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न्यूज क्लिपिंग्स् | खेल से वंचित होते बच्चे-- सुभाष गताडे

खेल से वंचित होते बच्चे-- सुभाष गताडे

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published Published on Feb 16, 2016   modified Modified on Feb 16, 2016

दिल्ली के मुंडका इलाके के बच्चे इन दिनों दुखी हैं। दरअसल, इस इलाके में उपलब्ध एक सौ सैंतालीस एकड़ खुली जमीन पर सरकार ने औद्योगिक परिसर बनाने का निर्णय लिया है। इसके इर्दगिर्द कम-से-कम आठ लाख लोग रहते हैं, जिनके बच्चों के खेलने के लिए यही एकमात्र खुली जगह है। जाहिर है कि इससे न केवल प्रदूषण में बढ़ोतरी होगी बल्कि बच्चे खुले में ही खेलने के लिए मजबूर होंगे और दुर्घटना की आशंका बढ़ेगी। बढ़ते प्रदूषण से तबाह दिल्ली में हरियाली बढ़ाने के लिए सक्रिय स्थानीय समूह इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि सरकार अपने फैसले पर पुनर्विचार करे, वहां खेल का मैदान बना दे और जैव विविधता पार्क बना दे।

 

निश्चित ही इस पूरे घटनाक्रम को बेहद सरलीकृत रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, जहां लोगों का जीवनयापन का अधिकार, जो एक तरह से इस योजना से पूरा होगा, वह बच्चों के खेलने के अधिकार के खिलाफ खड़ा होता दिखे। मगर विडंबना ही है कि दुनिया के इस हिस्से में विकास को जिस तरह देखा-समझा और अमल किया जाता है, वहां वह इसी तरह सामने आता है। हर दूसरे शहर को ‘शंघाई' या ‘सिंगापुर' के दूसरे संस्करण बनाने का यह सिलसिला ही है कि खेल के मैदानों, बगीचों, पार्कों या हर खाली जगह का अधिग्रहण होता है, जिसकी परिणति यही होती है कि बच्चों के खेलने या उन्हें यों ही इधर-उधर मटरगश्ती करने के लिए घूमने की जगहें सीमित होती जाती हैं, जो उन्हें अधिकाधिक खतरनाक स्थानों पर- जैसे चलते वाहनों के बीच सड़क पर या गली में- खेलने के लिए मजबूर करती हैं। निश्चय ही बच्चों के खेलने के लिए खाली स्थानों की उपलब्धता की कमी या पहले से उपलब्ध स्थानों के व्यावसायिक जगहों में रातोंरात रूपांतरण की यह कोई पहली घटना नहीं है।

 

दिल्ली के इस प्रस्तावित मामले में सरकार की तरफ से कम से कम यह आश्वासन दिया गया है कि वह आकर मोहल्ला सभा का आयोजन करके लोगों के विचार जानने का प्रयत्न करेगी। मगर हर बार चीजें ऐसे नहीं होतीं। अभी पिछले ही साल मुंबई से इसी सिलसिले में आई एक खबर पर तो कहीं चर्चा भी नहीं हुई। सबकुछ इतना आनन-फानन हुआ कि बांद्रा के अलमीडा पार्क में अपने खेलने की जगह में जब शाम को बच्चे पहुंचे तो उन्हें इस बात का पता चला कि वहां मोबाइल टॉवर लगाया जा रहा है। निवासियों ने बच्चों की शारीरिक सुरक्षा तथा मोबाइल टॉवर के रेडिएशन के खतरनाक परिणामों को रेखांकित करते हुए इस पर आपत्ति दर्ज करानी चाही, मगर उन्हें महानगरपालिका के इंजीनियरों ने बताया कि उपरोक्त समूह को सभी किस्म की मंजूरी मिल चुकी है।

 

