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न्यूज क्लिपिंग्स् | क्या सिर्फ़ साल बदलने से गड्ढे से बाहर आ जाएगी अर्थव्यवस्था?

क्या सिर्फ़ साल बदलने से गड्ढे से बाहर आ जाएगी अर्थव्यवस्था?

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published Published on Jan 1, 2020   modified Modified on Jan 1, 2020
दोनों ने किया इक़रार मगर मुझे याद रहा तू भूल गई...

अब आप इसे जनता की तरफ़ से सरकार के लिए गा लीजिए या शेयर बाज़ार की तरफ़ से इकॉनमी के लिए। ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा। 

2019 की कहानी कुछ ऐसी ही कहानी रही। लोगों ने बड़े अरमानों से मोदी सरकार को दोबारा कुर्सी तक पहुँचाया। उन्हें भी और जिन्होंने इस सरकार को वोट नहीं दिया उन्हें भी उम्मीद यही थी कि अब इकॉनमी रफ़्तार पकड़ेगी क्योंकि नई सरकार तमाम वो काम कर डालेगी जो पिछले दौर में नहीं हो पाए। तमाम उद्योग संगठनों, दबाव समूहों, सांस्कृतिक राजनीतिक संगठनों और तरह-तरह के विद्वानों ने सरकार को अपनी तरफ़ से श्योर शॉट तरक्की के फ़ॉर्मूले भी सौंप दिए थे। और सबको उम्मीद थी कि बजट आएगा और कमाल शुरू हो जाएगा।

बजट आया लेकिन वैसा नहीं आया जैसी उम्मीद थी, तो जो अरमान लगाए बैठे थे उनके दिल टूट गए। शेयर बाजार ने तो तुरंत ही दिल के टुकड़े दिखा दिए, भारी गिरावट के साथ। बाक़ी लोग भी धीरे-धीरे कुनमुनाने लगे, शिकायतें करने लगे, गुहार लगाने लगे। मगर सरकार मानने के मूड में नहीं थी। ऊपर से विपक्षी पार्टियाँ लगातार कह रही थीं कि इकॉनमी गड्ढे में जा रही है, सरकार को कुछ समझ में नहीं आ रहा है। शायद यह भी एक वजह थी कि सरकार के भीतर बैठे लोग यह मानने को तैयार नहीं थे कि हालात ख़राब हैं। उलटे हर उस आदमी को झूठा या देशद्रोही बताने की होड़ चल रही थी जो ऐसा कोई सवाल उठाता या आर्थिक बदहाली के आँकड़े सामने लाता।

 
लेकिन ऐसा कितने दिन चल सकता था। आख़िरकार सच सामने आना ही था और वह आया। एक के बाद एक आँकड़ों की बरसात होने लगी। सरकार ने भी पहले दबे-छिपे और फिर साफ़-साफ़ मानना शुरू किया कि कुछ तो गड़बड़ है। हालाँकि उनकी वकालत करने वाले आज भी यह साबित करने में जुटे हैं कि दरअसल अच्छे दिन ज़्यादा दूर नहीं हैं। और उनका ज़ोर सबसे ज़्यादा आर्थिक शब्दावली पर है। किताबों से परिभाषाएँ निकाल-निकालकर दिखाई जा रही हैं कि कैसे हालात उतने ख़राब नहीं हैं कि इसे मंदी कहा जा सके। पिछले साल इकॉनमी की चर्चा में एक नया शब्द जुड़ गया। यह था आर्थिक सुस्ती। अब सुस्ती और मंदी का फ़र्क तो आप शब्दकोष में देखें, पारिभाषिक शब्दावली में तलाशें या किसी राजभाषा अधिकारी से पूछें। लेकिन कोई न मिले तो उन विशेषज्ञों की मदद लें जो राजनीति और अर्थनीति पर समान अधिकार रखते हैं और किसी भी हद तक जाकर सरकार की वकालत के लिए तैयार रहते हैं। इनमें टेलिविज़न पर बहस की मेजबानी करनेवाले अनेक एंकर भी शामिल हैं।

खैर, बीत गई सो बात गई। अब तो ट्वेंटी-ट्वेंटी यानी सन 2020 शुरू हो चुका है। एक नया दशक। तो अब वक़्त है हिसाब लगाने का कि आनेवाले साल में क्या होगा, क्या हो सकता है।

एक बात तो साफ़ है। सरकार को यह अच्छी तरह से मालूम है कि अब जो करना है उसे ही करना है। शुरुआती ना-नुकुर के बाद जब से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह मान लिया है कि हालत ठीक नहीं है, उसके बाद से उन्होंने सलाह सुननी भी शुरू की है और माननी भी। कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती का एलान इसी का उदाहरण था। उसके बाद से भी दिख रहा है कि सरकार को जहाँ से जो सलाह मिल रही है उसे मानने में अब देर नहीं की जाती। सरकारी कंपनियों की बिक्री से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ख़र्च बढ़ाने तक के एलान इसी सिलसिले की कड़ियाँ हैं।

साल के आख़िरी दिन एक सौ दो लाख करोड़ रुपए के ख़र्च की योजना का एलान करके वित्त मंत्री ने फिर एक उम्मीद जगाने की कोशिश की है। इसमें सड़क, बंदरगाह, रेलवे, ग्रामीण विकास और तमाम ऐसी चीजों पर ख़र्च करने की तैयारी है जिनसे इकॉनमी रफ़्तार पकड़ सकती है। कहा गया है कि इससे एक नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन यानी इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए लगातार पैसे की सप्लाई का इंतज़ाम किया जाएगा। 2025 तक पाँच ट्रिलियन डॉलर के सपने को पूरा करने की तरफ़ यह एक क़दम है और साथ ही यह एलान भी हुआ कि 2020 से हर साल सालाना इन्वेस्टमेंट समिट भी की जाएगी।
 
पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 

आलोक जोशी, https://www.satyahindi.com/indian-economy/new-year-economic-slowdown-modi-government-planning-106610.html


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