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न्यूज क्लिपिंग्स् | खेतों का संकट और कुश्ती के अखाड़े-- हरिवंश चतुर्वेदी

खेतों का संकट और कुश्ती के अखाड़े-- हरिवंश चतुर्वेदी

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published Published on Dec 26, 2016   modified Modified on Dec 26, 2016
ग्लैमर, प्रेम और रोमांस से भरी बॉलीवुड फिल्मों से ऊबे दर्शक अब खेलकूद और खिलाड़ियों की जीवनियों से जुड़ी फिल्मों को ज्यादा पसंद कर रहे है। लगान, चक दे! इंडिया, भाग मिल्खा भाग, पान सिंह तोमर और मैरी कोम जैसी फिल्मों की सफलता से उत्साहित बॉलीवुड निर्माताओं का ध्यान हाल के वर्षों में कुश्ती से जुड़ी कहानियों पर गया है। सलमान खान पश्चिम उत्तर देश की कुश्ती से जुड़ी कहानी पर सुल्तान बना चुके हैं। जॉन अब्राहम ने रुस्तम-ए-हिंद गामा की जीवनी पर आधारित एक फिल्म बनाने की घोषणा की है। आमीर खान की फिल्म दंगल हमारा ध्यान न केवल देश के प्राचीनतम खेल मल्ल विधा या कुश्ती की दुर्दशा की ओर खींचती है, बल्कि यह भारतीय समाज में हो रहे बड़े परिवर्तनों की ओर भी संकेत करती है।


वैसे हमारे देश के खेलप्रेमी क्रिकेट के अलावा किसी अन्य खेल में शायद ही बहुत दिलचस्पी लेते हैं। फुटबॉल, हॉकी, वॉलीबॉल, गोल्फ, बास्केटबॉल और कबड्डी के प्रति रुचि बढ़ रही है, पर क्रिकेट के मुकाबले यह बहुत कम है और देश के कुछ खास क्षेत्रों और वर्गों तक सीमित है। भारत में कुश्ती की लोकप्रियता भले ही कम हो रही हो, लेकिन ओलंपिक में यह एक लोकप्रिय खेल है। दुनिया के 122 देशों में कुश्ती खेली जाती है। भारत, पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, मंगोलिया जैसे देशों में कुश्ती के प्रति पारंपरिक दिलचस्पी देखी गई है। महाभारत काल से लेकर आधुनिक काल तक भारत में मल्ल विधा या कुश्ती का एक समृद्ध इतिहास रहा है। आज भी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र के देहाती इलाकों में ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहां कुश्ती और पहलवानी के प्रति जनता की गहरी रुचि है। अगर बड़े शहरों में आईपीएल मैचों के लिए लाखों की भीड़ उमड़ती है, तो महाराष्ट्र के कोल्हापुर, नासिक, सतारा जैसे जनपदों में ग्रामीण अंचलों में होने वाले प्रसिद्ध दंगलों में लाखों की भीड़ कुश्ती देखने और पहलवानों का उत्साहवद्र्धन करने के लिए आती है।


आजादी से पहले के दौर में तमाम पुराने शहरों, जैसे अमृतसर, जालंधर, लुधियाना, रोहतक, दिल्ली, मथुरा, हाथरस, बनारस, गोरखपुर, बरेली, मेरठ, झांसी, ग्वालियर, भोपाल, इंदौर, पुणे, नासिक, सतारा, नागपुर, मुंबई, बड़ौदा आदि में अखाड़े पाए जाते थे, जो शहर से जरा हटकर प्राकृतिक वातावरण में थे। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के राजा छत्रपति साहूजी महाराज को कुश्ती में बहुत दिलचस्पी थी। वह अविभाजित पंजाब के मशहूर पहलवानों को अपने राज्य में बुलाकर कुश्ती की तालीम दिलवाते थे। इसीलिए महाराष्ट्र में अखाड़ों को तालीम कहा जाने लगा। मल्लखंभ को महाराष्ट्र में खेल-कूद का लोकप्रिय प्रतीक माना जाता है। इसका सीधा संबंध कुश्ती से है, क्योंकि इसी पर पहलवान अपना अभ्यास करते हैं।


साठ के दशक तक उत्तर भारत और महाराष्ट्र के तमाम शहरों में पाए जाने वाले अखाड़ों में पहलवानों की भीड़ लगी रहती थी। उन दिनों पहलवान आम जनता में बहुत लोकप्रिय होते थे। लोग उनसे मिलने, बात करने, उन्हें दूध-बादाम खिलाने, इनाम-सम्मान देने में बहुत खुश होते थे। आम लोगों में पहलवान एक नायक हुआ करते थे।