खबर है कि ‘शहर के म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के मुताबिक उपनगरीय मुंबई में लगभग बीस पार्कों तथा खेल के मैदानों में मोबाइल टावर्स लगाए जाने वाले थे, जो सभी एक ही प्राइवेट कंपनी (रिलायंस जिओ इन्फोकॉम) के होने वाले थे।' ध्यान रहे कि दिसंबर 2014 में उपरोक्त कंपनी को इकतीस सार्वजनिक स्थानों पर 4-जी मोबाइल टॉवर्स (25 मीटर ऊंचे ट्रांसवीवर स्टेशन) बनाने की इजाजत दी गई। इन सार्वजनिक स्थानों में शामिल थे: पार्क, बगीचे, खेल के मैदान और खुली जगहें, जिनमें से एक सांताक्रूज के स्कूल के सामने है। गौरतलब है कि जिस समिति ने यह मंजूरी दी उसी ने नवंबर माह में स्कूलों, अस्पतालों के पास ऐसे मोबाइल टॉवर बनाने पर रोक लगाई थी। मगर बच्चों के खेलकूद के मैदानों पर कब्जा सिर्फ कॉरपोरेट मालिकानों की तरफ से नहीं हो रहा है।

 

ऐसी जगहें हर तरफ से बलि चढ़ाई जा रही हैं। कहीं किसी सरकारी परियोजना की भेंट चढ़ जाती हैं, कहीं अतिक्रमण की और कहीं विकास के नाम पर खाली स्थानों को अंधाधुंध ढंग से हथियाये जाने की प्रवृत्ति की। अब शहरों-महानगरों में कारों की बढ़ती संख्या के चलते आसपास के पार्कों की दीवारों को ‘आपसी सहमति' से तोड़ उसे पार्किंग स्पेस में तब्दील करने की मिसालें आए दिन मिलती हैं। और महज कारें नहीं, लोगों की श्रद्धा का दोहन करते हुए खाली जगहों पर प्रार्थनास्थल निर्माण करने का सिलसिला इधर बीच कुछ ज्यादा ही तेज होता दिखता है। एक मोटे अनुमान के हिसाब से पार्किंग के चलते शहर की लगभग दस फीसद भूमि इस्तेमाल हो रही है, जबकि राजधानी का वनक्षेत्र बमुश्किल ग्यारह फीसद है। दिल्ली के जिस इलाके में प्रस्तुत लेखक रहता है, वहां बीस से अधिक स्थानों से वह वाकिफ है जहां पार्कों को पार्किंग स्पेस में या प्रार्थनास्थलों के निर्माण में न्योछावर कर दिया गया है।

 

अब इलाके के बच्चे खेलने के लिए कहां जाएं, यह सरोकार किसी का नहीं है। बच्चों के लिए खाली स्थानों की अनुपलब्धता उनके स्वास्थ्य पर किस तरह गहरा असर कर सकती है, इसे जानना हों तो हम ब्रिटेन के मुख्य चिकित्सा अधिकारी द्वारा तैयार एक रिपोर्ट को देख सकते हैं, जो लंदन से निकलने वाले प्रतिष्ठित अखबार ‘गार्डियन' में 25 अक्तूबर 2013 को प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि किस तरह वहां सुखंडी अर्थात रिकेटस की बीमारी ने वापसी की है, जिसे उन्नीसवीं सदी की निशानी समझा जाता था। रिपोर्ट में बताया गया था कि सर्वेक्षण किए गए इलाकों में पच्चीस फीसद या उससे भी अधिक बच्चों में विटामिन-डी की कमी पाई गई। स्वास्थ्य की बुनियादी जानकारी रखने वाला बता सकता है कि विटामिन-डी धूप में खेलने या घूमने-फिरने से शरीर में तैयार होता है। अपने आलेख ‘चिल्ड्रेन इन अवर टाउंस ऐंड सिटीज आर ंिबंग राब्ड आफ सेफ प्लेसेस टु प्ले' में जार्ज मानबियाट (गार्डियन, 5 जनवरी 20150) बताते हैं कि किस तरह ‘आज का बचपन अपनी साझी जगहों को खो रहा है।'

 

