Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | खेती की सुध कौन लेगा- धर्मेन्द्रपाल सिंह

खेती की सुध कौन लेगा- धर्मेन्द्रपाल सिंह

Share this article Share this article
published Published on Aug 5, 2014   modified Modified on Aug 5, 2014
जनसत्ता 1 अगस्त, 2014 : मौसम विभाग दावा कर रहा है कि वर्षा सामान्य से केवल दस प्रतिशत कम रहेगी।

लेकिन बुआई का कीमती समय निकल जाने की भरपाई कैसे होगी, इसका जवाब उसके पास नहीं है। कृषि मंत्रालय ने एक जून से सत्रह जुलाई के बीच देश भर में धान, दलहन, सोयाबीन, कपास, मूंगफली आदि की बुआई का जो रकबा जारी किया है उसे देख कर लगता है कि इस बार सूखे की मार पांच बरस पहले पड़े सूखे से ज्यादा होगी। 2009 में देश ने चालीस बरस का सबसे खराब मानसून झेला था, लेकिन तब जुलाई के पहले हफ्ते से हालात सुधरने लगे थे। बारिश आ गई थी। इस बार जुलाई के दूसरे हफ्ते तक बादल रूठे रहे। आसमान ताकते-ताकते किसानों की आंखें थक गर्इं। अब जब बादल आए हैं तो काफी देरी हो चुकी है। बुआई का कीमती समय निकल चुका है।

वर्षा ऋतु के आगमन में विलंब का असर कितना गहरा है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। कृषि मंत्रालय के अनुसार अब तक सोयाबीन की बुआई महज बीस फीसद हो पाई है। पिछले साल इस समय तक एक करोड़ हेक्टेयर जमीन में यह फसल बोई जा चुकी थी, जबकि इस बार केवल 19.5 लाख हेक्टेयर में बुआई हुई है। इस नुकसान की भरपाई कठिन है। यों भी देरी से बुआई करने पर फसल का संभलना कठिन हो जाता है। मानसून की मार महंगाई पर जब पड़ेगी तब पड़ेगी, छोटे किसानों पर इसका असर अभी से दिखने लगा है। देश के अनेक हिस्सों में वे वैकल्पिक धंधे की खोज में गांव छोड़ने लगे हैं। गौरतलब है कि भारत में 82.2 फीसद छोटे किसान हैं, जिनकी जोत का आकार औसत 0.63 एकड़ है और देश की दो तिहाई आबादी आज भी खेती पर निर्भर है।

अब जरा खेती के प्रति सरकारी रवैए पर नजर डालें। इस साल के बजट में सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए बाईस हजार छह सौ बावन करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है, जो कुल बजट राशि का लगभग एक फीसद है। दूसरी ओर उद्योगों को 5.73 लाख करोड़ रुपए की रियायत दी गई है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-08 से 2011-12) के दौरान कृषि विकास दर 4.1 प्रतिशत रही, जिससे राष्ट्र के विकास को भारी संबल मिला। इन पांच सालों के दौरान केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र को केवल एक लाख करोड़ रुपए दिए। हिसाब लगाएं तो हर वर्ष औसत बीस हजार करोड़ रुपए दिए गए। दूसरी ओर उद्योगों को 2004-05 से अब तक यानी दस साल में इकतीस लाख करोड़ रुपए की छूट दी जा चुकी है। उद्योगों पर सार्वजनिक बैंकों के लगभग दस लाख करोड़ रुपए भी बकाया हैं, जिनकी वसूली की संभावना न के बराबर है।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-13 से 2017-18) में भी खेती और किसानों के प्रति सरकार के रवैए में कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। इन पांच सालों में कृषि क्षेत्र पर डेढ़ लाख करोड़ रुपए खर्च करने का लक्ष्य है, जो सालाना औसत तीस हजार करोड़ रुपए बैठता है। यह रकम जरूरत को देखते हुए ऊंट के मुंह में जीरे जितनी है।