दिल्ली के गुरु हनुमान और उनके चेले चंदगीराम के चर्चे कई दशकों तक चलते रहे। 1970 के दशक तक बॉलीवुड में दारा सिंह की फिल्में सुपरहिट होती थीं, जो मुख्यत: उनकी मल्ल विधा और शारीरिक सौष्ठव पर आधारित होती थीं।


भारत के मशहूर पहलवानों में गुलाम मोहम्मद उर्फ गामा का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है, जो सन 1878 में अमृतसर में पैदा हुए थे। सिर्फ 10 वर्ष की आयु में उन्हें जोधपुर में हुए दंगल में 400 पहलवानों की प्रतियोगिता में 15वां स्थान मिला था। उनके अभ्यास के बारे में अनेक किंवदंतियां हैं। वह रोजाना पांच हजार बैठक और तीन हजार दंड लगाते थे। वह 40 पहलवानों से हर दिन कुश्ती भी लड़ते थे। उनकी दैनिक खुराक भी अच्छी-खासी थी- 15 लीटर दूध, एक सेर बादाम और आधा सेर घी। सन 1897 और 1910 के बीच गामा ने भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में जाकर अनेक नामी-गरामी पहलवानों को शिकस्त दी और उन्हें 1910 में ‘रुस्तम-ए-हिंद' का खिताब दिया गया।


विभाजन के बाद गामा पाकिस्तान चले गए और लाहौर में जाकर बस गए थे। अपने जीवन के आखिरी दिनों में वह काफी बीमार पड़ गए थे और उन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। उन दिनों भारत के उभरते हुए उद्योगपति जीडी बिड़ला ने, जो कुश्ती व पहलवानी के बड़े शौकीन थे, गामा की आर्थिक मदद की थी। गामा पहलवान का निधन 23 मई, 1960 को लाहौर में हुआ था। कहा जाता है कि चीनी मार्शल आर्ट के विख्यात कलाकार ब्रूस ली को गामा के जीवन से प्रेरणा मिली थी।


भारत में कुश्ती और पहलवानी की इतनी समृद्ध परंपरा व लोकप्रियता के बावजूद आखिर हम क्यों ओलंपिक, एशियाड व कॉमनवेल्थ खेलों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते? क्यों साक्षी मलिक के महिला कुश्ती में कांस्य पदक पाने से संतुष्ट हो जाते हैं? इस विडंबना की गहरी वजह कुश्ती के प्रति सरकारी उपेक्षा तो है ही, मुख्य रूप से भारतीय कृषि पर गहराते संकट के बादल हैं। कुश्ती अब गांवों में सिमटकर रह गई है। शहरी मध्यवर्ग क्रिकेट से अभिभूत है, क्योंकि उसमें ग्लैमर, पैसा, रोमांच, सब कुछ है। ग्रामीण भारत के बड़े-बूढ़े, बच्चे और युवा, सभी कुश्ती के दंगलों को देखकर रोमांचित होते हैं। उनके मनोरंजन का तो यह साधन है ही, यह ग्रामीण संस्कृति का भी एक प्रतीक है, क्योंकि किसान का शारीरिक रूप से बलशाली होना जरूरी होता है।

देश के ग्रामीण अंचलों में कुश्ती की लोकप्रियता और उस पर मंडराते संकट के बारे में प्रसिद्ध कृषि पत्रकार पी साईनाथ का कहना है कि वहां कुश्ती राजनीति, खेल और संस्कृति के त्रिकोण पर टिकी है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जड़ों तक यह पैठी हुई है। साल 2014 और 2015 में सूखे का गंभीर प्रकोप था, इसलिए उसका विपरीत असर दंगलों की वित्त-व्यवस्था पर भी पड़ा। सूखा तो निपट गया, पर अब नोटबंदी से हर किसान त्रस्त है। ऐसे में, कुश्ती की तालीम, अखाड़ों और दंगलों के लिए आखिर कौन आर्थिक मदद देगा? आमीर खान की फिल्म दंगल ने भारतीय कुश्ती के प्रति उम्मीद जगाती है। रुस्तम-ए-हिंद गामा अपनी वृद्धावस्था में इलाज के लिए आर्थिक संसाधन न जुट पाए हों, लेकिन भारत के युवा पहलवानों और खासतौर से गीता फोगट, बबिता फोगट और साक्षी मलिक जैसे पहलवानों की मदद सरकारों और औद्योगिक घरानों को करनी होगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-toys-clothing-wood-clay-643268.html


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