किस तरह सत्तर के दशक से आज तक ऐसे स्थानों की उपलब्धता में नब्बे फीसद गिरावट आई है, जहां बच्चे किन्हीं वयस्क के बिना भी घूम सकते हैं। उनके मुताबिक ‘सरकारी मास्टरप्लान में, बच्चों का उल्लेख महज दो बार हुआ है, वह भी आवास की श्रेणियों के संदर्भ में। संसद द्वारा इन योजनाओं की समीक्षा में, उनका कहीं कोई उल्लेख तक नहीं है। युवा लोग, जिनके इर्दगिर्द हमारी जिंदगियां घूमती हैं, उन्हें नियोजन की प्रणाली से गायब कर दिया गया है।' पिछले दिनों अपने एक महत्त्वपूर्ण आलेख (नो चाइल्ड्स प्ले, इकोनोमिक ऐंड पोलिटिकल वीकली, 16 जनवरी 2016) में बाल अधिकारों के लिए प्रयासरत कार्यकर्ता किशोर झा ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा बच्चों के खेलने के अधिकार को दी गई मान्यता और वास्तविक स्थिति में बढ़ते अंतराल की ओर इशारा करते हुए लिखा कि जहां 1959 में संयुक्त राष्ट्र ने बच्चों के अधिकारों पर अपना घोषणापत्र जारी करते हुए उसमें खेलने के अधिकार को रेखांकित किया, वर्ष 1989 में उसे अधिक मजबूती दी गई जब बाल घोषणापत्र पारित हुआ, जिसकी धारा 31 बच्चों के मनोरंजन, खेलने, आराम करने आदि अधिकारों पर जोर दिया गया। प्रस्तुत घोषणापत्र पर दस्तखत करने के नाते यह राज्य की कानूनी जिम्मेदारी बनती है कि वह इसका इंतजाम करे, मगर न राज्य इसके प्रति गंभीर दिखता है, न हमारे यहां खेलने की संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। निवासी संघ ( रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन) भी अपने अपार्टमेंटों या रिहायशी इलाकों में चारों तरफ गेट लगा कर बच्चों को उनके इस अधिकार से वंचित कर रहे हैं।

 

कुछ माह पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने खुद पार्कों में बच्चों के खेलने के अधिकार की हिमायत करते हुए निर्देश दिए थे। मगर उसने बाद में पाया कि जमीनी स्तर पर कुछ भी हुआ नहीं है। यहां यह उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने दिल्ली उच्च न्यायालय को यहां के पार्कों की दयनीय स्थिति के बारे में लिखा था। उसी पत्र को उच्च न्यायालय ने जनहित याचिका में तब्दील कर अपना फैसला सुनाया था। बच्चों के खेलने के अधिकारों के बढ़ते हनन के तमाम प्रसंग बयान किए जा सकते हैं। प्रश्न है कि उनके लिए कौन बोलेगा? वैसे दुनिया में इक्का-दुक्का ऐसी मिसालें भी सामने आ रही हैं जब बच्चों और बड़ों ने मिल कर उनके खेलने के मैदान कोरातोंरात बड़े थैलीशाहों के हाथों सौंपे जाने के विरुद्ध सफल प्रतिरोध किया। पिछले साल की बात है, जब केन्या की राजधानी नैरोबी के लंगाटा प्राइमरी स्कूल के बच्चों द्वारा अपने स्कूल के मैदान पर कब्जे के खिलाफ पिछले दिनों चले शांतिपूर्ण प्रदर्शन को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में प्रमुखता से जगह मिली। क्रिसमस की छुट्टियों के बाद स्कूल पहुंचे बच्चों ने पाया कि किस तरह उनके स्कूल के मैदान को घेर लिया गया है, अस्थायी दीवार बना दी गई है और वहां सुरक्षाकर्मी भी तैनात हैं। उन्हें पता चला कि केन्या के एक दबंग राजनेता के पास में स्थित होटल की पार्किंग के लिए इस मैदान का अधिग्रहण किया गया है। फिर कुछ वरिष्ठ छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से उन्होंने एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन की योजना बनाई। मगर उन्हें शायद यह अंदाजा नहीं था कि जिन पुलिस अंकल एवं सेना के जवानों के बारे में उनकी पाठ्यपुस्तकों में अच्छी-अच्छी बातें लिखी रहती हैं, वे उन पर टूट पड़ेंगे, लाठियां चलाएंगे, आंसू गैस के गोले भी छोड़ेंगे। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि रातोंरात केन्या के राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करके इस अधिग्रहण को वापस लेना पड़ा। बहरहाल, खेलने के अपने अधिकार को लेकर केन्या के बच्चों ने जो नजीर कायम की, वह भारत के लिए भी बहुत अहमियत रखती है।


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