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न्यूज क्लिपिंग्स् | क्या हो विकास की सही परिभाषा- भारत डोगरा

क्या हो विकास की सही परिभाषा- भारत डोगरा

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published Published on Jul 15, 2011   modified Modified on Jul 15, 2011
सामान्य रूप से बाहरी चमक-दमक को देखकर कह दिया जाता है कि यह क्षेत्र विकास कर रहा है। मान लीजिए किसी महानगर में बहुत सी झुग्गी-झोपडि़यों बनी हैं और महानगर में कार्य करने वाले गरीब मजदूरों को इन सस्ते आवासों में आश्रय मिला हुआ है, क्योंकि इससे महंगी जगह में रहने के लिए पैसा उनके पास नहीं है। एक दिन उनकी झोपडि़यां तोड़ दी जाती हैं। इस स्थान पर एक आलीशान होटल बना दिया जाता है। अब जो भी यहां से गुजरेगा, वह कहेगा कि यह इलाका तो बहुत विकसित हो गया। पर कोई उन मजदूरों से तो पूछकर देखे, जो पहले यहां रहते थे। उनमें से कई बेघर हो गए हैं और फुटपाथ पर सोते हैं। कई बच्चों का स्कूल छूट गया। अब जिन लोगों ने इसे विकास माना था, वह बहुत बुरा हुआ जो उन्हें उजाड़ा गया। पर कुछ अर्थशास्त्री बताते हैं कि अब देश की आय बढ़ गई है। झोपडि़यों के किराए व खरीद-बिक्री में एक वर्ष में तीन-चार लाख रुपये का कारोबार होता था। अब एक दिन में ही इससे अधिक आय तो केवल होटल के कमरों के किराए से हो जाती है। इस तरह राष्ट्रीय आय में वृद्धि को प्राय: विकास की मुख्य पहचान माना जाता है पर जिन मजदूरों को उजड़ना पड़ा, उनके दुख-दर्द का आकलन इस परिभाषा में नहीं हो पाता है। राष्ट्रीय आय को कई तरह से नापा जाता है और इसका एक पैमाना जिसे अर्थशास्त्राी ज्यादा उपयोग करते हैं उसे सकल राष्ट्रीय उत्पाद कहा जाता है। हाल के समय में कई विद्वानों ने इस मान्यता को चुनौती दी है कि जीडीपी से विकास की सही पहचान नहीं हो सकती है। उदाहरण के लिए हम दो ऐसे गांवों की तुलना करें जो बाकी दृष्टियों में एक समान हैं पर केवल एक मामले में एक-दूसरे से भिन्न हैं कि एक गांव में कोई शराब नहीं पीता है और दूसरे गांव में शराब का खूब उत्पादन होता है। वहां शराब खूब बेची व खरीदी जाती है। इन गांवों को सिर्फ आय या जीडीपी की दृष्टि से देखा जाए तो शराब वाले गांव की नकद आय अधिक आंकी जाएगी, जबकि निश्चय ही दूसरे गांव का जीवन बेहतर है। इसी तरह यदि आप ऐसे दो गांवों की तुलना करें जो अन्य सब मामलों में तो समान हैं, पर वृक्षों के संदर्भ में दोनों गांवों ने एक वर्ष में बहुत अलग नीतियां अपनाई। पहले गांव ने अपने सभी वृक्षों को बचाकर रखा जबकि दूसरे गांव ने अपने सभी वृक्षों को काटकर बेच दिया। निश्चय ही गांववासियों के भविष्य और पर्यावरण की रक्षा की दृष्टि से पहले गांव ने सही कार्य किया है, पर नकद आय का अल्पकालीन सृजन दूसरे गांव में बहुत अधिक हुआ, क्योंकि पेड़ों को काटने में मजदूरी दी गई और फिर पेड़ों की बिक्री से बहुत कमाई की गई। मान लीजिए, किसी गांव में बड़े और धनी भूस्वामियों ने गरीब छोटे किसानों की जमीन किसी तरह हथिया ली और इस जमीन पर तमाम आधुनिक तौर-तरीकों का उपयोग कर बहुत थोड़े समय के लिए उत्पादन बढ़ा दिया। इस तरह गांव की कुल नकद आय तो बढ़ी हुई नजर आएगी पर अधिकांश गरीब लोगों की हालत पहले से बदतर होगी। आधुनिक तकनीकें विशेषकर भारी-भरकम हारवेस्टर जैसी महंगी मशीनें जब किसी गांव में नजर आने लगती है तो लोग प्राय: कहते हैं कि यह गांव तो बहुत विकसित हो गया है। पर फसल काटने वाली इन मशीनों से कृषि मजदूरों का वही रोजगार छिन जाता है जिससे उनको ज्यादा उम्मीद होती है। फसल की कटाई करने को जो पैसा पहले गरीब मजदूरों को मिलता था वह अब अति धनी कंबाईन हारवेस्टर के मालिक को मिलता है। स्पष्ट है कि बाहरी तड़क-भड़क से, महंगी मशीनों या उपकरणों के आगमन से किसी गांव के विकास को