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न्यूज क्लिपिंग्स् | खौफ पर शिक्षा की लौ भारी

खौफ पर शिक्षा की लौ भारी

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published Published on Mar 13, 2016   modified Modified on Mar 13, 2016
बाल विवाह व दलालों की खिलाफत करनेवाली गुमला की विरशमुनी कुमारी व ममता कुमारी की चर्चा पूरे राज्य में है. चैनपुर की सुनीता की कुरबानी भी आदर्श है, जिसने नक्सलियों के साथ से ज्यादा पढ़ाई को महत्व दिया. जान गवां दी, पर झुकी नहीं. असामाजिक तत्वों के खिलाफ शिक्षा की मशाल जला यहां की बेटियां समाज को बदलाव की नयी राह दिखा रही हैं.

गुमला से लौट कर जीवेश

jivesh.singh@prabhatkhabar.in

गुमला के सुदूर नक्सल प्रभावित गांवों की बच्चियां शिक्षक व अधिकारी बनना चाहती हैं. इसके लिए वे किसी फरमान से भी नहीं डरतीं. ऐसी साहसी बच्चियों की मदद में कई भी हाथ बढ़े हैं. आज ये बेटियां न सिर्फ खुद अच्छी शिक्षा ले रहीं, बल्कि अन्य लड़कियों के लिए भी प्रेरणास्राेत बनी हुई हैं.

जिला मुख्यालय से 45 किमी दूर सुदूर जंगली क्षेत्र है डहूपानी पंचायत. यहां के कई गांवों में जाने के लिए कई किमी पैदल चलना पड़ता है. यहां के एक गांव (सुरक्षा कारणों से गांव का नाम नहीं दे रहे) के कई ग्रामीणों को असामाजिक तत्वों ने अपनी बेटियों को सौंप देने को कहा. माता-पिता परेशान थे. ऐसे में सुनीता कुमारी, सोने सोरेन, जलसेंजिया बा व सोना कुमारी (बदला हुआ नाम) ने उनकी खिलाफत करते हुए नयी राह दिखायी. उन लोगों ने फरमान के खिलाफ शिक्षा की ज्याेत जलाने का फैसला किया. उनकी मदद की कुछ अधिकारियों ने. उन सबने चाइल्ड वेलफेयर कमेटी को अपनी समस्या से संबंधित आवेदन दिया.

कमेटी के लाेग आगे आये अौर उन सबका वर्ष 2011 में कस्तूरबा आवासीय विद्यालय में नामांकन हो गया. वो यहीं तक नहीं रुकीं, उन लोगों ने अपनी सहेलियों को भी बचाया. आज गुमला के विभिन्न स्कूलों में ऐसे दर्जनों बच्चे हैं, जो पढ़ाई व खेल में बहुत तेज हैं. गुमला के कस्तूरबा आवासीय विद्यालय में जब इन बच्चियों से मिला, तो उनके आत्मविश्वास ने उत्साहित किया.

उन्हें अपने माता-पिता, घर व साथियों से दूर रहने का दर्द तो है, पर इस बात की खुशी भी है कि वो जिल्लत की जिंदगी नहीं जीयेंगी. सबने कहा कि उन्हें पढ़-लिख कर कुछ बनना है. खास कर अपने घर अौर समाज के लिए कुछ करना है. वो हमसे पूछ बैठीं : आखिर क्यों कुछ लोग बच्चों से उनका बचपन अौर मां-बाप का प्यार छीनना चाहते हैं.

बढ़ी है आवेदनों की संख्या : चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के सदस्य हैं संजय कुमार भगत. उनके अनुसार गुमला में इस तरह के केस आते रहते हैं. इस वर्ष भी उन लोगों ने 44 बच्चों की सूची तैयार की है, जिसे जिला शिक्षा अधीक्षक को सौंपी जायेगी, ताकि उन बच्चों की पढ़ाई हो सके. उनके अनुसार, बच्चों के लिए आनेवाले आवेदनों की संख्या बढ़ी है.

पुलिस ने भी की थी मदद : मार्च 2015 में लातेहार में हुई एक मुठभेड़ के बाद पुलिस ने बालमुनी नामक एक महिला नक्सली को पकड़ा था. उसकी उम्र लगभग 14 वर्ष थी. पुलिस ने उसका इलाज कराया अौर बाल पुलिस भी बनाया. उस दौरान भी यह बात सामने आयी थी कि नक्सली बच्चों का उपयोग कर रहे हैं.

गुमला से बच्चों को ले जा चुके हैं नक्सली : झारखंड के विभिन्न इलाकों से ऐसी सूचनाएं आती रहती हैं कि नक्सली बच्चों को उठा ले गये या फिर मांगा है. हाल ही में गुमला में बच्चों को जबरन ले जाने की घटनाएं हुई हैं. इस संबंध में मामला भी दर्ज है. इनमें से अधिकतर का आज तक पता नहीं चला है.

इस पर हाइकोर्ट ने भी कड़ी टिप्पणी की थी. 21 जनवरी 2016 को हाइकोर्ट ने कहा था कि पुलिस बच्चों को बरामद करने के लिए ठोस कार्रवाई करे. अधिकतर ऐसे मामलों में विवश माता-पिता गांव छोड़ देते हैं या फिर बच्चों से हाथ धो बैठते हैं. ऐसे में गुमला की बच्चियों का यह साहस नयी राह दिखाने का काम करेगा.

(गुमला से दुर्जय पासवान व पालकोट से महिपाल सिंह साथ में)

रोज मिलती थी धमकी

कस्तूरबा आवासीय विद्यालय की प्रभारी नीलम प्रभा केरकेट्टा, रांची के हुलहुंडू की रहनेवाली हैं. उनके अनुसार जब ये बच्चियां स्कूल अायीं, तो काफी दिनों तक उनको धमकी भरे फोन आते रहे. फोन करनेवाले कहते थे कि बच्चियों को स्कूल से निकाल दें, पर उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया. वह कहती हैं कि आज ये लड़कियां बेहतर कर रही हैं.
पढ़ाई के साथ खेल में भी उनका अच्छा प्रदर्शन रहता है. सुश्री केरकेट्टा कहती हैं कि जब ये लड़कियां आयीं, तो डरी-सहमी सी रहती थीं, अब अपने स्कूल की टीम लीडर हैं. कोलेंगे पंचायत की मुखिया हैं सुषमा केरकेट्टा. कहती हैं कि इस तरह के मामले सामने आते रहते हैं. वह ऐसे पीड़ित परिजनों को बचाने में पूरा सहयोग देती है.

http://www.prabhatkhabar.com/news/khabro-ki-khabar/story/738427.html


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