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न्यूज क्लिपिंग्स् | क्‍या जरूरी है कि नींद झटके से ही खुले? - गोपालकृष्‍ण गांधी

क्‍या जरूरी है कि नींद झटके से ही खुले? - गोपालकृष्‍ण गांधी

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published Published on Oct 31, 2015   modified Modified on Oct 31, 2015
मैंने कक्षा में सिंधु घाटी सभ्यता पर लेक्चर खत्म किया ही था और सोच रहा था कि क्या मुझे अगली क्लास में सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के कारणों (जिनमें भूकंप भी शामिल है) पर बात करनी चाहिए कि तभी मेरी कुर्सी, डेस्क, लैपटॉप सभी डगमगाने लगे। वास्तव में, ऐसा लग रहा था, जैसे पूरी दुनिया ही डोल रही हो। चंद मिनटों बाद मैंने इस भूकंप के बारे में और मालूमात हासिल करने के लिए गूगल किया। सूचनाएं सामने आने लगीं। भूकंप का केंद्र अफगानिस्तान में! झटके काबुल से काठमांडू तक महसूस किए गए! दिल्ली में रिक्टर स्केल 7.7 से 7.5 तक के झटके! मरने वालों की तादाद...!! और इन तमाम ब्योरों के बीच मैंने गौर किया कि यह भूकंप भी उसी बेल्ट में आया था, जहां कभी सिंधु घाटी सभ्यता बसी थी।

दरवाजे पर दस्तक हुई और एक सज्जन ने विनम्रता भरे लहजे में कहा : सर, जोरदार भूकंप है और जब तक सब सामान्य नहीं हो जाता, बेहतर हो भवन से बाहर चले आएं। हम सभी ऐसा कर रहे हैं। मैंने ऐसा ही किया। लेकिन मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी बदहवास नहीं थे, वे चुपचाप बाहर आ रहे थे। भूकंप आने पर बदहवास न होना निश्चित ही एक अच्छी बात है, लेकिन जिम्मेदार लोगों को जरूर ऐसी स्थिति में रचनात्मक रूप से चिंतित हो जाना चाहिए।

महज तीन माह पहले ही मैं याद कर रहा था कि इस साल यानी वर्ष 2015 में दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद बिन तुगलक की ताजपोशी के 690 साल पूरे हुए हैं। अपने सनकी फैसलों के लिए याद रखे जाने वाले तुगलक ने सल्तनत की राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद (देवगिरि) स्थानांतरित करने का बेतुका निर्णय लिया था। उसने न केवल अपने प्रशासनिक मुख्यालय को दौलताबाद भेजा, बल्कि दिल्ली की अवाम को भी हुक्म दिया कि वह दौलताबाद को कूच करे। इस फैसले से अवाम की जान सांसत में आ गई थी। पर शायद तुगलक को पता नहीं था और न ही उसके समकालीनों को इसकी खबर थी कि इसके पीछे एक ठोस वजह थी। तुगलक अपनी राजधानी को भूकंपों के लिए अनुकूल पट्टी से हटाकर एक ऐसी जगह ले जा रहा था, जहां इस तरह का कोई खतरा नहीं था। अलबत्ता राजधानियों की अदलाबदली बेहद अल्पकालिक साबित हुई और दो वर्ष बाद ही अवाम को फिर दिल्ली लौटने को मजबूर कर दिया गया। वही दिल्ली, जिसे साम्राज्यों और सल्तनतों की कब्रगाह के रूप में जाना जाता है।

लेकिन क्या आज भी ऐसा ही माना जाना चाहिए? 26 अक्टूबर को आए भूकंप के बाद सबसे आम प्रतिक्रिया यही थी कि 'यार, अब तो ये बार-बार होने लगा है! अभी तो भूकंप आया था!"

अब समय आ गया है, बल्कि उल्टे देरी हो रही है कि हम चंद भूकंपीय तथ्यों को समझें। भारत में चार जोन हैं, जोखिम के संदर्भ में आरोही क्रम में, जोन दो से पांच तक। भारत में भूकंप के लिए सर्वाधिक खतरनाक क्षेत्र कच्छ, कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर का इलाका हैं। और दूसरा सबसे खतरनाक इलाका है हमारी राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली का हृदयस्थल! दिल्ली महानगर तीन फॉल्ट लाइनों के ऊपर बसा हुआ है और भूकंप के लिए सर्वाधिक खतरनाक उपरोक्त वर्णित जोन से एकदम सटा हुआ है। यह सिंधु घाटी सभ्यता का वही क्षेत्र-विस्तार है, जो अफगानिस्तान से लेकर हमारे राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र तक फैला हुआ है।