नहीं आंका जा सकता है और न ही कुल आय बढ़ने के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गांव में अच्छा विकास हुआ है। यदि किसी संुदर घने जंगल को उजाड़कर कोई कंपनी वहां खनन करने लगे तो उस क्षेत्र में आय बहुत बढ़ी हुई नजर आएगी पर न तो यह भविष्य में मनुष्य के लिए अच्छा है न पशु-पक्षियों के लिए और न ही पर्यावरण के लिए। किसी गांव से किसानों को हटाकर उसे किसी बड़ी कंपनी को सौंप दो तो हो सकता है कि वह कंपनी उस क्षेत्र में किसानों से अधिक नकद आय का सृजन कर दे, पर ऐसा बदलाव किसानों को बर्बाद करेगा। यदि यह अधिक व्यापक स्तर पर हुआ तो खाद्य सुरक्षा व पर्यावरण पर भी संकट उपस्थित करेगा। सवाल यह है कि यदि आय के आधार पर विकास का आकलन न करें तो किस आधार पर करें? कई विद्वानों ने एक समाधान सुझाया है कि सब लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो रही हैं कि नहीं, इसी आधार पर विकास का आकलन किया जाए। सबकी बुनियादी जरूरतें पूरी होने का मतलब है कि सबको अच्छे स्वास्थ्य के लिए पेटभर पौष्टिक भोजन मिले और सबको आवास व वस्त्र उपलब्ध हों। सबको साफ पेयजल व स्वास्थ्य के लिए जरूरी शौचालय, स्नान घर, रसोई आदि उपलब्ध हो। जो विकास सब लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करे उसे अच्छा विकास माना जाए। पर इसके साथ कुछ अन्य सवाल भी खड़े होते हैं। आज के साथ हमें आने वाले कल के बारे में भी सोचना होगा। आज हम सबकी बुनियादी जरूरतें पूरी करें, इसके साथ यह भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि आगे भी यह संभव हो। अत: हवा-पानी व पर्यावरण को बचाना, वनों की हरियाली की रक्षा, खनिजों को सजोकर रखना यह सब ज्यादा जरूरी है, क्योंकि इसके आधार पर ही लोगों की जरूरतें भविष्य में पूरी हो सकेंगी। मान लीजिए किसी गांव ने एक नदी या झरने का पानी मोड़कर सभी गांववासियों की पानी की जरूरतों को पूरा कर लिया पर इसके कारण जंगल के पशु-पक्षियों को पानी नहीं मिला और वे मरने लगे तो क्या इसे उचित माना जाएगा? निश्चय ही नहीं। इसलिए मनुष्य को अपनी जरूरतों को पूरा करने के साथ सभी अन्य जीवों की जरूरतों और उनकी भलाई पर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए पर्यावरण की रक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। इसके साथ जुड़ा एक अन्य सवाल है कि यदि कुछ लोगों को बहुत अधिक भोग-विलास करने दिया गया व बहुत दौलत झपटने की अनुमति दी गई तो क्या सब लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा? एक गांव के स्तर पर ही देख लीजिए कि यदि अधिकतर खेतों पर दो-तीन व्यक्तियों ने कब्जा कर लिया तो क्या सब लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकेंगी? असमानता को दूर करना व समता को बढ़ाना जरूरी है। कुछ धनी देश गरीब देशों के संसाधन तरह-तरह से छीनते हैं या वहां की जमीन, खेती, खनिज, वन, श्रम आदि का अपने हित में उपयोग करने का दबाव बनाते हैं। इस कारण भी गरीब देशों के लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना कठिन होता है। व्यापार में यह देश अपने प्रभाव के बल पर लाभ का बड़ा हिस्सा ले जाते हैं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विषमता दूर करना व समता बढ़ाना जरूरी है। कुछ ऊंचे पदों के लोग कह सकते हैं कि हमारा बुनियादी जरूरतों का उद्देश्य तो पूरा हो गया है इसलिए हमें भोग-विलास करने दिया जाए। पर यदि भोग-विलास बढ़ गया तो पर्यावरण नष्ट होगा और दूसरी कई सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न होंगी, जो किसी भी हाल में ठीक नहीं होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-07-14&pageno=9#id=111716269230756738_49_2011-07-14


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