केंद्र सरकार के इस उपेक्षापूर्ण रवैए के खिलाफ हल्ला मचने पर तर्क दिया जाता है कि कृषि तो राज्यों के अधिकार-क्षेत्र का विषय है, इसलिए पैसे का प्रावधान भी उन्हीं को करना चाहिए। इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो सवाल यह उठता है कि जब उद्योग भी राज्यों की विषय सूची में आते हैं, फिर दिल्ली की सरकार उन्हें क्यों अरबों रुपए की छूट देती है। वास्तविकता यह है कि 1991 में उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद कृषि क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता सूची से गायब हो चुका है। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के चिंतकों का मानना है कि देश का कायाकल्प करने के लिए उद्योगों को बढ़ावा देना जरूरी है।

तेज औद्योगिक विकास से रोजगार के नए अवसर सृजित होंगे और जनता खेती छोड़ कर उद्योगों से जुड़ेगी। आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़ने का लाभ आखिरकार गरीबों और किसानों को भी मिलेगा। लेकिन तथ्य इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं।

पिछले दस साल में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। इसके बावजूद इस क्षेत्र में केवल डेढ़ करोड़ नौकरियां मिलीं। हर साल औसतन पंद्रह लाख नौकरी। इस अवधि में गांव में रहने वाली जनता की माली हालत और खराब हुई है। अमीर-गरीब के बीच की खाई चौड़ी हुई है। स्थिति यह है कि आज बयालीस प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, लेकिन उनके पास रोजगार का अच्छा विकल्प नहीं है।

इस संदर्भ में ताजा जारी रंगराजन समिति और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पर गौर करना जरूरी है। पिछले साल मनमोहन सिंह सरकार ने तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के आधार पर दावा किया था कि देश में कंगाल (गरीबी रेखा से नीचे) आबादी की संख्या घट कर केवल 21.9 प्रतिशत रह गई है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक गांव में जिस आदमी की आमदनी हर दिन सत्ताईस रुपए और शहर में तैंतीस रुपए से अधिक है वह कंगाल नहीं है। इस सत्ताईस और तैंतीस रुपए में एक आदमी का खाने, दवा, शिक्षा, कपडेÞ और स्वास्थ्य का खर्चा शामिल है। इस रिपोर्ट का विरोध होने पर रंगराजन समिति गठित की गई, जिसने तेंदुलकर समिति की सिफारिशों में संशोधन कर दिया है।

रंगराजन समिति के अनुसार गांव में जिस व्यक्ति की दैनिक आय बत्तीस और शहर में सैंतालीसरुपए से कम है, वही कंगाल की श्रेणी में आता है। नए मापदंड के मुताबिक अब देश की 21.9 फीसद नहीं, 29.5 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है। रंगराजन समिति की सिफारिश जारी होने के आसपास संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया में गरीबी के आंकड़े जारी किए। इन आंकड़ों के अनुसार दुनिया के तैंतीस प्रतिशत कंगाल अकेले हिंदुस्तान में रहते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में अत्यधिक गरीबों की संख्या अस्सी करोड़ है। यह तथ्य चौंकाता है, सरकारी दावों की पोल खोलता है। सरकारी आंकड़ों पर इसलिए भी शक होता है कि अगर देश में कंगाल आबादी केवल उनतीस फीसद है तो ताजा पारित खाद्य सुरक्षा कानून में क्यों सड़सठ प्रतिशत लोगों को सस्ता गेंहू-चावल देने की बात कही गई है? क्या हमारी सरकार इतनी उदार है कि वह कंगाल से ऊपर की आबादी पर सस्ता गेंहू-चावल लुटा देगी?

कंगालों और गरीबों की बात करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इस तबके के अधिकतर लोग गांवों में रहते हैं। इंद्रदेव के रूठ जाने की मार भी सबसे ज्यादा उन पर पड़ती है। गांवों में गरीबी की स्थिति यह है कि आज देश के साठ प्रतिशत किसान रात को भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। दुख की बात है कि देश की अन्नदाता कही जाने वाली जमात अपना और अपने बच्चों का पेट भरने की हैसियत नहीं रखती। रही-सही कसर महंगाई ने पूरी कर दी है। सरकार ने दावा किया है कि मई के मुकाबले जून में महंगाई घटी है, लेकिन बाजार में खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में जिस हिसाब से बढ़ोतरी हुई है उसे देख कर कहा जा सकता है कि आगे आने वाले दिन अच्छे नहीं होंगे।

