब भाजपा की राज्य सरकार ने वहां महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित कराया था। ऐसे ही, सवाल तीन तलाक के मसले से जुडे़ हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसे असांविधानिक घोषित किया था। कोर्ट के फैसले के अनुरूप केंद्र सरकार ने संसद में विधेयक पेश किया। उस समय प्रधानमंत्री ने समस्त राजनीतिक पार्टियों से गुजारिश की थी कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण न किया जाए और लैंगिक न्याय सुनिश्चित किया जाए। विपक्ष ने इस विधेयक को राज्यसभा में यह कहते हुए रोक दिया कि इस विधेयक को काफी जल्दबाजी में लाया गया है, इसलिए इसे सेलेक्ट कमेटी को भेजा जाना चाहिए। उस समय भाजपा ने विपक्ष पर ‘वोट बैंक की राजनीति' करने का आरोप लगाया था। सच तो यह है कि दोनों ही पक्ष ‘वोट बैंक की राजनीति' में जुटा है।


चाहे सत्ता पक्ष की पार्टियां हों या विपक्ष की, उनके लिए महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर का मसला या केरल के सबरीमाला मंदिर का मुद्दा या फिर तीन तलाक का मसला कोई लैंगिक समानता का विषय नहीं है, जबकि यही होना चाहिए; वे तो बेशर्मी से अपने ‘वोट बैंक' के लिहाज से ही इनका इस्तेमाल कर रही हैं। सामाजिक रीति-रिवाजों और परंपराओं में बदलाव लाना हमेशा ही बहुत मुश्किल काम होता है, खासकर भारत जैसे मजबूत पितृसत्तात्मक समाज में तो और भी। मंदिरों में दलितों के प्रवेश के लिए पहली कठिन लड़ाई तो देश की आजादी से भी पहले केरल और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में समाज सुधारकों को लड़नी पड़ी थी।


आजादी के बाद कानूनों में संशोधन हुआ और सबको आस्था, पूजा करने और उपदेश की आजादी व समानता की गारंटी मिली। लेकिन कानूनी अनुमति के बावजूद दशकों बाद भी कुछ संवेदनशील वर्गों को सामाजिक मान्यता नहीं मिल सकी है। लैंगिक समानता की बातें अब भी खोखली हैं। हमारी आधी आबादी को अब भी उसके पूरे हक-हुकूक नहीं मिल सके हैं। सामाजिक रवायतें अड़चन बनी हुई हैं। पितृसत्ता अब भी जिंदा है, बल्कि राजनीतिक व्यवस्था में अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए हैै और इसका सबसे बड़ा उदाहरण है- महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने में संसद की असमर्थता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-opinion-hindustan-column-on-9-january-2352819.html


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