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न्यूज क्लिपिंग्स् | खाली हैं अन्न उपजाने वाले हाथ- देविन्दर शर्मा

खाली हैं अन्न उपजाने वाले हाथ- देविन्दर शर्मा

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published Published on Apr 9, 2015   modified Modified on Apr 9, 2015
कृषि मोर्चे पर एक नया संकट आ गया है। सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र सरकार द्वारा किसानों को फसल उत्पादन की कुल लागत पर 50 प्रतिशत लाभ देने में असमर्थता जताने के बाद तलवारें खिंच गई हैं। मार्च के मध्य से ही कई किसान संगठन इस मुद्दे पर केंद्र सरकार का विरोध कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है। वाकई लोकसभा चुनाव के दौरान ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने वायदा किया था कि उनकी पार्टी सत्ता में आते ही न्यूनतम समर्थन मूल्य में 50 फीसदी की वृद्धि करेगी। मगर अब सरकार अपने वायदे से मुकर गई है।

विकास के पिरामिड में सबसे नीचे होने के बाद भी किसानों ने देश का सिर नीचा नहीं किया है। वह साल-दर-साल बंपर उत्पादन करते हैं। मगर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की हालिया रिपोर्ट बताती है कि एक किसान परिवार खेती से औसतन 3,078 रुपया ही कमा पाता है। जबकि एक अन्य सर्वे का कहना है कि करीब 58 फीसदी किसान भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। सीएसडीएस के आंकड़ों भी बताते हैं कि 62 फीसदी किसान खेती छोड़ना चाहते हैं।

सत्ता में आते ही एनडीए सरकार ने धान और गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में मामूली 50 रुपये प्रति क्विंटल की वृद्धि की थी, जो महज 3.6 फीसदी वृद्धि ही थी। यह उस समय जारी महंगाई के कारण बढ़े अतिरिक्त आर्थिक बोझ को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं था। इसका परिणाम यह निकला कि पंजाब और हरियाणा में बासमती चावल का उत्पादन दोगुना होने के बावजूद किसान उसे और कपास को कम कीमतों पर बेचने को मजबूर हुए।

सर्वोच्च न्यायालय में सरकार का पक्ष रखते हुए एडिशनल सॉलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह का कहना था, लागत पर 50 फीसदी का लाभ देने से बाजार को नुकसान हो सकता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य और उत्पादन लागत को जोड़ने से कुछ मामलों में उत्पादकता कम हो सकती है। अदालत को उन्होंने यह भी कहा कि मूल्य निर्धारण नीति कोई आय का साधन नहीं होती, बल्कि निष्पक्ष और लाभकारी उद्देश्यों के लिए होती है। ऐसे वक्त में, जब उद्योग जगत कोयला, प्राकृतिक गैस और ऑटोमोबाइल जैसे कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में लागत तय करने वाली तमाम प्रक्रिया हथिया रहा है, और अपने उत्पादों की मनमानी कीमतें तय कर रहा है, तब भला किसानों को अधिक मूल्य देने से आखिर बाजार को कितना नुकसान होगा? जबकि सिर्फ छह फीसदी किसान यानी कि 60 करोड़ किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिलता है।

लिहाजा जरूरत आय के ऐसे साधन तलाशने की है, जिससे तमाम किसान समुदाय के घरों की मासिक आमदनी बढ़े। इसी तरह किसानों में बढ़ रही आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने के लिए भी एक 'आय नीति' का होना भी मौंजू है। न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर गेहूं और धान के किसानों को लाभ देने और उनके लिए मूल्य निर्धारण नीति बनाने के बजाय ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इससे तमाम किसान समुदाय लाभान्वित होगा। हमें समझना होगा कि आर्थिक सुधार तभी होगा, जब सरकार राष्ट्रीय किसान आय आयोग का गठन करेगी, जो किसान परिवारों को न्यूनतम मासिक वेतन को लेकर आश्वस्त करेगा। अगर चतुर्थ वर्ग का कोई केंद्रीय कर्मी 15,000 रुपया बेसिक वेतन पा सकता है, तो भला किसानों के लिए ऐसा कुछ न करने की कोई वजह नहीं दिखती।


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/poor-situation-of-farmers-hindi/


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