फलों की कीमत में 23.17 प्रतिशत, सब्जियों में 15.27 प्रतिशत, दुग्ध उत्पादों में 11.8 फीसद और मांस-मछली-अंडे में 10.11 फीसद की वृद्धि की बात तो सरकारी आंकड़े भी स्वीकार करते हैं। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि खाद्य सामग्री की महंगाई शहरों के मुकाबले गांवों में अधिक होती है। अर्थशास्त्र का सिद्धांत सिखाता है कि अगर महंगाई सालाना पांच फीसद के हिसाब से बढ़ती है तो पचीस साल में कीमतें दो सौ चालीस प्रतिशत ऊंची हो जाती हैं।

यूपीए सरकार के दस बरस के शासन में खाद्य पदार्थों का मूल्य लगभग दो सौ प्रतिशत बढ़ा। उल्लेखनीय है कि यह आंकड़ा थोक मूल्य का है। इस सच से सभी वाकिफ हैं कि खुदरा बाजार में सब्जी, फल, दूध जैसी जल्दी खराब होने वाली चीजों की कीमत दो से तीन गुना ज्यादा होती है। ऐसे में आम आदमी की पीड़ा का अंदाज लगाया जा सकता है।

अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और जापान जैसे विकसित देशों में आम आदमी की माली हालत हमारे देश से कहीं बेहतर है, फिर भी वहां महंगाई का आंकड़ा पांच फीसद से नीचे है। हमारे देश में मुद्रास्फीति की दर कहीं ऊंची है और जनता की कमाई सीमित। ऐसे में उस पर महंगाई की मार का अंदाजा लगाजा सकता है। सरकारी नीतियों की कमजोरी के कारण ही पर्याप्त सप्लाई के बाद भी खाद्य पदार्थ महंगे हैं। महंगाई अब खतरनाक मुकाम पर पहुंच चुकी है। दाल-सब्जी जैसी जरूरी चीज गरीब की थाली से गायब होती जा रही है।

गरीबों के लिए प्रोटीन का सबसे बड़ा जरिया दाल है और जब यही नसीब नहीं होगी, तो उन्हें कुपोषण की चपेट में आने से कोई नहीं बचा सकता। हमारे देश में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। मोदी सरकार को नीतियां सुधारने पर ध्यान देना होगा।

मोदी सरकार की दूसरी बड़ी चुनौती औद्योगिक उत्पादन को गति देना होगा, क्योंकि इसके बिना रोजगार के अवसर पैदा करना असंभव है। आज बड़ी संख्या में किसान और मजदूर खेती छोड़ कर अन्य क्षेत्रों में रोजगार खोज रहे हैं। मेन्युफैक्चरिंग (विनिर्माण) क्षेत्र ही ऐसा है, जहां खेतिहर मजदूरों को खपाया जा सकता है। एक सरकारी अध्ययन के अनुसार 2012-22 के बीच कृषि क्षेत्र में रोजगार निरंतर घटेगा, जिससे हर साल रोजगार के 80.90 लाख अतिरिक्त अवसर सृजित करने होंगे। इस हिसाब से 2025 तक सरकार को बीस करोड़ अतिरिक्त नौकरियों का इंतजाम करना होगा और यह लक्ष्य विनिर्माण क्षेत्र के भरोसे ही भेदा जा सकता है।

आज सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी महज सोलह फीसद है। हमारे देश में दो दशक से अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र का योगदान लगभग स्थिर है। यह चिंताजनक संकेत है। चीन की जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान चौंतीस प्रतिशत है। इस कमजोरी के कारण ही विश्व व्यापार में हमारी हिस्सेदारी महज 1.8 प्रतिशत है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को अच्छे दिनों का भरोसा दिलाया था। सत्ता संभालते ही नई सरकार को मानसून और महंगाई से कड़ी चुनौती मिली है। इस चुनौती का सामना करने के लिए उसे अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन करना पड़ेगा। अग्निपरीक्षा में खरा उतरने पर ही भाजपा सरकार जन-विश्वास जीत सकती है।


http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=74895:2014-08-01-05-56-46&catid=20:2009-09-11-07-46-16


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close