तुगलक के पास तो खैर तब इस तरह के भूकंप-विज्ञान के जानकार नहीं थे, जैसे आज हमारे पास हैं। उसके पास भूकंप संबंधी पिछले डाटा भी नहीं थे। इसके बावजूद उसने अपनी राजधानी को दिल्ली से हटाने का जो फैसला लिया था, वह भूकंपों के खतरे के मद्देनजर तो बेहद समझदारी भरा ही था, चाहे उसे इसकी तब कोई खबर रही हो या नहीं। आखिर कितने भूकंपों के बाद हम जागेंगे? क्या हम ऐसे किसी महाविनाश का इंतजार कर रहे हैं, जिसने सिंधु घाटी सभ्यता का अंत कर दिया था? और क्या शहरों के आधुनिकीकरण, स्मार्टीकरण, डिजिटलीकरण की अपनी जिद में कहीं हम बुनियादी बातों को तो नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं?

दक्षिण अफ्रीका को देखें? आज वहां तीन प्रशासनिक मुख्यालय हैं। राजधानी प्रिटोरिया, जहां राष्ट्रपति और मंत्रियों के कार्यालय और आवास हैं, केपटाउन, जहां दक्षिण अफ्रीका की संसद है और ब्लोमफोंटेन, जहां सर्वोच्च अदालत स्थित है। हमें भी इस त्रिस्तरीय राजधानी के मॉडल पर विचार करना चाहिए। आखिर हमारी संसद नागपुर क्यों नहीं स्थानांतरित की जा सकती, जो कि भूकंप की दृष्टि से देश का सबसे सुरक्षित बेल्ट है? और सर्वोच्च अदालत को बेंगलुरू या हैदराबाद क्यों नहीं भेजा जा सकता, जो कि इतने ही सुरक्षित हैं? 26 अक्टूबर को जब भूकंप आया तो सर्वोच्च अदालत ने कामकाज को मुल्तवी कर दिया था। यह निश्चित ही एक समझदारी भरा फैसला था। लेकिन अगर अदालत सुरक्षित जोन में होती तो कामकाज बदस्तूर जारी रह सकता था।

बहरहाल, दिल्ली जैसे महानगर को पूरा तो आज कहीं भी स्थानांतरित करना संभव नहीं है, लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि भवनों के निर्माण में इस बात का ध्यान रखा जाए कि वे भूकंपरोधी हैं या नहीं। सरकार को ऐहतियातन यह कदम भी उठाना चाहिए कि भूकंप संभावित क्षेत्रों में स्थित न्यूक्लियर प्लांटों को सुरक्षित क्षेत्रों में स्थानांतरित कर दे। याद रखें कि ऐसे और इससे भी शक्तिशाली भूकंप भविष्य में भी आएंगे और निरंतर आते रहेंगे। भूवैज्ञानिक बताते हैं भारतीय उपमहाद्वीप की एक बड़ी पट्टी धीरे-धीरे हिमालय की ओर खिसक रही है और उससे भूकंपों की स्थिति निरंतर निर्मित होती रहेगी। इसे रोका नहीं जा सकता, लेकिन इससे हो सकने वाले खतरों को कम जरूर किया जा सकता है। हम सजग हों और देखें कि अंधाधुंध शहरीकरण की हमारी होड़ के क्या परिणाम निकलने जा रहे हैं।

पुरानी और जर्जर इमारतों के मालिकों को उन्हें खाली कर देने को कहने का जिम्मा किसका है? खतरनाक इमारतों के निर्माण से बिल्डरों को रोकने की जवाबदेही किसकी है? इस तरह की बातों को वोट हासिल करने वाला नहीं माना जाता, लेकिन याद रहे, जब घनी आबादी वाले शहरों में 8 रिक्टर स्केल क्षमता के भूकंप आएंगे तो लाखों लोग मौत की नींद में सो जाएंगे। वो लोग किसके वोटर होंगे? काठमांडू और काबुल हमारे अगल-बगल में ही स्थित हैं। क्या हमारे फ्लाईओवर भूकंपरोधी हैं? क्या हमारी गलियां इस लायक हैं कि भूकंप आने की स्थिति में बचाव और राहत दल उनमें प्रवेश कर सकें? क्या हमारे पास ऐसे विशेष अस्पताल हैं, जो भूकंप पीड़ितों की सेवा कर सकें? या क्या हमारे अस्पताल ही भूकंपरोधी हैं?

बात सीधी है। हम अब भयावह भूचालों के युग में हैं, लेकिन हमारे खयाल अभी तक उस हकीकत को कुबूल नहीं कर पाए हैं।

हमारी नींद झटके नहीं बुद्धि से खुलनी चाहिए।

(लेखक पूर्व राज्यपाल, राजदूत व उच्चायुक्त हैं और

संप्रति अशोका यूनिवर्सिटी में इतिहास और राजनीति विज्ञान के विशिष्ट प्राध्यापक हैं)

 


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