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न्यूज क्लिपिंग्स् | गुरेज़: पट्टू बुनकरों की रेशा-रेशा बिखरती ज़िंदगी

गुरेज़: पट्टू बुनकरों की रेशा-रेशा बिखरती ज़िंदगी

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published Published on Aug 28, 2023   modified Modified on Aug 28, 2023

पारी हिंदी, 28 अगस्त 

अपना आख़िरी पट्टू बुने हुए अब्दुल कुमार मागरे को कोई 30 साल हो गए हैं. वह कश्मीर की भयानक सर्दियों - जब तापमान -20 डिग्री से भी नीचे चला जाता है - से बचाव करने के लिए मशहूर इस ऊनी कपड़े को बुनने वाले कुछ आख़िरी बचे हुए बुनकरों में एक हैं.

अब्दुल (82) याद करते हुए कहते हैं, “मैं एक दिन में तक़रीबन 11 मीटर कपड़े बुन लेता था.” उन्हें अब आंखों से बहुत कम दिखता है. कमरे की दूसरी तरफ़ जाने के लिए वह अपने एक हाथ से दीवार टटोलते हुए आगे बढ़ते हैं. “जब मैं क़रीब 50 का था, तब लगातार बुनाई करते रहने के कारण मेरी आंखें कमज़ोर होने लगी थीं.

अब्दुल, दावर गांव में रहते हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में गुरेज़ घाटी की हब्बा ख़ातून चोटी नज़र आती है. साल 2011 की जनगणना के अनुसार कुल 4,253 आबादी वाला यह गांव बांडीपुरा ज़िले में है. वह बताते है हैं कि अब कोई भी बुनकर नहीं बचा है, जो पट्टू की बुनाई करता है, “अब से सिर्फ़ दस साल पहले गांव के सभी घरों में जाड़े के महीनों में इस कपड़े की बुनाई की जाती थी, ताकि वसंत और गर्मियों के मौसम में इसे बेचा जा सके.”

कुछ कपड़े जिन्हें अब्दुल और उनके परिवार के लोग श्रीनगर और कुछ दूसरे राज्यों में भी बेचते थे, उनमें फिरन (शरीर पर ऊपर से पहना जाने वाला एक गाउननुमा पारंपरिक कपड़ा), दुपाठी (कंबल), जुराबें और दस्ताने शामिल होते थे.

हालांकि, अपने हुनर से बहुत लगाव रखने के बावजूद अब्दुल के लिए इसे ज़िंदा रख पाना बहुत आसान नहीं है, क्योंकि तैयार ऊन - जो कि इस काम के लिए ज़रूरी कच्चा माल है, अब बहुत सुलभ नहीं है. अब्दुल जैसे बुनकर ऊन हासिल करने के लिए भेड़ पाला करते थे, और पट्टू बनाने के लिए उन पालतू भेड़ों का ऊन निकालते थे. वह बताते हैं कि लगभग 20 साल पहले तक ऊन आसानी से और सस्ती लागत पर मिल जाता था, क्योंकि उनका परिवार ख़ुद भी 40-45 भेड़ें पालता था. वह याद करते हैं, “हमें अच्छा-ख़ासा मुनाफ़ा होता था.” फ़िलहाल उनके परिवार में सिर्फ़ छह भेड़ें ही हैं.
पूरी खबर- पारी हिंदी


पारी हिंदी, 28 अगस्त https://ruralindiaonline.org/en/articles/pattu-weaving-is-fraying-at-the-edges-hi/
 

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